शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मध्यवर्गीय परिवार और हाईप्रोफाइल सभ्यता का यथार्थ चित्रण

मध्यवर्गीय परिवार और हाईप्रोफाइल सभ्यता का यथार्थ चित्रण

(विवश चेहरा के सन्दर्भ में )


साहित्य अमृत के अप्रैल २०१३ अंक में अमिता दुबे की कहानी "विवश चेहरा" मध्यवर्ग और हाई प्रोफाइल सभ्यता को फेंटकर लिखी ऐसी कहानी है, जिसे पढकर अनायास जैनेन्द्र जी के सुनीता उपन्यास वाली बात याद आती है-मनुष्य की सारी समस्याएं शादी के बाद प्रारम्भ होती है | कहानी छोटी है लेकिन यह 'गागर में सागर' की भांति कहानी विधा को एक ऐसा धरातल दिलाती है, जिस पर हम गर्व कर सकते हैं | कहानी की मुख्य पात्र अनुराधा ,जो मध्य्वार्गीय परिवार की लड़की रहती है| इनकी शादी उच्च वर्गीय असित जी से जुगाड़ तंत्र से ही होती है लेकिन उसे कहाँ पता कि-उसके सास-ससुर की स्थिति दयनीय है इसी कारण वह कहती है-उसे तत्क्षण अपने घरवालो पर क्रोध आया | केवल लड़का देखा, पैसा-रूपया देखा और शादी कर ली ' सास-सहर की हालत नहीं देखी|' लेकिन अब क्या हो सकता था ? उसने मौन का कवच ओढ़ लिया था | यही मौन आज के मध्यवर्गीय परिवार की लड़कियों को शोषण हेतु आमंत्रित भी करता है |
अमिता जी ने इस कहानी में तीन पीढ़ियों के अंतर्विरोध को सहजता से समाहित किया है -सास-ससुर, अनुराधा-असित और देवांश-माडर्न लड़की अदिति | अनुराधा अपने जीवन में हमेशा समझौता ही करती है | शादी के बाद परिवार से, देवर और अभेद्य दीवार पार करने में पीछे हटना और बूढ़ी होती भावनाओं के साथ बहू की समीप लाने की कोशिश | हार जगह इसे ही समझौता करना पड़ा | इस कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब देवांश विदेश की पढाई पूरी करके घर आता है और माँ के पैरों को छूने के बाद दुबले पतली, किन्तु माडर्न लड़की को भी लगभग घसीट ही लिया पैर छूने को | स्थिति तब गंभीर होती है जब देवांश की बहू नौकरानी से कहती हैं-राधा, तुम फूलदान उधर रखो | ओफ्फो! क्या कमरा बना रखा है..........यह सारा फर्नीचर कहीं कबाड में डाल दो | बेचारी माँ को कहाँ पता था कि जो लड़का बचपन में उसका लाडला था वह आज इस दुबली-पतली लड़की की गुलामी करेगा | कहाँ पुत्र स्नेह को पाने की लालसा उछल-उछल कर साँसे भर रही थी | इसी कारण उसने अपनी हैसियत के अनुरूप कमरे की सजावट भी की थी | कहानी का अंत अनुराधा के माध्यम से उन तमाम महिलाओं के अंतस से निर्मित होता जान पड़ता है, जिसमे केवल और केवल परम्पराएँ ही शेष बचती है | क्योंकि 'अचानक....अनु को अपने चेहरे के जगह अपनी सास का जर्जर होता विवश चेहरा दिखाई दिया |'
कहानी की पढते समय कभी-कभी भ्रम होने लगता है कि-यह पटकथा तो नहीं | लेकिन संवाद की अड़चन जरूर वहाँ तक नहीं पहुचने देती | बहरहाल सिनेमाई प्रभाव इस कहानी की कमी कही जा सकती है | दूसरी बात भाषा-शैली के स्तर पर भी इसमें कुछेक कमियां देखी जा सकती है | सत्य प्रकाश मिश्र सर कहा करते थे कि-कहानी की सार्थकता भाषा शैली और संवाद्कौशल से भी निर्धारित की जाती है | इसमें अनुराधा पढ़ी-लिखी लड़की है लेकिन मध्यवर्गीय परिवार का प्रतिनिधित्व कर रही है अतः उसकी प्रारम्भिक भाषा और अंत की भाषा में एकरसता है, इस अर्थ में कहानी हल्की महसूस होती है | इसी प्रकार माडर्न अदिति की शैली को थोडा और तराशकर प्रस्तुत करने से कहानी २१वी, सदी के चित्र को समग्रतः प्रस्तुत किया जा सकता था |लेकिन मनोरंजन की दृष्टि से यह कहानी सटीक है | साथ ही स्थायी प्रभाव भी छोड़ने में सफल कहानी कही जा सकती है |

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