शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

घूमता आईना

घूमता आईना


धूप छाँव में
सूर्य की किरण पडती है
घुमते आईने पर |
घूमते हैं जड़, जंगल, जमीन
घूमते रहते हैं जीव
नश्वर को अनिष्ट करके
हो जाते हैं निर्जीव |
चक्रण में गाँव की झोपड़ी
महलों की सीमा से दूर रहते
शूट-बूट और कंठ लंगोट
घूमते-घूमते फंस जाते
उलझ कर कभी गिर जाते
उठने की कवायद कर
गर्त में फंस जाते ||

४ अप्रैल २०१३

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान  (सरकारी सेवा के बीस साल) मनुष्य अ...