रविवार, 25 अगस्त 2013

लेखनी की बानगी : कल, आज और कल

लेखनी की बानगी : कल, आज और कल


लेखनी की बानगी : कल, आज और कल


समय परिवर्तनशील होता है कहने की अपेक्षा बीतता है कहना काव्यात्मक लिहाज है  लेकिन इस परिवर्तन की ओर तिरछी नजर डालने पर जो चित्र उभरकर सामने आता है वह भयावह भी होता है तथा परंपरा के साथ आँख-मिचौली भी क्गेलता है | इस सन्दर्भ में बचपन के बियाये पलों का स्मरण लाजमी है | कैसा था वह बचपन ! कैसी थी वह बानगी !...ऐसे अनेक प्रश्नों से जुड़ते ही लेखनी और अक्षर ब्रह्म के अंतर्संबंधों में आये उतार चढाव की ओर अनायास ध्यान खींचा चला जाता है | जब लकड़ी की पटरी से बने घाट पर (जिसे बैटरी की कालिख या हरे पत्ते लगाकर सीसी से गेल्ह कर चमकाकर सूता  मारकर हाशिया बनाते हुए सीधी लकीर खींचते थे तो एक ही साथ लेखनी और गणित की जमीन तैयार होती थी) चाक (भाठ), दवात और कंडे (किरिच) की त्रिवेणी में संगम पर स्नान कराते थे तो अमरत्व से परिपूर्ण अक्षर दूर से ही ब्रह्म के अस्तित्व और स्वरूप को स्पष्ट करता हुआ पूर्णता को प्राप्त होता था | अक्षर-ब्रह्म के इस चरित्र से पड़ोसी ध्वनियाँ भी विचलित हुए बिना नहीं राह सकती थीं |

समय बीतता गया, समाज बदलता गया....कहीं क्रान्ति तो कहीं शान्ति....ऐसे संक्रमणकालीन युग में लेखनी कैसे बच पाती क्यों अब पटरी ने स्लेट को और चाक ने पेन्सिल को जन्म दिया | जन्म से ही इनका प्रभाव भी दिखने लगा | बेचारे अक्षर, जो लगभग अमरत्व को प्राप्त हो चुके थे अपने होने या न होने के बीच में पहचान बनाने के निमित्त संघर्ष करता हुआ प्रतीत होने लगा | इसी कारण उसने परिवर्तन को झुककर प्रणाम करने में ही अपनी सुरक्षात्मक आधार माना | फलतः शब्दों की हिम्मत भी पश्त होने लगी .....लेखनी की इस दुर्गति को देखकर पुरस्कर्त्ताओं ने इस प्रभाव को कम करने के ली कुछ नया ईजाद करने की कोशिश भी की परन्तु इस खोज के अस्तित्व में आने के बाद (तथाकथित राम चेतना ) लगभग तीन दशक बीत गए और चौथे दशक ने दस्तक भी डे दी | विद्वानों ने चतुर्दिक विचारों की बौछार भी किया और कहा-कि 21वीं सदी है...वैश्विक सदी है......भई! बचकर नए में नए की टकराहट से उत्पन्न ऊर्जा  से पूर्वर्ती धारा, मध्यवर्ती धारा और अधुनातन धारा में वियोग की स्थिति बनना अवश्यंभावी हो गया | इस वियोग में अक्षर श्रृंगार की महिमा में क्रांतिकारी परिअर्त्न होने लगा क्योंकि  अब जन्म लेते ही शिशु-बालक के हाथ में पटरी-स्लेट की जगह रंगीन चित्रित कापी, चाक-पेन्सिल की जगह डाट पेन और फाउंटेनपेन  थामकर नीति-निर्धारकों ने लेखनी की ममता से परिपूर्ण वात्सल्य रस को सोखने को मजबूर किया | बिना माँ के यह लेखनी असहाय होकर लावारिस की तरह सम्पूर्ण ब्राह्मांड में विचरण करने लगी | जिस प्रकार एक माँ गर्भ में नन्हें शिशु के पूर्व रूप का पोषण करती हैं और जन्म देकर आजीवन पोषण करती है परन्तु शिशु से बिछड़ते ही जल से निकली मछली की भाँती वह तडपने लगती है ठीक उसी प्रकार की स्थिति लेखनी और अक्षर की हो गयी | यहाँ तदपन दोनों ओर होता रहा लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था न ही कोई परशुराम ही राम धनुष की टंकार सुन सके और न ही राम ही अवतारी बनकर अपने आदर्श को बचा पाए | अक्षर के साथ ही जन्मदात्री ध्वनी, वर्ण भी लहराते रहे और शुद्ध-अशुद्ध के बीच त्रिशंकु की तरह बीच में अटककर विलाप करते रहे...अब तो संचार क्रान्ति ने डिजिटल लेखनी को जन्म देकर परंपरागत लेखनी को पूरी तरह से विलुप्त करने का बीड़ा भी उठा लियें हैं..देखें कब तक ये अपना अस्तित्व बरकरार रखती हैं |

अंततः यह कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है कि-मनुष्य भले ही अपने आपको वैज्ञानिक लहजे में ढाल लें, आधुनिक चोला पहन कर उत्तर आधुनिक नगरी में घूमे-फिरे, वैश्विक भोजन खाकर संतुलित बनने का ख़्वाब पाले परन्तु ये कपोलकल्पित कल्पना की तरह आँख खुलते ही समाप्त हो जाएँगे और हम उसी लेखनी के सहारे पुनः अपनी पहचान बनाने में सक्षम होंगे |
डॉ. मनजीत सिंह
२५/०८/13

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