रविवार, 27 सितंबर 2015

स्वच्छता अभियान में डेंगू का डंक

जब लोक में प्रचलित मुहावरे सच होने लगते हैं तो आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता, भूमंडलीकरण सहित समस्त काल्पनिक एवं वास्तविक सिद्धांत अपना आधार खोने लगते हैं। ऐसे में समाज द्वारा ग्रहीत सिद्धांत ही लोगों में नयी चेतना का संचार करते हैं। समाज में रहने वाला हर प्राणी अपने हाड़ं-मांस को अलंकृत करने का भरसक प्रयास करते हैं। इसी क्रम में वह अपने जीवन यात्रा को गंतव्य स्थल तक पहुँचाता है। इस यात्रा में आये पड़ाव महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। क्योकि इन पड़ाओं पर उसे परिवार, समाज, शासन-प्रशासन, सरकार से टकराना पड़ता है। इस टकराहट से निकली ऊर्जा उसे मजबूत आधार प्रदान करती है। परंतु सबसे बड़ी बिडंबना तब उपस्थित होती है जब वह उपभोग करते हुए भोक्ता बनकर ग्लानिग्रस्त होने को मजबूर होता है।
कहते हैं-सिर मुड़ाते ही ओले पड़े-लोकतंत्र की रक्षा सरकार की पहली और अंतिम प्राथमिकता होती है। इस लोकतंत्र के निमित्त तमाम योजनाएँ हर दूसरे दिन या तो बनायी जाती है या बनी हुई योजनाओं को कार्यान्वित करने हेतु सतही या कमोबेश ंगंभीर प्रयास भी किये जाते है। यह तो सर्वविदित है कि ये प्रयास कितने कारगर सिद्ध होते हैं। अनुमानतः एकाध फीसदी अपने मुकाम को हासिल करते है। इससे ’स्वच्छता अभियान’ अछूता नहीं। इसका ताजा प्रमाण दिल्ली सहित देश के अन्य राज्यों में फैले डेंगू के प्रकोप से सहज ही मिल जाता है। प्रश्न स्वाभाविक है कि-यह अभियान अपने पहली सालगिरह के पूर्व ही दम क्यों तोड़ने लगा ? तथाकथित विश्वग्राम से लेकर वैश्विक देश तक साफ-सफाई की मिशाल प्रस्तुत करते नहीं थके लेकिन डेंगू भी अपना कमाल कैसे दिखा पाया ? स्कूल-कालेज-अस्पताल-रेलवे स्टेशन से लेकर गली-मुहल्ले ंऔर महानरीय सड़कें महामारी के प्रकोप से क्यों नहीं बच रहे है ?
विगत वर्ष गाँधी जी के सपने को साकार करने के लिए प्रारंभ इस अभियान की प्रासंगिकता विवाद को जन्म देती है। यह विवाद विकास के बहाने विनाश की नयी कहानी कह रहा है। आज न केवल दिल्ली के सड़कों पर अपितु छोटे-मझोले शहरों-गाँवों में भी लगभग एक समान स्थिति है। हमें तो लगता है कि-इस अभियान के पूर्व स्थिति अधिक बेहतर थी क्योंकि हाथ में झाड़ू पकड़ के मीडिया की टी आर पी बढ़ाने में सहयोग करना लोकतंत्र के साथ घिनौना खिलवाड़ करने की तरह है। कहते हैं-
बड़ा शौक था अखबार में छपने का
सुबह होते ही रद्दी के भाव बिक गए।
हमारे नेता-परेता, नौकरशाह-बाबूशाह से लेकर सरकार के करींदों में छपने का शौक सर चढ़कर बोल रहा है। सुबह आँख खुलते ही समाचार पत्र में फोटो छप जाय, दूसरों का लिख समाचार दिख जाय तो चाँद धरती पर उतर जाता है। उनके जीवन की दैनिक दिनचर्या में शुभ-अशुभ का खसा महत्व होता है। इस शुभ घड़ी की पुनरावृत्ति कल्पनातीत होती है। लेकिन इस आभासी सुख का शिकार आम जनता होती है जो जी तोड़ मेहनत करके अपना, अपने परिवार का और अंततः सरकार का पोषण करती है, वही अंततः महामारी का शिकार बनती है।
    इस महामारी का डंक उसके जीवन में भूचाल लाने में सहायक होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार इन हत्याओं की जिम्मेदारी भी नहीं लेती और स्वयं को निर्दाेष साबित करने का भरसक प्रयास करती है। दिल्ली में जंग बनाम अरविंद के बीच हो रहे शीत युद्ध को कैसे भुलाया जा सकता है। इन दोनों में किसी ने डेंगू से निपटने का कारगर उपाय नहीं किया और एक दूसरे की टाँग खींचकर राजनीतिक कूटनीतिज्ञता को सिद्ध करने का प्रयास जारी है। हाल ही में छत्तीसगढ़ के मंत्री महोदय(स्वास्थ्य मंत्री) के कार्यक्रम में रखे पानी के पा़त्र(कृत्रिम एवं शुद्ध) में मिले बिच्छू के लिए संबंधित अधिकारियों को नौकरी का दंश झेलने को मजबूर किया जाता है। अपने माननीय प्रधानमंत्री जी के पास तो इतना समय ही नहीं कि-वह अपने देश के बारे में सोचंे। वह तो अब प्रवासी बन डिजिटल इंडिया को स्वर्णिम भविष्य के लिए आवश्यक मानते हुए अंतिम चरण की खोज में लगे हैं।

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