शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

पकी सुनहली फसल

पकी सुनहली फसल


दूर से ही किसान
खिंचा चला आ रहा
उस अनुपम सौन्दर्य लिए
साल भर रहा एकाकी प्रवास
आज सुफल अधिक नजदीक है
गेहूँ की बालिया
चने संग अठखेलिया नहीं करतीं
उसके सुन्दर कर्णफूल-चित्र
नवल प्रभात कर से
शोभित नवोढ़ा का दाम्पत्य
ढलती उम्र में भी गुंजायमान
जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया
धरा तपती रही
लेकिन
धूल-धुसरित भभूत लपेटे
पर्वत की देह जैसे गात
खुलकर जीने को ललचाये
समय की दहलीज पर
बत्तीसी दिखाये।

फसल की शोभा का यह चरण
मनोहर तन को अपनी आभा में लपेटे
मन्त्रमुग्ध होकर दाँत पिसता
गौरैयों को भगाने के बहाने
आमंत्रण देकर ललकारता ।
आज कम्पनरहित उसकी ध्वनि
गाँव की चौहद्दी पर खड़े देव को
वेगवती बहते धार से तीव्र दौड़कर
सन्देश देकर लौटने में देर लगती ।।

उस ओर मेड़ पर बैठा जमींदार
सशर्त बीड़ी सुलगाकर
पाछे के सौदों से विस्मृत
नयी-नयी आकांक्षाएँ बुनता ।
कल्पना लोक से नीचे उतरकर
किसान की इच्छाओं में सेंध लगाता।
बटाईदार किसान की हालत
उस छिपकली की तरह थी
जो अपनी पूँछ काटकर
प्राण रक्षा करती हुई जीवन पथ पर बढ़ती
लेकिन
बेचारे मजूर से बदतर बना वह
सहसा पछाड़ खाकर गिर पड़ता
जैसे बिन ब्याही सुता का
अपहरण करके नरभक्षी नर
नाग लोक-पूर्व उसका गला घोंट दिया
अब तो जल के कुछ छींटे भी
उसकी दिव्य इच्छा को
जीवंत नहीं कर सके ।

बैठे-बैठे

क्रमशः
10 अप्रैल 20
©डॉ. मनजीत सिंह

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