#ना_काहू_से_दोस्ती_ना_काहू_से_बैर
आज कबीर के ये दोनों दोहे हमें प्रासंगिकता के एवज में झककझोरते हैं--आप भी इसमें शामिल हों-यथा-
कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ ।।
और
कबीरा खड़ा बाज़ार में सबकी मांगे खैर,
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर ।।
लेकिन वर्तमान परिवेश में इनकी गोटी सटीक नहीं बैठती । प्रतीत हो रहा है कि-धरती के दो ध्रुवों पर दो जीव जोर-जोर से चिल्लपों कर रहे हैं । क्योंकि इनमें एक दूसरे की आवाज पहुँच ही नहीं पा रही है । दूसरी तरफ आज न ही कोई स्वयं का घर जलाने का साहस ही कर सकता और न ही बाजार में खड़ा होकर सबकी सलामती की दुआ ही कर सकता क्योंकि वह अकेला होने का दंभ भर कर सकता है । उसे न किसी से दोस्ती है और न ही किसी से दुश्मनी ।
यदि कबीर की प्रचलित शैली में इसे आत्मसात करें तो सहज ही प्रासंगिकता सिद्ध हो जाती है । प्रसंगतः पूरब-पश्चिम की कवायद की चर्चा कर सकते हैं । और एक सामान्य प्रचलित काल्पनिक उदाहरण से इसे समझ सकते हैं । हमें अच्छी तरह याद है-पिछले वर्षों जब मैं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में था उस दौरान एक कथित प्रशासक हुआ करते थे । उनके गुणों से लोग उन्हीं की वाणी में नियमित लाभान्वित होते थे । धीरे-धीरे समय बीतता गया और वह अपनी गुणों की गठरी से आस-पड़ोस से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान मनवाने लगे । हम सभी हैरान-परेशान । लेकिन इस बात को लेकर अधिक चिंतित रहने लगे की आखिर उनका गुरू कौन हो सकता है ? क्योंकि अँधेर नगरी में गुरू-चेला की जोड़ी जगजाहिर थी । उस प्रहसन के लेखक को यह इल्म नहीं रहा की एक दिन में लिखा यह प्रहसन इतना प्रासंगिक होगा । बहरहाल हमने उस महागुरू को पकड़ ही लिया क्योंकि वह साक्षात् शिव के अवतार मानने वाले जीव थे । वे अपनी नेत्रों की ज्वाला से तमाम लोगों को भस्म कर चुके थे और आज अपने शिष्य को भी भस्म करने की ठान लिये थे। अन्ततः वही हुआ जिसका भय था-गुरू ने शिष्य का सत्यानाश कर डाला ।
अतः हम यह सहजतापूर्वक महसूस कर सकते है कि-जो व्यक्ति प्रशासनिक निर्णयों में स्वयं की विद्वता एवं ओछी ही सही परन्तु दक्षता का परिचय नहीं देता और उसमें भी कथित चाणक्यों के अनुसार शासन करने की जिद करता है उसका हस्र वही होता है । क्योंकि आज न ही मौर्य साम्राज्य है, न चंद्रगुप्त जैसा राजा और न ही चाणक्य जैसा कूटनीतिज्ञ । अपितु भले ही आज घर-घर चाणक्य मिल जायेंगे लेकिन वह हर मोड़ पर हारने को मजबूर होंगे । इस तरह कबीर के उपर्युक्त दोहे तमाम अंतर्विरोधों के साथ मित्र शक्ति की कसौटी पर खरा कैसे उतर सकता ? वह तो आत्मब्रम्ह की पराकाष्ठा है ।
विचार आप भी कर सकते हैं ।
निजी विचार
©डॉ. मनजीत सिंह
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