गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

हम चाकर

हम चाकर "नवतेज" के

(माफी सहित)

वर्तमान भारत की समस्या विश्व्यापी है, यह दिनप्रतिदिन विकराल रूप ले रही है । कुछ दिन पूर्व यह प्रतीत हो रहा था कि-भारत इस वैश्विक आपदा से मुक्त हो जायेगा लेकिन धार्मिक असंतुलन ने सब गुड़ गोबर कर दिया । ऐसी विषम परिस्थितियों में यत्र तत्र सर्वत्र हाहाकार मचा है । परन्तु कुछ लोग इससे पूर्णतः वंचित प्रतीत हो रहे है ।

बहरहाल यही कारण है कि इनके बीच मैं पटाक्षेप करता हूँ और नव+तेज की चर्चा शुरू करता हूँ । मैथिली चरण गुप्त ने साकेत में बड़े ही सटीक लहजे में उद्घृत किया है-

राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।

राम का चरित्र स्वयं काव्य निर्मित के निमित्त उपादान कारक है । क्योंकि उस चरित्र के प्रभावस्वरूप किसी भी व्यक्ति के कवि होने की संभावना है ।

और लोकमंगल के सृष्टा कवि तुलसीदास स्वयं को दास कहते हुए अकबर की मनसबदारी ठुकराते हुए यह कहते हैं-

"हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार;
अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार?

अर्थात् वह स्वयं को श्रीराम का दास बताया एवं किसी और के अधीन कार्य करने को मना कर दिया। सही भी है प्रभुराम की चाकरी से अच्छा क्या हो सकता है ? परन्तु वर्तमान परिवेश को अपवादस्वरूप ग्रहण करें तो यह सहज ही स्वीकार्य है कि- एक सरकारी नौकर अपनी चाकरी के लिए कठिन साधना करता है लेकिन साध्य स्वरूप उसे अधिशेष ही प्राप्य होता है । इसी कारण आधुनिक समय में हमने रघुवीर की जगह "नवतेज" की चर्चा की है । हम इसी नये तेजोदीप्त प्रकाशपुंज के दास हैं,जिनकी गुलामी से मुक्ति साल में केवल तीन महीने मिलती है । उसका प्रकाश हमेशा उदित ही होता है क्योंकि वह कभी अस्त नहीं होता । यह मीडिया की गति से भी तीव्र एवं मन की गति का अवरोधक है । इनके अधीन होकर आप अपने मन की सम्पूर्ण गतियों को स्वयं के हाथों मारने पर विवश होंगे । क्योंकि इनका तेज भस्मासुर की अग्नि से भी तीव्र होता है ।

मनुष्य ऐसे प्रकाशपुंज से संचालित होकर मृत्यु को प्राप्त होने की क्षमता प्राप्त करता है क्योंकि उसके प्रभाव से वह स्वयं को चक्रवर्ती, चक्रपाणि और हिटलर की संतान समझने की भूल भी कर बैठता है । यह असर यहाँ निवास करने वाली समस्त प्रजातियों में दिख जाता है क्योंकि मातृभूमि के मुट्ठी भर इन जीवों में उपर्युक्त प्रत्यय विद्यमान मिल जायेगा । इस जहाँन का हरेक प्राणी उसी प्रकाश से प्रकाशित होता है और अपने विचारों को थोपे हुए या चम्मचीय विचारों के अधीन करके कभी सामन्त तो कभी मातहत बनने को अभिशप्त हैं ।

इस नवीन संसार की सबसे बड़ी विशेषता है कि-राज्य का हर नागरिक चौर्यवृत्ति में प्रवीण है । ये वृत्तियाँ कभी व्यावसायिक तो कभी पारिवारिक-सामाजिक रूप में दृष्टिगत होती हैं । हर व्यक्ति सामने-पीछे वाले को मूर्ख समझता है । इसका मुखिया महामूर्ख । इसी मूर्ख-युद्ध में बौद्धिक मानदंड भी जड़ होकर सीमित दायरे में बँध जाते है । जब बुद्धि सीमित हो जाती है तो वाणी भी वीणा के अधीन नहीं रह पाती और शिव ताण्डव करने और कराने को विवश करती है । यह विवशता उस समय अपने चरम पर होती है, जब तमाम शक्तियाँ आधुनिक काल के अनुरूप हो जाती हैं ।

जैसा की हमने ऊपर वर्णन किया है-इनसे मुक्ति बड़े भाग्य से मिलती है । यह मुक्ति इस बार एकाकी जीवन में मूर्ख दिवस को मिली । एकाएक प्रतीत हुआ कि-कोई हँसी-ठिठोली कर रहा है । लेकिन इस हम तो दास ठहरे, उन्हीं के अधीन होकर समर्पण भाव से भक्ति भावना में लीन रहेंगे । यह भक्ति इस समय अंतरजाल की शक्ति से द्वि-गुणित हो चुकी है क्योंकि इसने विश्व की समस्त शक्तियों को स्वयं के अधीन कर लिया है । हम साँस लेते हैं, हम खाँसते हाँ, हम डाँटते हाँ, हम सोचते है और कभी-कभी मोक्ष की कामना करते हैं तो उसी अंतरजाल से रूपायित होते हैं ।

अतः आइए परदा गिराते हैं और उस वैश्विक आपदा से मुक्त होने के निमित्त आपस में शक्ति की अराधना करते हैं ।

स्वस्थ रहें..व्यस्त रहें।
मुक्त रहें...
और सुस्त कभी न रहें ।।

(अपील-उपर्युक्त विचार नितांत निजी है । इसका किसी संस्था या प्रतिष्ठान से कोई सम्बन्ध नहीं । ये विचार व्यंग्य स्वरूप कोरोना संक्रमण के पटाक्षेप के रूप में व्यक्त किया गया है ।)

©डॉ. मनजीत सिंह

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