सोमवार, 30 मार्च 2020

जनहित

एकांतवास : एक चुनौती 


पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ।
उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ-अज्ञेय

एकांतवास एक बेचैनी है, जो मनुष्य को दोहरे हमले करती है । एक हमला बाहरी होता है परन्तु वास्तविक हमला आंतरिक स्तर पर होता है । यह बहुत गहरे स्तर पर उसे झकझोरकर विलाप करने को मजबूर करता है । यह रूदन सहजतापूर्वक दिखाई नहीं देता । यह स्थिति गंभीर तभी होती है, जब अंतःकरण की पुकार नायक स्वयं नहीं सुन पाता क्योंकि यह आवाज समाज में चौतरफा सुनाई देने लगती है ।

आज एकाकी जीवन को अभिशप्त हुए मात्र पाँच दिन ही बीते । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हम ब्रह्मराक्षस से भी बदतर स्थिति को प्राप्त हो गये हैं । इतने दोनों के उपरांत अपने परिसर से बाहर निकलने का हिम्मत किया । इसका प्रयोजन भी सार्थक था-यथा-कुछ जरूरी सामान, कुछ दवाईयाँ, थोड़ी साग-सब्जी और इनसे भी अधिक कुछ पैसों की जरूरत । इन्हीं कारणों से बचते-बचते गली-मोहल्लों की सैर करते हुए भारतीय स्टेट बैंक से लगी मुख्य सड़क पर पहुँच गया । लेकिन उससे पूर्व लगी एक बस्ती में ठेले पर सब्जी बेच रहे शुभचिंतक ने हमें आगाह कर दिया कि-साहेब ! सुबह आठ से ग्यारह तक सब्जी बाजार में जाना है तथा दोपहर बारह से दो बजे तक किराने का सामान मिलेगा । इतने शब्द काफी थे । हम टूट चुके थे और मन ही मन सोचने लगे थे कि-क्या फर्क पड़ता है । एकाध दिन ऐसे ही गुजारा जाय । जब हमारी जनता पैदल यात्रा करके मंजिल पर पहुँच रही है तब हमें भी प्रयास करने में कोई हर्ज नहीं । इसी सोच-विचार में धुआँ उगलती मोटरसाइकिल सरपट दौड़ने लगी ।

इस प्रकार अब हम स्वयं के बने सन्नाटे के बीच घिरता चला गया । वीरान सड़कें, पतझड़ के मुरझाये पत्तों से पीली पड़ी थी । इस सड़क पर कभी भी हमने ई पेड़ से बिछड़े इन पत्तों को नहीं देखा होगा । इन पत्तों की अपेक्षा चींटियों की तरह रेंगते मानव अपने अपने कार्यों में व्यस्त दिखते थे । परन्तु आज वैश्विक महामारी के दुःखद परिणाम को कोरी आँखों से देखकर मन ग्लानिग्रस्त हुआ । ऐसी वीरान होते वातावरण के लिए कुछेक पर्यावरणविद प्रदूषण मुक्त भारत की कल्पना भी करने लगे हैं लेकिन उनमें से कुछ ने हवाओं के दूषित होने की शंका भी जताई है । कुल मिलाकर शहर जब गुलजार होता है, तब प्रकृति भी सहयोगी होकर उसकी रक्षा करती है । क्योंकि यहाँ के लोगों के जीवन को संचालित करने में प्रकृति की बहुत भूमिका होती है ।

वर्तमान समय में वातावरण भले अपने मानकों पर खरा उतरे और प्रदूषण मुक्त होकर नयी मिशाल कायम करे । लेकिन यह जनसमुदाय के लिए किसी काम का नहीं । क्योंकि वैश्विक आपदा ने लोगों को नये प्रकार के दूषण से ग्रस्त कर दिया है । यह व्यक्ति-परिवार और समाज कद स्तर पर सहज ही दिख जाता है । भारतीय संस्कृति की मुख्य विषेशता रही है-आत्मसात करने की । प्राचीन काल से ही वह कभी विदेशी आक्रांताओं का तो कभी मंगोल आक्रमण से लेकर अंग्रजों की संस्कृतियों को आत्मसात किया । परन्तु उक्त मानव जनित वैश्विक आपदा सम्पूर्ण भावों एवं मनोवैज्ञानिक आंकड़ों को तहस-नहस करने पर उतारू है, जिससे मुक्ति आवश्यक है । आज धर्म से लेकर वैज्ञानिक अनुसंधान तक निष्फल हो चुके हैं ।कुछ लोग धर्म के नाम पर पुनः राजनीति करने का प्रयास करते नजर आ रहे हैं लेकिन उनकी मनिवांछित आकांक्षाएँ स्वतः निर्मूल साबित हो चुकी है क्योंकि उस सन्नाटे ने हवाओं के रूख को मोड़कर रख दिया है ।

इस प्रकार वैश्विक स्तर पर एक अलग तरीके की जंग छिड़ चुकी है । इसमें नयी भूमिका में निःसंदेह चीन है लेकिन दूसरी तरफ अमेरिका के इतिहास को भी नहीं भूलना चाहिए । आज अमेरिका विश्व की महाशक्ति है । उसके पास इतनी शक्ति है कि भारत समेत अन्य छोटे-बड़े देशों को पानी पिला सकता है । लेकिन "चायनीज वायरस" ने कुछ समय के लिए अमेरिका सहित यूरोपीय देशों को भी घुटने टेकने को मजबूर किया है । दूसरी तरफ दवा से लेकर उस विषाणु से लड़ने के लिए तमाम सामग्री विदेशों को निर्यात कर रहा है । ऐसी विषम परिस्थितियों में शक का यथार्थ में परिवर्तन लाजमी है ।

अंततः यह कहने में तनिक भी संकोच है कि-एकांतवास योगी जीवन का पहला चरण है । इस जीवन की शर्तों पर जीना जरूरी है । अन्यथा जीवन किस करवट बैठेगा । इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है ।

स्वच्छ रहें, अकेले में मस्त रहें
स्वस्थ रहें, मिलजुकर व्यस्त रहें ।।

डॉ. मनजीत सिंह

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