अपनी विरासत
परिवार के युगपुरुष : जिन्होंने सर्वस्व न्योछावर करके मानक स्थापित किये । इनके बल पर आज हम भी गर्व से चलायमान हैं । अचानक ये चित्र सामने दिख गये तो वे वे स्मृतियाँ स्वतः सक्रिय हो गयीं, जो इस आपाधापी लगभग सुषुप्तावस्था में पहुँचने को मजबूर थी ।
बहरहाल-इस छायाचित्र में बाबा के चारों भाई हैं । सभी लोगों का व्यक्तित्व बिल्कुल निराला था । सबसे बड़े धुर सामाजिक, दूसरे लोक-समर्पित, तीसरे भावप्रवण एवं अपनी बात पर अडिग रहने वाले एवं सबसे छोटे पूर्ण विद्वान । वह तो अक्सर कहा करते थे कि-हमें दिखावे के लिए नहीं पढ़ना चाहिए अपितु अपने लिए अध्ययन करना चाहिए । हमने सबसे एक संस्कृत होने एवं सभ्य व्यक्तित्व बनने और होने की कला को सीखने का प्रयास किया । यह बात अलग हो सकती है कि-जिस मात्रा में संस्कार प्रतिस्थापित होने चाहिए उस मात्रा में वह नहीं प्रतिष्ठित हो पाया ।
मैं अपने घर परिवार में अपने बाबा के ही अधिक करीब रहा । यह निःसंदेह उस संयुक्त परिवार के प्रताप का प्रतिफल था । बचपन में श्रम की अनिवार्यता एवं कर्म के प्रति एक समर्पण भाव भी उन्हीं से सीखा । इसके साथ ही कई अनछुए पल हैं, जिस पर चर्चा फिर कभी..
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