साहित्य के नये परिपार्श्व-नये संदर्भ, नये प्रयोग
(जनपद वापसी का सुख : प्रबुद्धजनों के सानिध्य का परिचयात्मक बोध एवं साहित्य जे नये संदर्भ की तलाश)
मनुष्य के जीवन में साहित्य का प्रवेश सायास होता है । इसे कुछ लोग प्रत्यय आधारित मानकर दार्शनिक स्वरूप को निश्चित करते हैं । यह स्वरूप सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को मूल रूप में प्रभावित करता है । यदि वातावरण देशज हो एवं लोक के अनुकूल हो तो क्रांतिकारी परिवर्तन अवश्यम्भावी हो जाता है ।
ऐसी ही परिस्थितियों में कल (06 अप्रैल 2021-गांधी जी ने भी इसी दिन नमक कानून तोड़ा था ) साहित्य सृजन के नये संदर्भ एवं साहित्यकारों में चमन विषयक देशी जनपदीय साहित्यिक गोष्ठी में शामिल होने का सुअवसर मिला । यह हमारे लिए बिल्कुल नया था क्योंकि मैं पहली बार बलिया के प्रबुद्ध जनों के बीच खुले तौर पर प्रस्तुत हुआ । इतना ही नहीं कुशल संचालन कर रहे । आदरणीय रसराज जी ने मुझे बीज वक्तव्य प्रस्तुत करने के लिए उत्साहित किया । हमने अपनी बात को नये संदर्भों से जोड़ते हुए भावी पीढ़ी के प्रति साहित्य के वास्तविक संदर्भ को आत्मसात करने की सलाह दी । क्योंकि वर्तमान समय में साहित्य वस्तुतः महानगरों की गलियों में भी घूमने पर शर्म महसूस करता है । गाँव के खेत-खलिहान तक आने में कई बिहान तक लग जाते है । फिर भी रचना की जादुई कैची लेकर महानगरीय योद्धा अक्सर तैयार रहता है ।
इससे पूर्व आदरणीय अशोक जी ने बड़े ही सूक्ष्म तरीके से महीन कपड़े में व्यक्तित्व को छानकर प्रस्तुत किया । इसमें अध्यक्ष-प्रखर मानवतावादी आलोचक श्री रामजी तिवारी, मुख्य अतिथि कथाकार एवं त्रिवेणी पत्रिका के संपादक डॉ. अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन', प्रसिद्ध बाल साहित्यकार रमेश चंद्र, प्रसिद्ध बाल कवि अनन्त प्रसाद "राम भरोसे", कन्हैया पाण्डेय, भोलाप्रसाद आग्नेय, प्रसिद्ध रंगकर्मी आशीष त्रिवेदी, कवि शशि प्रेमदेव, कवयित्री डॉ. कादम्बिनी सिंह, कुशल संचालक एवं कवि रसराज जी, संयोजक एवं सत्यांश संस्था के मोहन जी की उपस्थिति एवं साहित्यिक वैचारिक परिवेशगत नये-नये संदर्भों के माध्यम से साहित्य की नयी पौध लगाने में समर्थ होने ओर अग्रसर हुआ ।
जनपदीय-साहित्य के वैश्विक स्वरूप के नये-नये मानकों पर गाँवों की संवेदनाओं को पकड़ने की ललक एवं झंकृत ध्वनियों को सुनने की शक्ति कन्हैया पाण्डेय की भोजपुरी कविता वाचन में स्पष्ट प्रतिबिम्बित हुआ । आज भोजपुरी समाज फूहड़ होते रागों से त्रस्त है । स्थिति की भयावहता का आकलन इसी से लगाया जा सकता है कि-हम सभी एक साथ भोजपुरी गीत-गजल एवं कमोबेश कविताओं को भी एक साथ सपरिवार न तो देख सकते हैं या और न ही सुन सकते हैं । ऐसी विषम परिस्थिति में इस गोष्ठी की भोजपुरी कविताओं-गजलों को सार्वजनिक रूप में सुनकर प्रयोग भी धड़ल्ले से कर सकते हैं । परन्तु ऐसी कविताओं की पहुँच पाठकों तक बनाने की जरूरत है । गोष्ठी में आशीष त्रिवेदी ने कहा कि-साहित्य सृजन के लिए हमें मनुष्यता के नजरिये से ध्यान देने की जरूरत है । हमें साहित्य को सामाजिक उपयोगिता के संदर्भों पर ध्यान देना जरूरी है ।
इस गोष्ठी में यह तथ्य छनकर आया कि-साहित्य आम जनता का हस्ताक्षर है । इस बीच आदरणीय महर्षि अशोक जी ने बड़ा ही अकाट्य विचार रखा-यथा-जो आप कहना चाहते हैं वह विज्ञापन है लेकिन जो नहीं कहना चाहते हैं वही न्यूज है । आज स्थिति बड़ी भयावह है क्योंकि मीडिया के चारों पाये काम नहीं कर रहे हैं । वस्तुतः वर्तमान समय में वैश्विक स्तर पर फैली कोरोना महामारी राजनीति एवं लूट का साधन भी बन चुकी है । हमें इस बात पर अवश्य बल देना चाहिए कि हमारा लेखन धारदार हैं तथा किसी न किसी समस्या से निजात दिलाने के लिए किये गये कारगर प्रयास के अनुरूप रचनात्मक ऊर्जा से ओतप्रोत हो, जिससे एक तरफ जन-सहयोग को बल मिले तो दूसरी तरफ सृजनात्मक रूप में साहित्य भी समृद्ध हो ।
साहित्य के नये संदर्भों की तलाश में आग्नेय जी ने अपनी स्थापना में शुक्ल जी के साथ कदम मिलाकर चलना पसंद किया और कहा कि-हमें राजनीति से प्रेरित होकर नहीं लिखना चाहिये अपितु अपने आत्मबल को मजबूत करते हुए लेखन कार्य में रत रहना चाहिये क्योंकि निष्पक्ष भाव से लेखन थोड़ा मुश्किल है । इस गोष्ठी में रमेश चन्द्र ने 15 जनवरी 2021 को जनभाषा प्रकाशन प्रा. लि. द्वारा प्रकाशित बाल उपन्यास "होमवर्क की सजा" एवं अनन्त प्रसाद राम भरोसे ने "बाल कविता संग्रह" की प्रति भेंट कर हमें अनुगृहीत किया । आज साहित्य में बचपन को बहलाने के लिए बहुत कम रचनाएँ आ रही हैं । जैसें प्रकाश मनु बाल साहित्य के सिद्ध हस्ताक्षर है वैसे ही उक्त वर्णित साहित्य के लेखक द्वय निःसंदेह इस परंपरा के वाहक हैं । इन पुस्तकों पर कभी अलग से बात होगी । फिर भी इस निष्कर्ष पर हम जरूर पहुँचते हैं कि-साहित्य में सबसे नया लेकिन जरूरी संदर्भ बचपन के अवयवों से निर्मित होकर भावी पीढ़ी के लिए मील का पत्थर साबित होगा ।
साहित्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता है-रूप परिवर्तन । वह समाज से प्रभावित होकर अपना ही नये मानदण्डों को लेकर आगे बढ़ता है । लेकिन राजनीति से यह उस तह तक पहुँचने में सक्षम नहीं हो पाता । यही कारण था कि रमेश चन्द्र ने तल्ख टिप्पणी की । यथा-अधिकांश लेखक सत्ता पाकर घमण्डी हो जाते हैं । ऐसे में निष्पक्ष भाव से लेखन मुश्किल है ।
गोष्ठी में गीत-गजल एवं कविताओं की त्रिवेणी में कन्हैया पाण्डेय ने "सोचेले किसान आपन विपत्तियां, राम भरोसे जी ने
गीत द्वारा, शिव जी पाण्डेय 'रसराज ' ने 'अब त सुगनों के मारल जाई जान' एवं कवि तेरा कहना, शशि प्रेमदेव ने गीत सुनकर...गजल के साथ मन मोह लिया। अंत में चमन जी एवं आलोचक रामजी तिवारी को सुनकर हम धन्य हुए । बलिया जिले पर आधरित आगामी समकालीन त्रिवेणी के विशेष अंक पर हुई चर्चा से नये संदर्भों का जुड़ना स्वाभाविक है । आदरणीय रामजी तिवारी ने समकाल से साहित्य को जोड़ते हुए अपना अध्यक्षीय संबोधन प्रस्तुत किया एवं मोहन जी श्रीवास्तव का आभार तथा आतिथ्य सत्कार अविस्मरणीय रहा ।
कुल मिलाकर अंत में मुक्तिबोध के शब्दों की उधार लेना मजबूरी हो जाता है क्योंकि साहित्य के नये-नये संदर्भों की खोज करती इस इस गोष्ठी ने
हमें खूब समृद्ध किया-हमने जाना-समझा और अपनी जमीन खोजने में सफल रहा । यही अपनी थाती है, जिसके बल बल हम है ।-यथा-
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम..
©डॉ. मनजीत सिंह
फोटो-साभार
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