सुगना : एक अंतहीन पीड़ा की त्रासद अभिव्यक्ति
वर्तमान समय में नाट्य मंचन के माध्यम से इस विधा को नया जीवन प्रदान करने में संकल्प साहित्यिक संस्था एवं आशीष त्रिवेदी की महती भूमिका को हम लोग बलिया जनपद में सहज ही महसूस कर रहे है । इस क्रम में स्वयं आशीष जी द्वारा लिखित, निर्देशित एवं अभिनीत सुगना नाटक की जीवंत एकल प्रस्तुति को देखकर रोम रोम खड़े हो गये ।
यह प्रस्तुति लोक के इतने करीब थी कि-एक ही साथ अनेक उद्देश्यों को पूर्ण करती नजर आयी । एक तरफ हमें भाषा-बोली-साहित्य की त्रिवेणी में स्नान करायी तो दूसरी तरफ वैश्विक महामारी में पलायन की पीड़ा का दंश झेलती भारतीय जनमानस के समक्ष पीड़ित जन की यथास्थिति को ऐसे प्रस्तुत किया कि-नायक एवं दर्शक की संवेदनाएँ एकमेक हो गयी । हम जैसे सामान्य दर्शकों को भी पतली रेखा खींचना टेढ़ी खीर हो गयी ।
बहरहाल सुगना-मुनवा के बाबू की आवाज में न जाने कैसा जादू था कि-वह हमें अपने से अलग कर ही नहीं सका । ऐसा लगा कि हम उन गॉवो के किनारे साथ-साथ घुम रहे हैं, जहाँ से कोरोना हमले के भय से दौड़ता-भगता जत्था उस तपती दुपहरी में जा रहा हो ।
इस चक्र में हमने यही महसूल किया कि-कोरोना काल की दुखती रग पर हाथ फेरते इस सुगना ने ग्लानिग्रस्त जन की पीड़ा को पलायन के निमित्त आत्मसात करते हुए सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने में समर्थ रहा ।
कुंठा, निराशा, क्षोभ एवं भयातुर जीवन ने राजनैतिक-प्रशासनिक व्यवस्था पर भी कठोर व्यंग्य किया । दूसरे शब्दों में कहें कि-व्यंग्य ही इस प्रस्तुति का प्राण है तो अतिशयोक्ति नहीं । बकौल नायक के शब्दों को अविकल प्रस्तुत करने से उक्त कथन में भंगिमा शेष नहीं रह जाती । यथा-राह चलते वह स्वयं की पीड़ा को शब्दों एवं भावों से पिरोकर बनी अमोघ माला से तंत्र पर कुठाराघात करता है । इस शब्दों की ध्वनियों की टकराहट से निकली ऊर्जा को आप भी महसूस कर सकते हैं-जी तो कर रहा है कि अंगुठवा काटी के रख दें...विषम परिस्थितियों में व्यस्था को सहज ही महसूस किया जा सकता है।
साहित्यिक कसौटी पर जब हम इस प्रस्तुति को कसने के प्रयास करते हैं तो नायक मुनवा के साथ कभी निराला भिक्षुक कविता की याद निम्न पंक्तियों की याद दिलाता है-
वह आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता...
चल रहा लकुटिया टेक..
कभी होरी, घीसू-माधव बनकर
अंतहीन दुःख-पीड़ा की आधुनिक पुकार बनकर समस्याओं को प्रत्यक्ष रूप में उजागर करता है ।
जब रामलीला के मंचन में लक्ष्मण-मूर्छा के समय प्रभु विलाप करते हैं तब न केवल नर-वानर इस ग्लानि को अनुभूत करते है अपितु दर्शक भी राममय होकर स्वयं को राम मान बैठते हैं । ऐसी स्थिति पूर्ण ब्रह्म की होती है । ठीक ऐसा ही चित्रण मुनवा के निधन पर प्रस्तुत करके निर्देशक ने उपस्थित दर्शकों में अपना स्थायी प्रभाव स्थापित किया । इस महामारी ने पलायन को अभिशप्त भारतीय जनता के सामने कभी न खत्म होने वाली समस्या को हमारे समक्ष रखा । ऐसे समय अनायास ही सियाराम शरण गुप्त की कविता की याद आयी । भले ही कोलाज, वातावरण एवं पात्र भिन्न हैं परन्तु पिता-पुत्र की व्यथा को महसूस करके आँखें नम हो जाना लाजमी है । इतना ही नहीं नायक जब बुक्का फाड़ कर पुत्र वियोग में रोता है और कहता है-करेजवा के कसक लेई..आगा बा पहाड़..पाछे बाटे खाई..हम कहाँ जाईं...
इस प्रकार इस प्रस्तुति के प्रभाव ने हमें पुनः सोचने पर मजबूर किया । अंततः इस शानदार प्रस्तुति के लिए नायक-नायिका-खलनायक-विदूषक सहित सभी अभिनय एकल प्रस्तुति हेतु करने वाले लेखक-निर्देशक आशीष त्रिवेदी जी आकाश भर बधाई ।💐💐
खूब बढ़े
जगमग करें ।
डॉ. मनजीत सिंह
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