सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है ।
आज अचानक पाश की कविता के ये शब्द गूँजने लगे । कलियुग के प्रभाव से मानवता इतनी क्रूर हो सकती है । चलिये इसे हम स्वीकार कर लेते हैं । यह भी स्वीकार कर लेते हैं कि-व्यक्ति पर्यावरण के विरोध में खड़ा होकर स्वयं को काले विवर के हवाले कर रहा है । वह पीपल को भूत का निवास मानकर उससे दूरी बना लेता है और ओषजन के साथ पीड़ा के आँसू गिराने को अभिशप्त होता है ।
परन्तु राजा (आज के संदर्भ में लोकतंत्र की परिभाषा) इतना क्रूर कैसे हो सकता है ? कहते हैं-जब 1679 ई. में औरंगजेब दक्षिण गया तब उस समय लाल किला भूतहा नजर आने था । उसकी दीवालों पर धूल जम गयी थी ।(बंगाल चुनाव के निमित्त...) लेकिन 15 करोड़ भारतीयों पर 49 वर्ष शासन करने वाले इस शासक को गांधी ने हिन्द स्वराज में चर्चा भी की थी । इसके अतिरिक्त कई इतिहासकारों ने भी यह माना है कि-वह उतना बुरा नहीं था, जितना उसे अंग्रेज इतिहासकारों ने वर्णित किया । बहरहाल इतने कट्टर शासक के मन में संगीत प्रेम का जगना-जगाना कहीं न कहीं संवेदनाओं का द्योतक है ।
लेकिन आज देश जल रहा है और नीरो वंशी बजा रहा है । लोकतांत्रिक व्यवस्था के राजा भोज की नजर के सामने पाश के शब्द पुनः गूँजने लग रहे हैं और बार-बार एक अजीब घुटन महसूस होने लगती है । बस...इससे अधिक शब्द भी इसके शिकार हुए जाते रहे ।
हे प्रभो ! कुछ तो दया करो !...
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