आधुनिक जीवन का खाँटी सच एवं मुन्नी मोबाइल का यथार्थ
बक्सर की बिन्दू यादव से मुन्नी मोबाइल बनी महिला के आत्मविश्वास और साहस को खाँटी देशी-बिलायती-नगरीय-महानगरीय शैली के वर्तमान यथार्थ के रूप को बयाँ करता यह उपन्यास सहज ही सोचने को मजबूर करता है । प्रदीप सौरभ ने प्रारम्भिक प्रसंग से ही पाठकों को बाँधने का प्रयास किये हैं और इसमें सौ फीसदी सफल भी रहे हैं । लेखक ने भारती के चरित्र को कमोबेश अपना रूप दिया है क्योंकि भारती के द्वारा किया गया कार्य सराहनीय है । इलाहबाद-दिल्ली के साहिबाबाद-गुणगाँव-अहमदाबाद-कलकत्ता के बीच में शिवानी के शहर कानपुर के वर्णन के केंद्र में वह स्वयं उपस्थित होकर पाठकों को सावधान भी करते हैं और नयी चेतना भी प्रवाहित करते हैं ।
रेणु के लय को उधार लेता हूँ तो यह कहने में संकोच नहीं कि-यह ऐसा उपन्यास है जिसमें इतिहास भी है, भूगोल भी है, सम्प्रदाय भी है, राजनीति भी है, देशी भी है, ठर्रा भी है, विदेशी भी है, नगर भी है, महानगर भी है और सबसे बड़ी बात पाठकों को एक बार में पढ़कर ख़त्म करने की शक्ति भी है ।
इस प्रकार इस उपन्यास का धन पक्ष गोधरा काण्ड और मोदी की सोच के यथार्थ को नए सिरे से मजबूत करने की शक्ति में निहित है । वैसे भी लेखक ने उपन्यास शुरू करने से पूर्व यह स्वीकारते हैं कि इसके पात्र काल्पनिक नहीं है । इस प्रकार इसके समस्त पात्र एक नयी समस्या से जुड़े है..वह रेखा हो, या कालगर्ल के रैकेट के परगना समूह हो मुन्नी सहित उसका परिवार हो शिवानी हो, सुधा पाण्डेय हो या आनंद । सभी यथार्थ की परत न केवल उघाड़ते हैं अपितु उसे कुरे-कुरेदकर सामाजिक-आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक तानाबाना भी बुनते हैं ।
अतः उपन्यास एक साथ आधुनिक गद्य विधाओं की कमोबेश समस्त रूपों को समेटकर एक ऐसा कोलाज तैयार करता है, जिसमे रंगों की कूँची बराबर सभी शाखाओं पर पड़ती है । एक उदहारण काफी है-जब मुन्नी का जोश एवं बड़ा बनने याकि पैसा बनाने का जुनून सातवें आसमान पर रहता है उस समय आनंद भारती से बढती दूरी के बीच पढ़ने के लिए कहने पर अमोघ व्यंग्य के रूप में कहने को लेखक मजबूर करता है-कि-
''आपने पढ़कर क्या कर लिया । आप तो वहाँ पढ़े जहाँ नेहरू पढ़े थे । न अपना घर चलाया...न बाप-माँ की इज्जत कर पाये । तुम्हारे जैसा बेटा पैदा कर उनकी जिंदगी दुःखी है । अकेले खाते हो, कमाते हो । मैं निपढ़ हूँ । पढ़ी-लिखी नहीं हूँ । आपकी सेवा में रहती हूँ । पूरा कुनबा पाल रही हूँ ।" यह कथन पढ़ने में भले ही आसान लगे लेकिन इसकी मार वर्तमान एकाकी जीवन में व्यक्तिगत सत्याग्रह के उन समस्त धरती पुत्रों पर सहज ही दिखायी पड़ता है ।
इसके साथ ही यह उपन्यास पूर्व-पश्चिम के भीतर पड़ी आर्थिक गाँठ को खोलकर भारतीयों के निमित्त नया मिशाल भी कायम करते हुए नियत को प्राप्त होता है । लन्दन प्रवास के समय विदेशियों में कर्ज-लोन लेने की प्रवृत्ति को उक्त कथन को जोड़ने से सहज ही अर्थ की निष्पति हो जाती है ।
भाषा-शैली की की बात करें तो लेखक ने भौगोलिक क्षेत्रों के अनुरूप अपने अपने पात्रों को बोलने को विवश किया हैं तो कभी मैं शैली में स्वयं खड़े होकर रंजन स्वरूप की हिमायत करके बड़े उपन्यासकार की श्रेणी में दीप जलाने को मजबूर भी हुए हैं । परंतु तीन स्थानों पर दुहराव से नहीं बचकर थोड़ा निराश करने को भी विवश क्र देते हैं । यह उपन्यास का ऋण पक्ष या कमी है, जिससे कभी-कभी आलोचकों के मुँह में पानी आकर लार टपकने लगता है ।
इस उपन्यास का सशक्त पहलू मुन्नी के चरित्र में उजागर होता है । वह गाँव की बिहारिन होने पर गर्व करती है..आनंद के घर से अपने घर को संभालने में गर्व का अनुभव करती है, अँगूठा की जगह दस्तखत सीखकर मुख्य धारा में जुड़ जाती है परंतु स्वेटर बनाने से बस चलवाने तक तो वः सामान्य बनी रहती है लेकिन कालगर्ल कीठेकेदार बन नयी मुसीबत मोल लेती है, जो अंततः उसकी हत्या का कारण बनता है । इस तरह मुन्नी मोबाइल के चरित्र का अंतिम सत्य उसकी हत्या में अन्तर्निहित है । इससे यही आभास होता है कि-मनुष्य में जो है उससे ज्यादा एवं त्वरित पा लेने की आकाँक्षा ही उसे ऐसे दलदल में ले जाने को मजबूर करता है, जहाँ से निकलना नामुमकिन है । 23 मई 16 क्रमशः ट्रेन में बलिया वाया मैहर
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