सिनेमा एवं शिक्षा का परिवर्तित मानदण्ड
भारतीय सिनेमा की दुःखती रग पर कभी-कभार हाथ फेर लेना बहुत जरूरी है । इसके तीन कारण है । सबसे पहला तो यही है कि-यह हमारे बचपन के तमाम सपनों को जिंदा रखने का एक मजबूत माध्यम (इसी कारण कमजोरी) रहा है । दूसरा यह साहित्य को नये तरीकों से सोचने समझने की शक्ति को प्रभावित भी करता रहा है और तीसरा निःसंदेह परिवर्तन का साक्षी रहा है ।
विगत एक वर्षों में कमोबेश सिनेमा से दूर ही रहा । इस करूणा काल के एकांतवास में डिजिटल मीडिया नहीं होता तो शायद मीडिया के मुद्रित माध्यमों को इतिहास में दर्ज भी कर दिया होता । इस दूरी को आज बड़े दिनों बाद बेहद करीब से देखा..मास्साब..को । यह हमारे लिए तो पण्डिजी ही है । जनवरी से लेकर अब तक संयोग बनते-बिगड़ते आखिरकार बन ही गया । इस फ़िल्म को देखकर अचानक अपना बचपना याद आने लगा । परन्तु उसमें स्मृतियाँ बहुत कुछ अलग थी । वह दौर था-बीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक । गाँव-जवार में केवल प्राथमिक विद्यालयों का ही बोलबाला था । यदा-कदा सरस्वती विद्यालयों के अवशेष भी मिल जाते हैं, जिसे हम लोग मॉन्टेसरी स्कूल कहते थे । उसमें के बच्चों को बढ़िया जस्ते का बक्सा और टिफिन का पराठा मिलता था । लेकिन उनके स्कूल भी पलानी (कबीर वाले पद की थून्ही से निर्मित) में ही चलते थे । कभी-कभी हम लोग वहाँ देखने जाते थे तो बहुत अजीब महसूस करते थे ।
उस समय हम सुविधापरस्त जीवन एवं भोगवादी प्रवृत्तियों से न केवल अनजान थे अपितु हमें तो यह भी नहीं पता था कि-अंग्रेजी माध्यम एवं हिन्दी माध्यम में कितना अंतर है । केवल एक ही बात याद आती थी-अधिक से अधिक पटरी कैसे चमकाये ? और इसके लिये आविष्कृत देशी उपकरणों के लिए चर का कार्य भेंगरईया के पत्ते या पुरानी बैटरी से लिया जाता था । पटरी को कालिख से पोतकर सुन्दर-सुडौल हिन्दी अक्षरों को अधिक बेहतरीन बनाने की कला को सिद्धहस्त बनाने में ही अपना बचपन निकल गया । इसके किस्से अलग हैं ।
फिर भी आज लगभग शिक्षा के प्रभाव को जानने-समझने-समझाने का प्रयास कर रहे हैं । इस क्रम में मास्साब (हम इसे पण्डिजी कहेंगे) देखकर बहुत सुकून मिला । यह सिनेमा पुरानी नींव पर नये महल का पुनर्निर्माण की तरह दिखता गया । लेकिन इस निर्माण में ध्वंसावशेष कम ही मिले । यह सर्वविदित है कि-सरकार शिक्षा के लिए तमाम प्रावधान करती है । लेकिन सुधार बजट की तरह अनुमानित ही होकर रह जाता है ।
बहरहाल आशीष कुमार इस फ़िल्म में दलित के रूप में प्रवेश करते हैं तो जितेन्द्र-महेंद्र के साथ ही हेडमास्टर जी बहुत अजीब नजरों से उन्हें देखते हैं । चूँकि इसका कथानक भारतीय शिक्षा व्यवस्था के यथार्थ स्वरूप से ग्रहीत है । यही कारण है कि-इसमें जितने भी संवाद आये हैं । उनमें एक निश्चित तारतम्य देखने को मिल जाता है । इसके बीच में दर्शक कभी-कभी बहुत बेचैन हो जाते हैं और त्वरित परिणाम के लिए लालायित भी दिखते हैं । यथा-स्कूल में आशीष का हेडमास्टर बनना, उषा-आशीष की बातचीत, प्रधान द्वारा महिलाओं को जनसंख्या नियंत्रण पर दिये जाने वाले संबोधन के समय आशीष का प्रवेश तथा भानु पब्लिक स्कूल द्वारा मास्साब को दिया जाने वाला लालच इत्यादि । कहने का आशय यह है कि-फ़िल्म को आदर्श शिक्षा के ढाँचे में कसने के लिए उक्त दृश्य देखकर मन कभी-कभी आवेश में आकर भावनात्मक आगोश में जाने को विवश हो जाता है ।
लेकिन बड़े दिनों के बाद ऐसी फिल्म देखने को मिली, जिसे स्कूल से विश्वविद्यालय के दिनों देखी जाने वाली फिल्मों की तरह समर्पित भाव से देखा । कुल मिलाकर एक सुखद शाम बीत गयी ।
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