चिकित्सकीय अंधविश्वास
गाँवों में वैक्सीन को लेकर अजीबोगरीब तर्क दिये जा रहे हैं । कुछेक समूहों में तो इसका न केवल पुरजोर विरोध हो रहा है । अपितु इसे सिरे से खारिज करते हुए तरह-तरह के लतीफे गढ़े जा रहे हैं । कल तो हमने जो सुना उसे उजागर करना उचित नहीं है लेकिन एक झलक तो बनता है ही है "मो...टी.....टू..... रा....ई....!! भोजपुरी प्रदेश में यह उपमा आम है परन्तु वैक्सीन को लेकर खास बन जाती है ।
यदि समय रहते इसके प्रति लोगों को जागरूक न किया गया तो स्थिति बहुत गम्भीर रूप ले सकती है । हमें यह जरूर ध्यान देना चाहिए कि-निरोगी काया के लिए न ही किसी राजनेता की जरूरत होती है और न ही इस पर राजनीतिक रोटियाँ सेकने के लिए कोई अवकाश है । क्योंकि यदि इस दवाई से भलाई नहीं(जैसा कुछेक जन मानते हैं) तो इसके प्रति ढीठ रवैया भी उचित नहीं । बीमार होने पर एक चिकित्सक एक साथ चार-पाँच औषधियाँ देता है । उसे पता होता है कि-अमुक रोग की अमुक दवा है । फिर भी लोग बड़े विश्वास के साथ एक के साथ तीन-चार गोलियों को खाते हैं । ऐसे ही कोविड की वैक्सीन को विकल्प के तौर पर ही सही, उसे लेने में कोई नुकसान नहीं है ।
इसके प्रति समाज मे तीन तरह के लोग हैं, जिनके लिए आविष्कार और खोज से बढ़कर सामाजिक न्याय जरूरी है । बहरहाल तीन समूहों की चर्चा भी वाजिब है । पहले वर्ग में ऐसे लोग हैं-जिनके जीवन में खेती-किसानी ही भूख का आधार बनता है । दूसरे इन किसानों के युवा पुत्र-पुत्री से लेकर पतोहू तक आते हैं तथा तीसरा वर्ग शहर से आया कमोबेश उनकी नजर में बौद्धिक जन हैं । इनमें किसान तो खुद को प्राकृतिक स्रोतों का सबसे बड़ा उपभोक्ता मानकर दवा की जरूरतों को एक सिरे से खारिज करता है । दूसरे छोर पर इनके वंशज भी वैक्सीन के प्रति कमोबेश इन्हीं की राह पर चलकर विरोध कर रहे हैं । परन्तु तीसरा वर्ग इसका विरोध तो करता है लेकिन अपनी बारी का इंतजार भी करता रहता है ।
इस प्रकार उक्त स्थितियों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है । जब भी, जहाँ भी, जैसे भी वैक्सीन उपलब्ध हो, जरूर लगवाएँ ।
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