मंगलवार, 18 मई 2021

कोरोना का कहर एवं सांस्कृतिक भूचाल

कोरोना का कहर एवं सांस्कृतिक भूचाल


कोरोना एक सामान्य बीमारी नहीं अपितु  यह शारीरिक एवं मानसिक बीमारी का पर्याय बन चुका है ।  यदि सामान्य लहजे में असामान्य बातें किया जाय तो कह सकते कि-इसने समाज को भी चकनाचूर कर दिया । घर-परिवार से लेकर दुआर तक किसी को नहीं छोड़ा । एक तरफ घर में बच्चों को क्रूर बनाया,  परिवार को अणु से परमाणु और उससे भी छोटे-छोटे असंख्य टुकड़ों में बाँट दिया तो दूसरी तरफ लोगों में तन की दूरी के बहाने मन को बहुत दूर विलाप करने के लिए छोड़ दिया । आज अधिकांश लोग "दो गज दूरी मास्क है जरूरी" को ब्रह्म वाक्य मानकर इसके अंदर निहित वाच्यार्थ  को बदलकर बखूबी आत्मसात करके नये रूप में समाज को अंतर्मुखी होकर व्याख्यायित करने लगे हैं । इस दूरी को पहले लोग इज्जत और सम्मान से जोड़कर देखते थे परन्तु कथित उत्तर आधुनिकता के वश में यही पूरी संस्कृति को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । हो सकता है कि-कथित समाजसेवी संस्थाओं को यह गले न उतरे क्योंकि आधुनिक युग का सत्य पहले की अपेक्षा हजार गुना कड़वा होता है । इसे लोग गले से नीचे उतारने में अपनी बेइज्जती समझ बैठते हैं ।


20वीं शताब्दी के नौवें दशक से ही लोग एक दूसरे से बहुत अधिक दूर हो चुके थे । 21 वीं सदी की दहलीज से लेकर आज तक बनी खाई की गहराई का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है । लोग आपस में प्रेम तो दूर घृणा भाव भी सहजतापूर्वक बनाने में असहज महसूस करने लगे हैं ।  


इस दौरान परिवार के अनेक रिश्ते भी तार-तार हुए । भाई-भतीजावाद की राजनीति ने चावल के लिए खौलते अदहन का काम किया । अब चावल के पकने पर महामारी की मार से पीड़ित जनता कराह रही है । हम जिस देह में प्राण का निवास मानकर आत्मा-परमात्मा के स्तर पर मन और देह का संबंध मानते थे । वही इस कदर प्रताड़ित होगी । कोई व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता कि पंचतत्व विलीन के पूर्व स्थिति कबीर द्वारा प्रदत्त स्वरूप से भी बदतर हो जायेगी । 


इसमें कोई दो राय नहीं है कि-कोरोना ने देश की व्यवस्था के साथ  के जमीर को भी झंकृत करके ललकारा है । सबसे कठिन घड़ी उन लोगों के लिए है, जो इसका शिकार होकर अपने लोगों के बीच बेगाना बनकर भयाक्रांत होकर स्वयं को कमजोर मान बैठते हैं । हम तो कहीं-न-कहीं यह भी देख रहे हैं कि-कुछ लोग पुराने घाव भी उकेरने लगे हैं । इस प्रकार आप सभी से अनुरोध है कि-इस बीमारी का सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक स्तर पर पड़ने वाले प्रभावों से इनकार नहीं किया जा सकता है ।


आज देश की जनता शीर्षक विहीन लोकतंत्र को भुगतकर तंग आ चुकी है लेकिन कुछ लोग ऐसे-ऐसे शीर्षक देने पर उतारू है..इसकी चर्चा करने पर राजनीतिक बम फुट सकता है और इससे न केवल हम बल्कि अनगिनत क्षतिग्रस्त हो सकते है ।  बहरहाल अक्ल का प्रयोग जनता को ही करना है । वही देश और उसके वेश की रक्षा कर सकती है । हमें अपने मन को साफ रखना है । क्योंकि मन चंगा तो कठौती में गंगा वाली कहावत को न केवल सिद्ध करना है अपितु अदम्य साहस के बल पर मजबूत मन के लिए मिशाल भी कायम करना हैं । यही मन वास्तव में तन के लिए खुराक की व्यवस्था करेगा । इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कई गुना बढ़ जायेगी । यह न ही कोई जादू-टोना है और न ही अथर्वेद वाला अंधविश्वास अपितु इसमें कहीं न कहीं वैज्ञानिक तर्क जरूर सहायक है । 


अतः आप सभी तन को दूर करके मन के टूटे तारों को जोड़ने का प्रयास करें । यही सत्य है..खबरें..मिथ्या ।

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