गुरुवार, 14 अक्तूबर 2021

स्वर्ग की ओर वाया बेगमपुरा रेल 

10.10.17

जम्मू-कश्मीर की राह में कठुआ-साम्बा को पार करने से पूर्व लखनपुर का विशेष महत्त्व है । क्योंकि यहाँ पहुँचकर वास्तविक समस्या प्री पेड सिम के बंद होने से होती है । दो मोबाइल चार सिम..हाँ जिओ ने थोड़ी हिम्मत जरूर दिखाई परंतु वह भी 5-सैट किमी बाद दम तोड़ दिया । शेष बचा उधारी का पोस्ट पेड सिम । वह भी बेचारा अर्थ के अभाव में कुछ घंटे तक चुप रहा । आखिर आधार यहीं पर निराधार हो गया । लेकिन कुछ समय के लिए बहुत सुकून मिल रहा है । विगत वर्षों में इस नेटवर्क ने दिनचर्या पर इस कदर हावी हुआ है कि-पूछिये मत ! परंतु कूटनीतिक आगाज के सन्दर्भ में माजरा कुछ और है । आजकल पैन से लेकर टैन और मोबाईल तक आधार से जुड़ा है परंतु इसका जम्मू में क्या मोल ?  यह शेष भारत से अलग 370 के परिणाम का प्रभाव है या कुछ और । यह तो समय ही बतायेगा । सबसे बड़ा परिवर्तन जम्मू में प्रवेश करते ही सेना के वर्दीधारी जवानों को देखकर मन भयभीत भी होता है और एक अलग तरह की सिहरन पैदा होती है । सेना में सम्पूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व है ।

बेगमपुरा रेल अपनी गति से प्रकृति के संगम को आत्मसात् कराती हुई चली जा रही है और धरती के लहूलुहान इतिहास को जागती रहती । यह क्रम तो अम्बाला से शुरू होकर लुधियाना-जालंधर-पठानकोट और आगे जम्मू । कहते हैं -इतिहास कभी अधूरा नहीं रहता और वह हमें सचेत भी करता रहता है । धीरे-धीरे रेल जम्मू स्टेशन की बाहरी सीमा से अंदर की ओर प्रवेश करती गयी और नये-नये भाव जगाती रही । यात्री एक तरफ अपना सामान बटोर रहे थे । ट्रेन के डेढ़ घंटे लेट होने के कारण सबको जल्दी थी । हम भी जल्दी में थे क्योंकि यहाँ से डोडा की यात्रा करनी है । वह भी सड़कमार्ग से । जम्मू स्टेशन आते ही डोडा, किश्तवारी, कश्मीरी बच्चों के चेहरे खिल गये । इसी बीसीजी सालिक ने अपने पिताजी को देखा और उनसे परिचय बकौल नूर हुसैन के रूप में हुआ । वह विगत वर्ष सेना से रिटायर हुए हैं । उन्होंने हमारी बहुत सहायता की । स्टेशन के बाहर मिनी बस जे के 02 8044 के ड्राइवर विजय ने हम लोगों को इंदिरा चौक तक उतारा लेकिन वह पहले से ही निर्धारित टेम्पू(यहाँ लोग ट्रैवलर गाड़ी को टेम्पू ही कहते हैं ) के एजेंट अमित के यहाँ रोका । हमारे बात से पहले ही विजय ने अमित को कहाँ-भई! इने डोडे जाने हैं । वहाँ बस इशारा काफी था । तब तक हम सब अपना सामान उतार लिये थे । हम लोगों के पास दूसरा विकल्प नहीं था । इस कारण गाड़ी रिजर्व करना मजबूरी थी । मैंने उनसे पूछा ( अपने जी वाले स्टाइल में) भाई कितने लगेंगे । उसने न आव देखा न ताव और तपाक से बोल दिया । सर, 5हजार लगेंगे । अब मैं सोच में पड़ गया और अंततः चार हजार में मामला फिट हुआ । तब तक नूर भाईजान आ चुके थे । उनसे मैंने तसल्ली ली तो उन्होंने कहा कि-ठीक है । 

इस बीच टिकरी (जहाँ से कटरा के लिए रास्ता कटता है ) पहुँचते ही अशोक ने पूछा की-भई!कहाँ जाना है 😂। मैं उन्हें गंतव्य का नाम नवोदय बताया तो उसने कहा कि-मैं तो डोडे छोड़ूँगा । इस बीच उस युनियन वाले से उठाने बात की और कहाँ कि-मैं अधिक पैसा लूँगा । मुझे जैसे सदमा लग गया । कहते हैं पहाड़ के लोग बहुत ईमानदार होते हैं लेकिन व्यवसाय ने सारी ईमानदारी ताख पर रख दी । मैं भी अड़ गया और यहाँ तक कह दिया कि यहीं उतार दो मैं चला जाऊँगा । बहरहाल काफी बहसबाजी के बात उधर से फोन आया कि-अतिरिक्त तेल का पैसा ले लेना । इस बीच गाडी चिनैनि-नासिरी-9.25 किमी।  सुरंग के पास पहुँच गयी और उसने 100 का टोल लेकर हमें आगाह किया की यह पैसा आप देना । मैं चुप रहा सोचता रहा । बच्चों का मन था कि-उसी सुरंग के रस्ते जायेंगे । सुरंग के बाद ही दो रस्ते बन गये । एक श्रीनगर को और दूसरा डोडा को । ऊपर पटनीटाप । पहले डोडा वाला रास्ता ही श्रीनगर जाता था । आगे बटौत होते हुए सायं 6 बजे रामगढ़ बगर पहुंचे । वहां राजमा चावल खाया । 50 रूपये प्लेट । इतने में सूर्य की लालिमा काली अँधेरी रातों में बदलने लगी ।

देखते-देखते गाड़ी डोडा के निकट पहुँच गयी । जहाँ से डोडा सिटी को देखने से लग रहा था कि-पहाड़ों को दीवाली के अवसर पर सजाया गया हो  । सुन्दर दृश्य और चिनाब के किनारे लटके घर सहज ही आकर्षित कर रहे थे । अँधेरा और पहाड़ी शहर इन दोनों में स्वर्ग का एहसास होता है।  तब तक हम पुलडोडा(पहाड़ों को पर करने के लिए बना पुल) पहुँच गए । लगभग 7 बजे होंगे । अशोक जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे वैसे वैसे परेशां लग रहे थे । खैर अपरिचित स्थान पर बगैर किसी नंबर के रत 8 बजे पहुँच गया । यहाँ पपहुंचकर एक बात अजीब लगी । बच्चों ने कहा कि-यहाँ टंग क्लीनर नहीं मिलता ? यहाँ कोई भी उत्तर भारतीय त्यौहार धूमधाम से नहीं मनाया जाता । हिन्दू त्यौहार पर हिन्दू एवं मुस्लिम त्यौहार पर मुश्लिम बच्चों को छुट्टी दी जाती है । यहाँ होली-दीवाली-दशहरा का कोई महत्व नहीं । इतना कहते-कहते बच्चों की आँखें तर हो गयी । इतने में आपसी बाते करते करते रात के ग्यारह बज गये । बच्चे भी सो गये । इसी दौरान सुबह जाने की जल्दी थी और चौकीदार से एक वैन की बुकिंग करके सो गया । दो कमरे के गेस्ट हाऊस में घोर शांति थी । एक चीज हमें उद्वेलित कर रहा था-इसके मुख्य दरवाजे पर बोरी कसी हुई थी । इस सन्दर्भ में हमें पहले ही जानकारी ली थी तब हमें पता चला था कि-यहाँ हरेक किस्म के साँप मिलते हैं । मध्य हिमालय के इस भाग में कभी-कभार तेंदुआ भी दिख जाते हैं । 

11.10.2017

मनुष्य प्रकृति प्रेमी होता है क्योंकि यही उसे भविष्य के प्रति सचेत और अचेत करती है । हमने दूसरी बार इतने करीब से प्रकृति को निहारा था । कल रात होने के कारण हिमालय का नजारा उतना नहीं दिखा, इस कारण सुबह होने के इंतजार में आधी रातगुजर गयी । सुबह 4 बजे जब नींद खुली तो शरीर यही कहते हुए कराह रहा था कि-थोड़ा और आराम ! तभी माता जी के बुलावे का सन्देश कानों में गूंजने लगा । इससे भी ज्यादा 22 मई 2014 की स्मृतियाँ उजागर हो गयी, जब एक दिन पूर्व जब मैं श्रीनगर में भारतेंदु पाठक के साथ कश्मीर विश्वविद्यालय के एक पद के लिए साक्षात्कार देने गया था ।(हालांकि मित्र पाठक जी उस पद पर चयनित हुए ) उस दिन जम्मू स्टेशन से वापस जनरल डिब्बे में वापस घर पहुँचे । इन कारणों से मैं मौका नही गंवाना चाहता था । बेगम जी भी जग गयी । हम लोग स्नान-ध्यान करके  साढ़े पाँच बजे तैयार हो गये । तब तक इंद्रजीत भी वैन लेकर पहुँच गये । आधे घंटे की तैयारी के बाद सबसे दुआ_सलाम करके हम चल दिये ।

मध्य हिमालय की गोंद में बसे इस नवोदय विद्यालय की ऐतिहासिकता संदिग्ध नहीं है । यहाँ से नीचे की ओर जाना और निहारना अलग तरीके की ख़ुशी प्रदान करता है ।


जारी है...

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