गुरुवार, 29 सितंबर 2022

बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान 

(सरकारी सेवा के उन्नीस वसंत)


मनुष्य अपने जीवन को सुखद बनाने के निमित्त सहज एवं सुगम प्रयास तो करता है लेकिन कठिन समस्या आने पर भयभीत हो जाता है और यही अज्ञात भय बाधक बनकर उसे अंत काल तक डराता रहता है |




इतना लंबा समय जैसे लग रहा है  अभी-अभी सरकारी बेड़ियाँ बधीं हो । याद आते वे दिन जब पहली बार इलाहाबाद से विदा होते हुए अपनों से दूर हुआ था । काशी एक्सप्रेस की लंबी सीटी के साथ बंध गयी थी हमारी आवाज । इटारसी के बाद की पहली लम्बी यात्रा और वह भी बगैर सीट के...याद आती वह तेज होती धड़कने, जिसकी गति हासन से हलेकोटे की राह में हिचकोले खाती बसों ने बढ़ा दी थी । उस समय से लेकर अगस्त 2009 तक की खट्टी-मीठी यादें अभी भी हमें झकझोरती है । क्योंकि इस छः सैलून में सब कुछ बदल गया। मैं बदला, जीवन बदला, यौवन बदला और कई परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए । इसी बीच शादी से लेकर घर परिवार को महसूस करना भी विशिष्ट उपलब्धि रही ।


मनुष्य अपने जीवन को सँवारने में हर चीज दाँव पर लगा देता है । वह अपने कीमती समय को सपर्पित करते हुए नयी आशा एवं आकांक्षाओं सहित आगे बढ़ता है । इसी राह में चलते चलते वह ताउम्र गतिशील होता है । ऐसे में उसे केवल मंजिल ही दिखाई देती रही । इस दौरान तमाम अंतर्विरोध आये लेकिन बड़े ही मुश्किल समय को सहज भाव से  व्यतीत किया । कभी भी अपनी इच्छाओं को अपने लक्ष्य के आड़े नहीं आने दिया ।शायद इसी का परिणाम शोध उपाधि के रूप में सामने है । 

हमें उस समय व्यतीत किये समय और हासन केंद्रीय पुस्तकालय से निर्गत की गयी पुस्तकें (हिन्दी ये पुस्तकें यहाँ से निर्गत कराने वाला शायद मैं पहला और अंतिम सदस्य रहा.) आज भी अपनी ओर अनायास ही आकर्षित करती हैं । कुल मिलाकर यह एक लंबा संस्मरण है, जिसकी अनुगूँज आज हमें अक्सर सुनाई देती है ।


यही कारण है कि आज भी  माविनकेरे, हासन की जुदाई के साथ ही याद आते हैं मल्लारिपत्तनम(मल्हार, बिलासपुर) में गुजारे अविस्मरणीय पल ।

इन्हीं विपरीत परिस्थितियों में आज तंत्र के शिकंजे में बंधे 19 बरस पूरे हुए....देखें...कब बेड़ियाँ टूटती है | पहले का चित्र जब मैं पहाड़ों की वादियों में अपने आपको भाग्यशाली मानता था | अब तो बस चलना है....!! क्योंकि चलना ही जिंदगी है....


सरकारी बेड़ियाँ भी अनेक प्रकार की होती है। यह एक तरफ हमें कार्य करना सिखाती है तो दूसरी तरफ आलस के आगोश में लेकर जीवन को गर्त में पहुँचाने को अभिशप्त करती है। बहरहाल हमने 6+7+4+2 के रुप में भारत की यात्रा की।

बहरहाल ईश्वर से यही इच्छा रहती है कि-ज़ब तक साँस चले तब तक वह हमारे कर्तव्य के प्रति समर्पण भाव को खाली न होने दें।


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