शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2022

अधूरी आबादी का नग्न यथार्थ : चिंतन, चुनौतियाँ एवं समाधान (विमर्श की नयी दास्तान)

अधूरी आबादी का नग्न यथार्थ : चिंतन, चुनौतियाँ एवं समाधान

(विमर्श की नयी दास्तान)

     समकालीन साहित्य ने विमर्श की धार को पैनी किया है। यह भारतीय समाज की वैज्ञानिक संरचना को भी प्रभावित किया है। परन्तु ज़ब हम आधी आबादी की वर्तमान स्थिति पर विहंगम दृष्टि डालते हैं तो विमर्श के समस्त अवयव एवं मानक ध्वस्त होते दिखते हैं।


                                     चित्र-गूगल से साभार 

      घर, परिवार एवं समाज की बनावट में नारी को पूजनीय माना गया है। ऐसा कहा गया कि-जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। इन्हें कभी श्रद्धा तो कभी यशोधरा तो कभी सती, सावित्री, सीता से लेकर कैकेयी, द्रौपदी के आधार पर परंपरागत बेड़ियों को तोड़ने एवं समाज के नये मानदंड निश्चित करने की सलाह दी जाती रही है। बहुत हद तक विकास एवं परिवर्तन भी अवश्य दिख जाते रहे हैं।

       परन्तु समाज की वर्तमान परिवर्तित स्वरुप को देखकर समस्त परंपराएँ विलाप करने लगती हैं। प्रसंगतः प्रश्न स्वाभाविक है-क्या नारी विमर्श विकास एवं समृद्धि के चरम पर पहुँचकर शोषण की धारा को विपरीत दिशा में मोड़ दिया है ? क्या हम इसमें नारी के बिना पुरुष  को अधूरी अधूरी आबादी के रुप में आत्मसात करते हुए इसमें छिपे नग्न यथार्थ की पड़ताल जरुरी नहीं है? और सबसे बड़ी बात कि आधी आबादी पर यह विमर्श किस सीमा तक प्रभावी एवं भारी है ?
    
      प्रत्यक्ष को प्रमाण के आधार पर ही सिद्ध किया जाता रहा है। इसी आधार पर यथार्थ को मजबूत आधार मिलता है। इसी आधार पर सामाजिक एवं पारिवारिक शोषण की परिवर्तित धारा की पड़ताल किया जा सकता है । इसके निमित्त हाल फिलहाल घटित घटनाओं को सहजतापूर्वक आधार वनाया जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार- भारत में महिलाओं की आत्महत्या दर 16.4 प्रति 100,000 और पुरुषों की 25.8 है. वही दुनिया भर में हर साल लगभग 800,000 लोग आत्महत्या करते हैं. इनमें से 135,000 (17%) भारतीय हैं. NCRB की रिपोर्ट की मानें तो देश में 2021 में प्रति एक लाख की आबादी पर आत्महत्या के मामलों की राष्ट्रीय दर 12 रही है। इसी प्रकार जी न्यूज से लेकर दैनिक भास्कर,  दैनिक जागरण इत्यादि मीडिया के स्थायी-अस्थायी स्तम्भ भले ही विश्वास योग्य नहीं हैं परन्तु उनके द्वारा एकत्रित आंकड़े महत्वपूर्ण हैं। इस आधार पर 'भारत की स्थिति भी कुछ खास अलग नहीं है. भारत में कुल आत्महत्या के मामलों में से 70% मामले पुरुषों के और तकरीबन 30% मामले महिलाओं के सामने आते हैं. साल 2019 में दुनिया में 7 लाख लोगों ने आत्महत्या की और उन 7 लाख में से डेढ़ लाख लोग तो सिर्फ भारत के थे. बताते चलें कि भारत में आत्महत्या के आंकड़ों को नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) दर्ज करता है. पिछले साल सितंबर 2020 में ये आंकड़े जारी किए गए थे. इसके मुताबिक भारत में होने वाली कुल मौतों में प्रतिवर्ष 10.4% लोग आत्महत्या करते हैं. यानी रोजाना तकरीबन 381 लोग अपनी जान दे रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार 34% लोग परिवार में चल रही कलह से परेशान होकर जान दे देते हैं तो वहीं शादी से जुड़े मसलों की वजह से 7% लोग आत्महत्या कर लेते हैं. 7% युवा मानसिक बीमारी का शिकार होकर जान दे देते हैं तो वहीं 5.6% लोग शराब या ड्रग्स की लत के चक्कर में जान दे देते हैं और 5% ऐसे हैं जो कि लव अफेयर के चक्कर में फंसकर में जान दे देना ही आखिरी विकल्प समझते हैं। (जी न्यूज से साभार)

  उपर्युक्त प्रमाण की भयावहता शोषण के नग्न यथार्थ को अभिव्यक्त करता है। इसे अधिक स्पष्ट रुप से समझना हो तो जसिंता केरकेट्टा की इस कविता को पढ़ा जाय-वह अपने प्रसिद्ध काव्य संग्रह में 'ईश्वर और बाजार' में कहती हैं-मनुष्य के अंदर का "डर जो गुलाम बनाता है", इसी कारण वह भगवान ढूंढ़ने जाता है-यथा-
आखिर क्यों आदमी
भगवान ढूंढ़ने जाता है?
कौन-सा डर है
जो उसे इतना डराता है?

इस डर को वह दैनिक एवं रोजमर्रा की जिंदगी से ज़ब जोड़ती हैं तो उपर्युक्त यथार्थ की धुंधली तस्वीर साफ होने लगती है-वह डर है-
दो जून की रोटी जुगाड़ न कर पाने का डर
पढ़-लिख रही दुनिया में
अपने बच्चों को अनपढ़ रह जाने का डर
अंधकार में डूब रहे सूरज की तरह
जीवन में उम्मीद की
कोई किरण न दिखाई पड़ने का डर
पीछे छूट जाने का डर
सीलन-भरे कमरे में बीमार पड़
चुपचाप मर जाने का डर..

क्या इस कथित आधुनिकता की आड़ में व्यथित हृदय में विराजमान डर के आगे जीवन की उम्मीद करना बेमानी है? आज हम जिस परिवेश में जीने कोई अभिशप्त हैं वह ग्लानि एवं पीड़ा जैसे ईंट-गारों से निर्मित भवन का हिस्सा है? यदि यह सत्य है तो वैश्विक भारत की कल्पना करना गलत है।

इसके लिए ताज़ा उदाहरण हमें पुनर्विचार करने को विवश करता है। जिस डर के आधार पर "ईश्वर और बाजार" के बीच विमर्श की पड़ताल की गयी है। वह केवल गिरिजन का यथार्थ नहीं अपितु यह समस्त जन की पीड़ा का नग्न यथार्थ है। अभी दो दिन पहले की घटना हमारे उपर्युक्त कथन कोई सिद्ध करती हैं। एक पत्नी पीड़ित पति की आत्महत्या और सामाजिक विचलन भारतीय संस्कृति नयी उल्टी धारा को द्योतित करती है। प्रसंगतः पुनः वही डर उपस्थित होकर कहने को मजबूर करता है कि-डर ही डर को जन्म देता है और अंत में यही पुरुष के अंदर छिपी स्त्री कोई मारकर ईहलीला समाप्त करने कोई विवश करता है..इसका विस्तार  जसिंता इस प्रकार करती हैं-यथा-

ज़ब बच्चे स्कूल जाने लगेंगे तो
उनके सवालों का जवाब न दे पाने का डर
और सबसे बड़ा डर
अपने सवालों के लिए लड़ न पाने का डर..(ईश्वर और बाजार)

आखिर कौन-कौन सवाल हैं, जिससे डर को मजबूती मिलती है और वह क्रॉनिक बनकर मानव जीवन के लिए अभिशाप बन जाती है। इनमें भूख से लेकर गुलामी तक सारी कहानियाँ गडमड्ड हो जाती है। हम दूध में गिरी मक्खी को निकालकर पी सकते हैं परन्तु ज़ब दूध ही विष बन चुका हो तो नीलकंठ का आश्रय लेना ही श्रेयष्कर हो सकता है क्योंकि "एक दिन ईश्वर/मेरी आदत में शामिल हो गया/अब मेरी आदत में ईश्वर था/जैसे मेरी आदत में तम्बाकू.. (वही), जिसके बल पर वह मोक्ष की कल्पना करके भी नरक में राजा बनने की कला सीखता रहता है और अंतिम रुप में वह काल के आगोश में चला जाता है।

  यह अंतहीन अधूरी आबादी का नग्न यथार्थ : चिंतन, चुनौतियाँ एवं समाधान
(विमर्श की नयी दास्तान)

समकालीन साहित्य ने विमर्श की धार को पैनी किया है। यह भारतीय समाज की वैज्ञानिक संरचना को भी प्रभावित किया है। परन्तु ज़ब हम आधी आबादी की वर्तमान स्थिति पर विहंगम दृष्टि डालते हैं तो विमर्श के समस्त अवयव एवं मानक ध्वस्त होते दिखते हैं।
      घर, परिवार एवं समाज की बनावट में नारी को पूजनीय माना गया है। ऐसा कहा गया कि-जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। इन्हें कभी श्रद्धा तो कभी यशोधरा तो कभी सती, सावित्री, सीता से लेकर कैकेयी, द्रौपदी के आधार पर परंपरागत बेड़ियों को तोड़ने एवं समाज के नये मानदंड निश्चित करने की सलाह दी जाती रही है। बहुत हद तक विकास एवं परिवर्तन भी अवश्य दिख जाते रहे हैं।

       परन्तु समाज की वर्तमान परिवर्तित स्वरुप को देखकर समस्त परंपराएँ विलाप करने लगती हैं। प्रसंगतः प्रश्न स्वाभाविक है-क्या नारी विमर्श विकास एवं समृद्धि के चरम पर पहुँचकर शोषण की धारा को विपरीत दिशा में मोड़ दिया है ? क्या हम इसमें नारी के बिना पुरुष  को अधूरी अधूरी आबादी के रुप में आत्मसात करते हुए इसमें छिपे नग्न यथार्थ की पड़ताल जरुरी नहीं है? और सबसे बड़ी बात कि आधी आबादी पर यह विमर्श किस सीमा तक प्रभावी एवं भारी है ?
    
      प्रत्यक्ष को प्रमाण के आधार पर ही सिद्ध किया जाता रहा है। इसी आधार पर यथार्थ को मजबूत आधार मिलता है। इसी आधार पर सामाजिक एवं पारिवारिक शोषण की परिवर्तित धारा की पड़ताल किया जा सकता है । इसके निमित्त हाल फिलहाल घटित घटनाओं को सहजतापूर्वक आधार वनाया जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार- भारत में महिलाओं की आत्महत्या दर 16.4 प्रति 100,000 और पुरुषों की 25.8 है. वही दुनिया भर में हर साल लगभग 800,000 लोग आत्महत्या करते हैं. इनमें से 135,000 (17%) भारतीय हैं. NCRB की रिपोर्ट की मानें तो देश में 2021 में प्रति एक लाख की आबादी पर आत्महत्या के मामलों की राष्ट्रीय दर 12 रही है। इसी प्रकार जी न्यूज से लेकर दैनिक भास्कर,  दैनिक जागरण इत्यादि मीडिया के स्थायी-अस्थायी स्तम्भ भले ही विश्वास योग्य नहीं हैं परन्तु उनके द्वारा एकत्रित आंकड़े महत्वपूर्ण हैं। इस आधार पर 'भारत की स्थिति भी कुछ खास अलग नहीं है. भारत में कुल आत्महत्या के मामलों में से 70% मामले पुरुषों के और तकरीबन 30% मामले महिलाओं के सामने आते हैं. साल 2019 में दुनिया में 7 लाख लोगों ने आत्महत्या की और उन 7 लाख में से डेढ़ लाख लोग तो सिर्फ भारत के थे. बताते चलें कि भारत में आत्महत्या के आंकड़ों को नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) दर्ज करता है. पिछले साल सितंबर 2020 में ये आंकड़े जारी किए गए थे. इसके मुताबिक भारत में होने वाली कुल मौतों में प्रतिवर्ष 10.4% लोग आत्महत्या करते हैं. यानी रोजाना तकरीबन 381 लोग अपनी जान दे रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार 34% लोग परिवार में चल रही कलह से परेशान होकर जान दे देते हैं तो वहीं शादी से जुड़े मसलों की वजह से 7% लोग आत्महत्या कर लेते हैं. 7% युवा मानसिक बीमारी का शिकार होकर जान दे देते हैं तो वहीं 5.6% लोग शराब या ड्रग्स की लत के चक्कर में जान दे देते हैं और 5% ऐसे हैं जो कि लव अफेयर के चक्कर में फंसकर में जान दे देना ही आखिरी विकल्प समझते हैं। (जी न्यूज से साभार)
  उपर्युक्त प्रमाण की भयावहता शोषण के नग्न यथार्थ को अभिव्यक्त करता है। इसे अधिक स्पष्ट रुप से समझना हो तो जसिंता केरकेट्टा की इस कविता को पढ़ा जाय-वह अपने प्रसिद्ध काव्य संग्रह में 'ईश्वर और बाजार' में कहती हैं-मनुष्य के अंदर का "डर जो गुलाम बनाता है", इसी कारण वह भगवान ढूंढ़ने जाता है-यथा-
आखिर क्यों आदमी
भगवान ढूंढ़ने जाता है?
कौन-सा डर है
जो उसे इतना डराता है?

इस डर को वह दैनिक एवं रोजमर्रा की जिंदगी से ज़ब जोड़ती हैं तो उपर्युक्त यथार्थ की धुंधली तस्वीर साफ होने लगती है-वह डर है-
दो जून की रोटी जुगाड़ न कर पाने का डर
पढ़-लिख रही दुनिया में
अपने बच्चों को अनपढ़ रह जाने का डर
अंधकार में डूब रहे सूरज की तरह
जीवन में उम्मीद की
कोई किरण न दिखाई पड़ने का डर
पीछे छूट जाने का डर
सीलन-भरे कमरे में बीमार पड़
चुपचाप मर जाने का डर..

क्या इस कथित आधुनिकता की आड़ में व्यथित हृदय में विराजमान डर के आगे जीवन की उम्मीद करना बेमानी है? आज हम जिस परिवेश में जीने कोई अभिशप्त हैं वह ग्लानि एवं पीड़ा जैसे ईंट-गारों से निर्मित भवन का हिस्सा है? यदि यह सत्य है तो वैश्विक भारत की कल्पना करना गलत है।

इसके लिए ताज़ा उदाहरण हमें पुनर्विचार करने को विवश करता है। जिस डर के आधार पर "ईश्वर और बाजार" के बीच विमर्श की पड़ताल की गयी है। वह केवल गिरिजन का यथार्थ नहीं अपितु यह समस्त जन की पीड़ा का नग्न यथार्थ है। अभी दो दिन पहले की घटना हमारे उपर्युक्त कथन कोई सिद्ध करती हैं। एक पत्नी पीड़ित पति की आत्महत्या और सामाजिक विचलन भारतीय संस्कृति नयी उल्टी धारा को द्योतित करती है। प्रसंगतः पुनः वही डर उपस्थित होकर कहने को मजबूर करता है कि-डर ही डर को जन्म देता है और अंत में यही पुरुष के अंदर छिपी स्त्री कोई मारकर ईहलीला समाप्त करने कोई विवश करता है..इसका विस्तार  जसिंता इस प्रकार करती हैं-यथा-

ज़ब बच्चे स्कूल जाने लगेंगे तो
उनके सवालों का जवाब न दे पाने का डर
और सबसे बड़ा डर
अपने सवालों के लिए लड़ न पाने का डर..(ईश्वर और बाजार)

आखिर कौन-कौन सवाल हैं, जिससे डर को मजबूती मिलती है और वह क्रॉनिक बनकर मानव जीवन के लिए अभिशाप बन जाती है। इनमें भूख से लेकर गुलामी तक सारी कहानियाँ गडमड्ड हो जाती है। हम दूध में गिरी मक्खी को निकालकर पी सकते हैं परन्तु ज़ब दूध ही विष बन चुका हो तो नीलकंठ का आश्रय लेना ही श्रेयष्कर हो सकता है क्योंकि "एक दिन ईश्वर/मेरी आदत में शामिल हो गया/अब मेरी आदत में ईश्वर था/जैसे मेरी आदत में तम्बाकू.. (वही), जिसके बल पर वह मोक्ष की कल्पना करके भी नरक में राजा बनने की कला सीखता रहता है और अंतिम रुप में वह काल के आगोश में चला जाता है।

   यह समाज में जीवनयापन कर रहे मनुष्य की ऐसी पीड़ा की नियताप्ति है, जो अंतहीन है और विकास के बहाने विनाश को आमंत्रित करती जा रही है। यदि इस धारा को समाज की निर्मल धारा कहने वाले सुधारक नियंताओं पर तरस आता है। ऐसी स्थिति में निम्न सलाहों को समाधानस्वरूप स्वीकार किया जा सकता है-
1. घर-परिवार में विवाह जैसे पवित्र संस्कार में सहजता कायम रहे। इसमें कभी-भी पारिवारिक दबाव हावी न होने पाये एवं आपसी समझ को तरजीह दिया जाय बनिस्बत समझौता के।
2. यदि अंतर्विरोध उत्पन्न हो तो एकल की बजाय संयुक्त परिवार को अवसर दिया जाय।
3. व्यक्ति मन बहुत चंचल होता है। यह अपने पड़ोसी से लेकर मित्र-अमित्र एवं दूसरों को देखकर व्यग्र होने को अभिशप्त होता है। जबकि हमें यह सोचना चाहिए कि-समाज में मजदूर से लेकर कुबेर तक का वास रहता है। हमें हमेशा अपने से कमजोर दिखने वाले लोगों को देखना चाहिए लेकिन उन पर फब्तियाँ नहीं कसना चाहिए अपितु उसके साथ बैठकर सोचना चाहिए। जैसे अस्पताल में भर्ती मरीज के परिजन ज़ब अपने समकक्ष उन समस्त रोगियों के कष्ट कोई देखते हैं तो उन्हें अपना कष्ट कमतर प्रतीत होता है। ठीक ऐसे ही ज़ब ग्लानिग्रस्त पुरुष अन्य के दुःख को बुद्ध की नजरों से देखता है तो उसे सर्वत्र एक भावधारा का प्रवाह महसूस होता है।
4. ज़ब कोई व्यक्ति आत्मरक्षा में स्वयं को असमर्थ महसूस करता है तो वह बहुत पहले से कुंठित होकर जरुरी प्रमाण घर -परिवार एवं समाज के समक्ष छोड़ता चला जाता है। जैसे साँप केंचुल छोड़कर अपनी काया को नव-परिवर्तन के लिए निर्मित करता है ठीक वैसे ही मानसिक रुप से विचलित पुरुष उन कारणों के निमित्त कार्यों के नये स्वरूप का निर्धारण करता चला जाता है। अतः इसके लिए अपनों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है।
5. अंत में पुनः जसिंता केरकेट्टा का 'इंतजार' सम्पूर्ण सभ्यता के लिए जरुरी औजार बन जाता है क्योंकि-वे हमारे सभ्य होने के इंतजार में हैं/और हम उनके मनुष्य होने के... इस मनुष्य बनने और होने में ही आधी एवं अधूरी आबादी के नवीन एवं जरुरी विमर्श की महागाथा की प्रासंगिकता निहित है ।
(यह स्वयं के निजी विचार है.)

©डॉ. मनजीत सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर-हिन्दी
कुँवर सिंह पी जी कॉलेज, बलिया




    




    

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