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रविवार, 8 मई 2022

महतारी दिवस

महतारी दिवस

साभार


मातृ दिवस पर बेहतरीन तीन कविताएँ । जंसिता, अदनान एवं ऋतुराज की ये तीनों कविताएँ न केवल हमें सोचने को मजबूर करती हैं अपितु यथार्थ को नये रूप में अभिव्यक्त भी करती हैं…यथा…साभार प्रस्तुत.....

माँ ने मुझे क्यों कभी नहीं टोका?


मुझे दादाजी ने टोका, पिताजी ने टोका

सिर्फ़ माँ ने ही

कभी किसी बात के लिए नहीं रोका

एक वही मेरे साथ है

मैं लम्बे समय तक यही समझता रहा


सालों बाद एक शाम मुझे शक हुआ

कोई साथ है फिर क्यों चुप है?

मैंने उससे पहली बार पूछा

माँ तुमने मुझे क्यों कभी नहीं टोका?

क्या सहमत होने का अर्थ चुप रहना होता है?


उसने पहली बार कुछ बोला

तुम्हारे दादा बहुत सख़्त थे

उसके सामने मैंने कभी मुँह नहीं खोला

तुम्हारे पिता भी बहुत सख़्त थे

उसके सामने मैंने कभी मुँह नहीं खोला मैं

ने जीवन-भर तुम्हें भी कुछ नहीं कहा

क्योंकि मैंने कभी भी

सवाल करना ही नहीं सीखा।


(ईश्वर और बाजार-जंसिता केरकेट्टा)


आँख…..


मेरी बूढ़ी माँ को

मोतियाबिन्द की शिकायत है

लेकिन उसकी आँखें

अँधेरे में भी देख लेती हैं


जब मैं लेटता हूँ उसकी बग़ल में

तो वो मुझे टटोलती है

जैसे ढूँढ़ रही हो अपनी कोई खोई हुई चीज़

और बिना कहे जान लेती है

कि मेरे पेट में दर्द है या सिर में थोड़ा बुख़ार

मुझे पहचानने के लिए

वो कोई चश्मा भी नहीं लगाती

बस टो कर ही समझ लेती है

कि मैं हूँ


सब कहते हैं

कि मेरी माँ अंधी है

लेकिन मैं कहता हूँ

कि हम सब अंधे हैं

केवल माँ को छोड़कर


माँ ने तो अपने हाथों में आँखें उगा ली हैं

और हम सब अपनी आँख

कहीं रखकर भूल गए हैं…


(अदनान कफील 'दरवेश'..ठिठुरते लैम्प पोस्ट)


 

माँ का दुःख……


कितना प्रामाणिक था उसका दुख

लड़की को कहते वक़्त जिसे मानो

उसने अपनी अंतिम पूंजी भी दे दी


लड़की अभी सयानी थी

इतनी भोली सरल कि उसे सुख का

आभास तो होता था

पर नहीं जानती थी दुख बाँचना

पाठिका थी वह धुंधले प्रकाश में

कुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की


माँ ने कहा पानी में झाँककर

अपने चेहरे पर मत रीझना

आग रोटियाँ सेंकने के लिए होती है

जलने के लिए नहीं

वस्त्राभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह

बंधन हैं जीवन के


माँ ने कहा लड़की होना

पर लड़की जैसा दिखाई मत देना ।


*****ऋतुराज




शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

स्वतंत्रता दिवस विशेष

स्वतंत्रता दिवस विशेष


खुशियों की बगिया महकती रहे 
आपके ग़मों के बादल छटते रहें 
दुआ करता हूँ इस पावन पर्व पर 
दुश्मन भी गले से मिलते रहे ||


डॉ. मनजीत सिंह


जय हिंद...बंदे मातरम 

आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की बधाई

बुधवार, 20 नवंबर 2013

गजल

                        1
घाव कुरेदकर दर्द बढ़ाने वाले खूब मिल जायेंगे 
काश कोई मरहम लगाने का गुर सिखा जाता || 

*******डॉ. मनजीत सिंह***********
19/11/13



अब तो मजबूर  हूँ, अक्ल के  दुश्मनों से 
दोस्ती के बहाने  दुश्मनी कायम रखते हैं ||
देते रहते हैं उपहार, दुःख की गगरी भरकर 
राह चलते ही  आँखे चार किया करते हैं ||


*******डॉ. मनजीत सिंह*********** 
20/11/13

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

गजल

हम ठहर गए जमीन पर, आसमा तक पहुँच कहाँ, 
आजमाया तो खूब हमने, उनके आगे नसीब कहाँ |
गम की आँसू की बूँद भी, धार बन सूखने को मजबूर 
दुनियादारी की रस्मों में, उस यारी के लिए वक्त कहाँ | 

डॉ. मनजीत सिंह

27/10/13

सोमवार, 13 मई 2013

गजल

गजल  

1

दिल के मंदिर में गुलाब की सुगंध आती है
हर नाचीज को भी दुआ-सलाम करती है
आते हैं चढावे हर रोज धूप बत्ती के संग
पेट नहीं भरता औ भूख व्याकुल करती है ||

.....डा.मनजीत सिंह......१३/०५/१३


2


काश मेरे दर्द की भी कोई दवा होती, दूजा दुःख घूँट पीकर मस्त होता |

3


घरिनी घर को स्वर्ग बनाती, तभी तो वह इठलाती है ।
कभी-कभी चंडी बन जाती, तब तो बड़ा सताती है।।
7.6.13
डॉ. मनजीत सिंह
 


4


मन के मंदिर में प्रेम का दिया जलता है
दिन-रात कल्पना का प्रसाद चढ़ता है
समय-समय पर दिल का घंटा बजता है
यही नियमित क्रिया सुखद फल देता है।
9.9.13
डॉ. मनजीत सिंह


5


जब भीगी पलकों से हम  कोई नाम लेते है,
भूल जाता दुनिया औ उस पर जान देते हैं।
9.6.13
डॉ. मनजीत सिंह
 
 


6


उम्र के इस दहलीज पर आगे बदने को सोचता हूँ |
नींद भी नहीं आती और जमाना सोने नहीं देता ||
डा. मनजीत सिंह


11.06.13
  

7


शिखर की ओर देखकर मुझे सुकून नहीं मिलता,
उस मंजिल पर पहुँचकर ही मन संतुष्ट होता है।

11.6.13

डॉ. मनजीत सिंह
 


8


कभी-कभी तो सोचता हूँ.......काश् मैं भी अमीर होता
रोटी-कपड़ा-मकान से ऊपर...चाँद-तारों के करीब होता।

12.6.13

डॉ. मनजीत सिंह


 
 

रविवार, 28 अप्रैल 2013

गजल

 जी मचल उठता है

अँधेरे के आगमन से जी मचल उठता है
उजाला तो बस सपनों में ही दिखता है |
क्या पता कब बरस पड़े काले-काले बादल
इसी उम्मीद से समय धीरे-धीरे बीतता है |

........डा.मनजीत सिंह......................


यूँ ही राते कट जायेगी



यूँ ही राते कट जायेगी ठिकाना पाने के लिए
मायूसी से मजबूर होकर भी गुजारा कर लेंगे |

............डा.मनजीत सिंह........................



बच्चे मन के सच्चे......

कार्यक्रम के दौरान इनके उत्साह देखकर अनायास शब्द मिले......जो सायास बन गया.....


भारत की तस्वीर है हमारे बच्चे
भारत की तकदीर है हमारे बच्चे
बदल देंगे दुनिया को एक पल में
ताकत से सराबोर हैं हमारे बच्चे ||

.........डा.मनजीत सिंह............


राष्ट्र हैं तो हम हैं........!!!


राष्ट्र की गरिमा को बढायें हम
विश्व में अपना परचम लहराएंगे हम
भारत के योगदान को दिखाएँगे हम
धूप हो या गर्मी, हर मौसम में
जलते हुए भी दीप जलाएंगे हम |

.डा....म...न...जी...त...सिं.......ह.
 

 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

कारवां

 कारवां


कारवां बनता गया काफिला भी बढ़ता गया

लोगो के हुजूम को देख विष भी बढता गया |

कोई मजबूर न होता

कोई मजबूर न होता


काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
क्षुधा को शांत करने से दूर न होता |
परिंदों के पर को लग जाती ऐसी पंख
यमराज भी स्वर्ग में मिलते भरे अंक |

काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
निराले सपने देखने से वह दूर न होता
धरती की चादर पड़ती न कभी छोटी
मजमून होकर होती नहीं खोटी |

काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
खेत में किसान बीज से दूर न होता
उसकी फसल काटकर दूजा न जाता
आराम से सोता न कभी पछताता |

काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
शहर भी उस गोंव से कभी दूर न होता
बिल्डरों के नखरे उसे रुलाते न कभी
हर घर से खुशियाँ जाती न कभी |

२५/०४/१३

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