गुरुवार, 24 मई 2012

खून-पसीना और सोमरस

खून-पसीना और सोमरस-डा॰ मनजीत सिंह  

जीवन के जद्दोजहद की  सीढ़ी  सरीखे 
ताड़ के लंबे पेड़ पर चढ़ता रहा 
शायद चोटी पर पहुँचकर 
मंजिल तो मिल जाए। 
भूख की पीड़ा उसे ठेले लिए
 जा रहा  उस शिखर की ओर
पीछे परिवार का दबाव उसे 
उकसाता, प्रेरित करता
मजबूर करके मार भागता,
लेकिन ...........!
वह इस बोझ को उठाने में तत्पर 
चढ़ता चला जाता। 
जेठ की दुपहरी में आग उगलता 
सूरज उसे पसीने से तरबतर करके,
लू के थपेड़ो से खूब सताता। 
बेचारा चोटी पर चढ़ने में वह 
अंततः कामयाब हो जाता । 
कभी ज़ोर की हवा में झुकी कमर से 
बाँधकर पेड़ को या तो 
भगवान के भरोसे अपने को बचाता। 
हाय रे जीवन ने क्या-क्या खेल 
खेलकर उसे ताड़ी के सुरूर में बैठे
पेड़ के नीचे सिर ऊपर किए 
सोमरस का पान करने को आतुर 
उस बेचारे को टकटकी लगाए देखते,
मस्त, बेचैन सुरसुरी को याद करते हुए 
उसकी पीड़ा को कमतर करने का प्रयास 
करते-करते थक जाते कि,
वह उतरते-उतरते नीचे आए 
आखिर वह समय आता ही है
स्वप्न टूटता हुआ प्रतीत हुआ,
कमर में उस आनन्द का बोझ लि ए
आ गया जमीन पर 
जैसे भूखे शेर के सामने 
हतास बकरी अपने आप समा जाती है।
खून- पसीना एक करके कमाता
एक नही तो दो, नहीं बन पड़े तो 
दस ताड़ की कमाई वह खाता 
पिलाता, बरबस लिपटा रहता 
समाज की ओढनी में। 
वह आता बहुत दूर नहीं जाता 
मजदूरी के बहाने सोमरस उतारता,
इन्द्र सरीखे पूजीपतियों को पान करता 
तीन महीने खूब छककर पिलाता ।



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