मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

गुरु का सानिध्य और हिन्दी पखवाड़ा

कल यानी २८ सितम्बर का दिन हमारे जीवन का सबसे बहुमूल्य दिन रहा क्योंकि मैं लगभग पूरा दिन अपने गुरू के साथ रहा| कल सर प्रातः ६ बजकर १५ मिनट पर ही बिलासपुर पहुँच गए थे लेकिन मैं ११ बजे उनसे मिल पाया| इसके बाद सर के साथ मैं भी साक्षात्कार स्थल
पर(सर सुन्दर लाल मुक्त विश्वविद्यालय) पहुँचा| लगभग २ बजे तक यह कार्यक्रम चला | सर के शब्दों में कहें तो यहाँ अभी भी ओपन साक्षात्कार का प्रावधान है, जिसमें सम्बंधित विभाग के अलावा अन्य विभाग के लोग भी शामिल होते हैं| हमें भी यह विशेष लगा क्योंकि इसमें प्रश्न पूछने की छूट थी| लेकिन सर की प्रतिभा का लोहा वहाँ उपस्थित सदस्यों के साथ ही छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध साहित्यकार डा. विनय पाठक जी ने भी मानने को मजबूर हुए क्योंकि इस समय केवल सर ने ही ऐसे प्रश्न उठाया जो मोहन राकेश (शोध प्रबंध का विषय) के साहित्य को प्रासंगिक बनाता है| इसके अंत में नाश्ता करने के बाद हम लोग बाहर आये, इसी बीच कुलपति महोदय ने सर को किसी कार्य से पुनः वापस बुलाया| इसी दौरान वहाँ उपस्थित विद्वत वृन्द आपस में यह चर्चा कर रहे थे कि-इलाहाबाद में हिन्दी साहित्य का स्तर वास्तव में बहुत ऊँचा है, सर ने जो प्रश्न पूछा उसे अपने शोध प्रबंध में शामिल करके ही प्रकाशित करना है| इसके उपरान्त हम लोग दोपहर का भोजन ग्रहण किये और सर की यह महानता थी कि तमाम लोगों के आग्रह के बीच उन्होंने पूर्व नियोजित योजना के अनुरूप अपने शिष्य के घर आये| इस स्थल पर मैं एक बात पर जोर देना चाहता हूँ कि सर जैसा व्यक्तित्व आज के समय में मिलना नामुमकिन हैं| इसका प्रमाण हमें इस रूप में मिलता है कि सर ने वहाँ से जाने के पहले अपने आने-जाने का पूरा किराया उन लोगों को वापस कर दिया| जबकि उन लोगों ने बार-बार अनुरोध किया कि सर हम लोगों कि हार्दिक इच्छा है कि आप इसे वापस न करें| परन्तु सर का उत्तर कितना सटीक था-जब विश्वविद्यालय मुझे यात्रा-भत्ता प्रदान करता है तो इसे लेने का कोई औचित्य ही नहीं हैं| आज के दौर में शायद ही कोई हो जो इतनी बेबाकी से उत्तर देकर समाज को ईमानदारी का सन्देश देने में अपनी भूमिका निभाए| इस सन्दर्भ में मैं तो इतना जरूर कहूँगा कि-यदि भारतीय समाज को साफ़ सुथरा देखना है तो प्रत्येक व्यक्ति में यह भाव होना चाहिए |
इसके उपरान्त हम लोग मल्हार के लिए चल दिए| लगभग पांच बजे तक हम पहुंचे| मेरी पत्नी प्रीति और पुत्र समर्थ इतनी खुश थी, उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करें? क्या बनाए? समाया के अभाव में हम लोग आधे घंटे के बाद ही मल्हार में स्थित माँ डिंडेश्वरी(१०वीन ११वी शती में निर्मित माता पार्वती का मंदिर और सिद्धपीठ) के मंदिर में पहुंचे|
 यह निरा संयोग था कि कल हमारे यहाँ राजभाषा कार्यान्वन समिति के अधीन संचालित हिन्दी पखवाड़े का समापन समारोह था, इसी दिन हमारे गुरू हम लोगों के बीच थे, इस सुवसर पर मैं विभागीय मोह को नहीं त्याग सका और सायं होने वाले कार्यक्रम में सर को मुख्य अ
तिथि के रूप में पाकर न केवल मैं अपितु हम लोगों का पूरा विद्यालय धन्य हो गया| कार्यक्रम का संचालन हमें ही करना था लेकिन हमें समझ में ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलूँ, कहाँ से शुरू करूँ, फिर भी हिम्मत करके इसे संचालित किया| इस पूरे कार्यक्रम में छात्रों ने अपनी स्वरचित कविताओं के माध्यम से समां बाँध दिया लेकिन अपने अध्यक्षीय उद्बोधान में सर ने जब मंच पर अपना वक्तव्य प्रारम्भ किया तो सभागार में उपस्थित समस्त छात्र मंत्रमुग्ध होकर सरस वाणी से परिपूर्ण विचारों से भाववभिभोर हो गये | उन्होंने बड़े ही आत्मीय भाव से कहा कि-हिन्दी हमारी माँ की तरह हमेशा हमसे लिपटी रहती है, जिस प्रकार हम अपनी माँ से लिपटकर अपने सारे दुःख-दर्दों को भूल जाते हैं, भले ही मेरी माँ स्वयं किसी भी पीड़ा से पीड़ित क्यों न हो, लिपटने के बाद वह ममतामयी स्नेह हमारे हमारे दर्द को खतम कर देता है यही स्थिति हिन्दी की हैं, हिन्दी हमारी माँ की तरह हैं, जब हम इसके आँचल के छाँव में जाते हैं तो हमारी सभी समस्याओं का समाधान स्वतः ही हो जाता है| सर ने कहा कि -हिन्दी की पहली मांग है कि हम जो भी लिखें, पढ़े वह शुद्ध हो| जब सर ने आंग्ल भाषा के खतरे से सहमी हिन्दी के बारे में कहा कि-अक्सर देखने में आता है कि जब हम अंग्रेजी बोलते हैं और उसके उच्चारण में कुछ त्रुटियाँ हो जाती है तो हमें कितनी ग्लानि होती है जबकि हिन्दी बोलते समय ऐसा नहीं होता अपितु उसे बेझिझक बोलने में कुछ लोग शर्म महसूस करते है, अतः हमें लज्जा, शर्म को छोड़कर हिन्दी बोलना चाहिए| इस प्रकार यह कार्यक्रम हमारे विद्यालय के लिए ऐतिहासिक रहा |
 

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