रविवार, 23 दिसंबर 2012

मुर्दहिया-गाँव में श्मशान की लौ से जलता समाज

अभी कल ही दिल्ली से आते हुए इस आत्मकथा को पुनः पढ़ा, कारण यह था कि हमारे एक घनिष्ठ ने कहा मित्र ने कहा कि आप एक बार मुर्दहिया को और पढ़ें और कुछ लिखे| हमें डा. तुलसी राम की यह आत्मकथा बहुत खास लगती है| हमने उचक्का को पढ़ा और समीक्षा भी लिखी, लेकिन यहाँ हमें सबसे बड़ा अंतर शिल्प के स्तर पर ही दिखाई दिया | एक तरफ इसमें दोहराव का संकट नहीं हैं तो दूसरी तरफ उबाऊपन से निजात दिलाते हुए लेखक ने गंभीर आलोचना की मांग की हैं| यह बात तो मैं जोर देकर कह सकता हूँ कि इसमें लेखक ने साफ-सुथरी भाषा का प्रयोग करके अन्य दलित आत्मकथाओं में एक दरजा ऊपर स्थान बनाते हैं| दूसरी बात यह है कि इसमें बीच-बीच में तुलनात्मक रूप से ऐतिहासिक उदाहरणों के माध्यम से इस भोगे हुए यथार्थ को एक ऐसी जमीन दी है, जिस पर उगी फसल आगामी आलोचकों के लिए एक सबक हो सकता है| अश्लील(यद्यपि कहीं-कहीं इसे ढककर ही बताते हैं) भाषा का अभाव, सामाजिक विचलन, छात्र की उत्कट लालसा इत्यादि इस आत्मकथा को न केवल हिन्दी अपितु मराठी आत्मकथा से अलग ले जाती है|
इतने बड़े लेखक के विरोध में विचार देने की साहस जुटाता हूँ तो कुछ बाते हम जैसे सामान्य समझ वाले को झकझोरने लगती है| सबसे पहली बात है कि-इसमें वह पुजैया के आयोजन के सन्दर्भ में कहते हैं कि-भतुआ अंदर से बिल्कुल लाल रंग का होता था| काटने से ऐसा लगता था कि मानो खून से लथपथ हो|"(मुर्दहिया, पृष्ठ-१९) हम तो अब तक यही जानते हैं, और देखें भी है कि भतुआ भीतर से सफ़ेद रंग का ही होता है, यह कौन सा भतुआ था(वह जिससे बनी मिठाई को आगरे का पेठा कहते हैं या कुछ और), यह हमें समझ में नहीं आया| हो सकता है ओझौती(वही पृष्ठ) करते समय वह लाल हो गया हो इसी कारण खून जैसे दिखता हो, जो भी हो यदि वहाँ भतुआ वास्तव में लाल रंग का होता हो तो ठीक है अन्यथा यह आत्मकथा को कमजोर बनाता है| जहाँ तक हमारी समझ है-मैं तो यही जानता हूँ कि आत्मकथा एक ऐसा दस्तावेज प्रस्तुत करती है, जिसमें न केवल उस लेखक के अपितु सामाजिक परिवेश की झलक तथ्यों से छेड़-छाड किये बिना व्यंजित हो|
अभी जारी है---

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