सोमवार, 13 मई 2013

विश्वग्राम और हम

विश्वग्राम  और हम

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साहित्य के लिए उर्वरा जमीन अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में भरपूर है | ऐसी जमीन का शहरों में मिलना मुश्किल है | क्योंकि देशी जमीन, देशी बीज, देशी खाद-पानी (लोक तत्व ) से तैयार फसल को काटने के बाद ही इसका एहसास होता है | यही कारण था कि-डा.सत्य प्रकाश मिश्र ने १९९९ में प्रेमचंद के माध्यम से लगभग इसी उद्देश्य की ओर इशारा कर चुके थे| उनका कहना था कि -देशी जमीन की सुगंध प्रेमचंद में मिलती है | इनमे और दूसरों में सबसे बड़ा अंतर यही है कि-अन्य लेखक जब कभी लेखकीय यात्रा शुरू करते थे तो, यात्रा करते समय स्टेशन पर जाते हैं और गंतव्य पर उतर जाते हैं, रास्ते में क्या हो रहा है क्या नहीं, उसकी पड़ताल भर करते हैं जबकि प्रेमचंद गंतव्य से उतरकर किसी पिछड़े गाँव में जाते थे और उस गाँव की किसी झोपड़ी में बैठ जाते और यही से उनकी वास्तविक यात्रा शुरू होती थी |प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि-क्या आज ऐसे तत्वों को कारगर तरीके से प्रस्तुत करने के लिए केवल कल्पना जरूरी है या यथार्थ की भी आवश्यकता है ? उदारीकरण और वैश्वीकरण से प्रभावित होकर तथाकथित विश्वग्राम भी उपर्युक्त तत्वों से लबालब भरा है, जरूरत है उसके खारेपन को दूर करने की |
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भारत में स्त्री मुक्ति और स्त्री स्वातंत्र्य की चर्चा अक्सर की जाती रही है | लेकिन पुरूष स्वातंत्र्य और पुरूष शोषण की बात करने में अक्सर कंजूसी बरती जाती है | इसका प्रमाण धारा ३७६ के दुरूपयोग से मिलता है | हमने इसे अपनी आँखों से देखा है | वाकया गाँव के प्रथम व्यक्ति से सम्बंधित है| पूरा गाँव उस व्यक्ति के समर्थन में अभी भी है लेकिन एक औरत ने उन पर आरोप लगाया है कि-अमुक व्यक्ति विगत तीन वर्षों से हमारे साथ सम्बन्ध बना रहा है | बात यहीं तक रहती तो इसे सत्य मानने में कोताही नहीं लेकिन उसने थाना-मजिस्ट्रेट के सामने अलग-अलग बयान दिया है | यहाँ तक कि-उसने ७० हजार रूपये और एक चेन की भी मांग अप्रत्यक्ष रूप से लगाया है |उत्तर प्रदेश पुलिस की बातें निराली है, बिना जाँच लिए इस घटना को सत्य मानकर ३७६ का आरोप तय कर दी | जबकि उस व्यक्ति से दूर-दूर तक उससे कोई सम्बन्ध नहीं | यहाँ तक कि-यह भी जानकारी मिली है कि-यहाँ जेल में इस मुकदमे में कुल ७०० लोग सजा भुगत रहें हैं, जिसमे नब्बे फीसदी पर झूठ-मूठ का आरोप है | क्या बच्चा, क्या जवान, क्या बूढा हर व्यक्ति इस समस्या से जूझ रहा है | कहावत सटीक है-एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है लेकिन जब तालाब का पानी सूख गया हो तो वह क्या कर सकती है | ऐसे ही हमारे समाज के रक्षक ही भक्षक बनकर पीड़ित को और पीड़ा पहुंचाते है तथा अपराधी स्वतन्त्र विचरण करते हैं | नारी की गरिमा और उसकी अस्मिता की पहचान उसकी आबरू से होती है लेकिन क्या यह घटना नये विमर्श की मांग नहीं करती |
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आज भी भारत के गाँव में रहने वाले कुछ लोगों के मन में जातिवाद वाला वायरस विद्यमान है | कल हमने यह महसूस किया | अभी भी ग्रामीण समाज में तीन तरह के लोग दिख जाते हैं |पहले जातिवाद को जहर की तरह घूँट-घूँट कर पीते रहते हैं | दूसरे इसमें अमृत घोलने का प्रयास करते है लेकिन तीसरा व्यक्ति न ही इसे विष और न ही अमृत मानता है अपितु तटस्थ भाव से मेलजोल बनाए रखते हैं | इसका एहसास मुझे कल हुआ-तिलक, शादी और खान-पान का संयोग तथा एक सज्जन का दोहरा चरित्र ऐसे उजागर हुआ , जिसका वर्णन लाजमी नहीं | उनका कहना था कि-(का कही अब त देहतियो में इ चमरा सब शहर बना देले बाड़े स, का जमाना आई गईल अब त कहीं खाए जाईल मुश्किल हो गईल बा, अब देख एक ही कुर्सी पर उहो खात रहल हा अऊर ओही पर हमनी के बईठे के पडल हा, हमर त मन रहे कि उठी के चली जाई} अब तो देहात और शहर में कोई अंतर ही नहीं | क्या जमान आ गया एक ही साथ सब लोग खाना खा रहें हैं | ऐसी संकीर्ण मानसिकता उस व्यक्ति के मन में आयी थी, जिसके घर में खाने को लाले पड़े हैं | इस सन्दर्भ में दलित साहित्य के विस्तार की आवश्यकता है क्योंकि शहर में लिखना और शहर में उस लेखन को भुनाना उचित नहीं | जब तक भारत के हर गाँव से इसे वास्तविक रूप मे नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इस विमर्श का आभासी चेहरा ही दिखाई देगा, जिस पर गुमान भर कर सकते हैं | सामाजिक परिवर्तन के लिए लोगों की भावनाओं में ऐसा संचार अपेक्षित है, जिसकी जरूरत भी है |
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वैश्वीकृत गाँव की हालत देखकर कभी-कभी रोना आता है क्योंकि यहाँ अब जहाँ भी जाएँ वह अधिकतर संख्या वृद्धजनों की दिखाई पडती है जिसका कारण गाँव से शहर की ओर पलायन की तीव्र गति को माना जा सकता है | ऐसी परिस्थिति में वह दिन दूर नहीं जब गोंव के अधिकाँश घरों में ताला लग जाएगा और देखते-देखते ये खँडहर में तब्दील हो जायेंगे   

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