सोमवार, 13 मई 2013

साहित्य की गिरती साख

 साहित्य की गिरती साख

'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित कमलेश जैन का लेख 'अपराध और यौन कुंठाओं का 'सारा आकाश' से राजेन्द्र यादव की मनोवृत्तियां उजागर होती हैं | बलौल जैन जी के कथन को अक्षरशः उद्घृत करने का साहस जुटाता हूँ तो एक अजीब सी सिहरन पैदा होती है | इसका कारण यही है कि-हिन्दी साहित्य में अपनी तथाकथित अमिट छाप छोड़ने वाले साहित्यकार का उद्देश्य क्या है ? वह कहती हैं कि-बचपन में संस्कृत की किताब में एक कहानी पढ़ी थी। शीर्षक याद नहीं लेकिन सारांश अब तक स्मृति में ताजा है। शिकार करने में अक्षम एक बूढ़ा बाघ शिकार को दबोचने के लिए एक नायाब नुस्खा अपनाता है। हाथों में सोने का कंगन लेकर और गड्ढा खोदकर उसे पत्तों से ढंक देता है। और वहीं बैठकर आने-जाने वाले लोगों को सोने के कंगन का लालच दिखा उन्हें अपने जाल में फंसाकर उनका शिकार करता है। 84 साल के वयोवृद्ध कथाकार-साहित्यकार राजेन्द्र यादव के लिए हिन्दी मासिक पत्रिका हंस वह सोने का कंगन है, जिसमें छपने का लालच दिखा वे नए लड़के-लड़कियों को अपने जाल में फंसाते हैं और फिर उनका शोषण करते हैं। इतना ही नहीं उनके व्यक्तित्व का पोस्टमार्टम करती हुई स्वस्थ व्यक्ति के विमार विचार को ‘बीमार व्यक्ति के बीमार विचार’ शीर्षक के एवज में लिखती हैं-मैंने पूरी किताब पढ़ी। बहुत कुछ छिपाने और झूठ लिखने के बावजूद जो कुछ कुंठा से भरे घड़े से छलक गया है, उसके मुताबिक राजेन्द्र यादव एक आपराधिक पृष्ठभूमि के यौन मनोरोगी हैं, जिनके जीवन की धुरी सिर्फ सेक्स और उससे जनित अपराध है। वे अपने घर में हुई हत्या, आत्महत्या में बराबर के भागीदार रहे हैं। आपराधिक न्याय का एक मशहूर सिद्धांत है- ‘दोज आर ओल्सो रेस्पॉन्सिबल हू वेट एंड वॉच’। यानी, अपराध होने में सहयोग करने वाले और अपराध के दौरान मौन सहयोग और स्वीकृति देने वाले लोग भी अपराध में बराबर के जिम्मेदार माने जाते हैं। इस तरह अपनी बहनों की हत्या और आत्महत्या में राजेन्द्र यादव भी बराबर के अपराधी हैं और उसी सजा के भागीदार हैं जो एक हत्यारे या आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले शख्स को मिलती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने में उनकी यह पुस्तक ही मददगार साबित होती है। राजेन्द्र यादव के मुताबिक उनकी चचेरी बहन रेवा अपने ही चचेरे भाई से गर्भवती हो गई थी और इसी वजह से उसे जहर दे दिया गया था। उसे राजेन्द्र यादव से शिकायत रही कि उन्होंने उसे नहीं बचाया। रूमानी अंदाज में अब वे खुद को उस हत्या का अपराधी मानते हैं। अपराधी तो उनका परिवार और वे हैं ही। वे गुनाह होने देने और गुनाह छिपाने के अपराधी हैं। आखिर क्या हुआ कि मामला पुलिस तक नहीं पहुंचा और सभी साफ-साफ बच गए। सभी जहर देकर हत्या करने और लाश को ठिकाने लगाने के अपराधी हैं। उनकी किताब ये भी बताती है कि उनकी बहन कुसुम ने भी जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। डॉक्टर पिता और पढ़े-लिखे सक्षम भाइयों के रहते विवाह न होने की वजह से उसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। राजेन्द्र यादव की ही स्वीकारोक्ति है, “चूंकि घर में ऐसा कोई नहीं था, जो बहनों की शादियों के लिए भागदौड़ करता, लड़के देखता या संबंध बनाने के लिए दुनिया भर की खाक छानता।” ये लोग खुद अपने अनगिनत संबंधों की तलाश में रेड लाइट इलाके से लेकर रानीखेत, अस्पताल और दुनिया-जहान का सफर करते हैं, पर बहनों और बेटियों के विवाह के लिए समय नहीं निकाल पाते। (पाखी ब्लॉग से आभार)
कमलेश जैन जी ने जिस मजबूती के साथ राजेंद्र यादव पर प्रहार किया है, यदि इसमें सच्चाई का अंश है तो साहित्य सहचर के लिए चिंताजनक है |

2
साहित्य में आलोचना को टीका-टिप्पणी के माध्यम से उजागर करना श्रेयष्कर नहीं | वह चाहेँ वाजपेयी बनाम प्रेमचंद हों या विजय बहादुर सिंह बनाम भारत भारद्वाज की टिप्पणी हों | प्रेमचंद की बातें वाजपेयी जी पर भारी पड़ती थी, इसमें संदेह नहीं | लेकिन आधुनिक समय में गुरू-शिष्य परम्परा में गुरू को उच्च से उच्चतम स्थान पर काबिज कराने के हथकंडों को आलोचना की अगली कड़ी के रूप में आत्मसात नहीं किया जा सकता |
ग़ालिब छुटी शराब को पढ़ने के बाद एक बात तो धडल्ले से कही जा सकती है कि-रवीन्द्र कालिया ने अपनी यात्रा(पंजाब, दिल्ली, मुम्बई और इलाहबाद ) में आने वाले हर पड़ावों की गहनता से पड़ताल करते हैं | साथ ही ऐसा कम ही देख्नने को मिलता है कि कोई भी साहित्यकार अपने यथार्थपरक जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करता है लेकिन कालिया जी ने इसमें शाराब को माध्यम बनाकर संस्मरण को जीवंत बना दिया है | बीच-बीच में आत्मकथा की सुगंध भी आती है | दूसरी बात ममता अग्रवाल(कालिया) को भी एक स्थल पर पाँच सितारा होटल में मधु जीवन के अहसास को हमारे समक्ष रखते हैं | परन्तु ममता जी की वजाय अपनी माँ को ज्यादा तरजीह देते हैं | इससे एक तरफ माँ के प्रति उनका प्रेम भाषित होता है तो दूसरी तरफ पत्नी प्रेम का भी भरपूर प्रमाण मिलता है
3
  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान  (सरकारी सेवा के बीस साल) मनुष्य अ...