मंगलवार, 30 जुलाई 2013

समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

(कथा साहित्य, दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और स्त्री विमर्श की पड़ताल )

डॉ. मनजीत सिंह

इंसान  काले-गोरे  के खेमे  में  बँट गया,
तहजीब के  बदन पे  सियासी  लिबास है।
रोटी के लिए बिक गयी ’धनिया’ की आबरू,
’लमही’ में  प्रेमचन्द  का  होरी  उदास है।(अदम गोंडवी)
    अदम गोंडवी ने भले ही धनिया के आबरू के बिकने और होरी की उदासी को सामाजिक रूप उद्घाटित करते हैं लेकिन इसका सीधा संबंध समकालीन साहित्य से निर्धारित होता है। क्योंकि साहित्य का समकालीन स्वरूप अंतर्विरोधों से परिपूर्ण है, इनमें कुछ ऐसा कड़वा सच है, जिसे आत्मसात् करना मुमकिन नहीं है। यहाँ विमर्श के बहाने ईर्ष्या-द्वेष, गोष्ठी के बहाने अंक बटोर, परिचर्चा के बहाने टीका-टिप्पणी कमोबेश सर्वत्र व्याप्त है। इसका दूसरा पहलू भी कम रोचक नहीं है, जिसे हम शहर बनाम गाँव, ग्लोबल शहर बनाम विश्वग्राम को केन्दं्र में रखकर सहजतापूर्वक विश्लेषण कर सकते हैं। इस संदर्भ में यह कहना में तनिक भी हिचक महसूस नहीं हो रही है कि-आधुनिक साहित्य शहरीकृत मानसिकता कि दबाव से छटपटाता हुआ नवीनता की मांग कर रहा है। आज जब कभी साहित्य की बात की जाती है तो इसकी शुरूआत महानगरों से होती है और वहीं यह समाप्तप्राय भी हो जाता है। इसमें न ही महानगरीय संस्कृति की जीवनशैली की यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत हो पाती है और न ही गाँव की सोंधी महक ही सुगंिधत करती है।
प्रसंगतः प्रश्न स्वाभाविक है कि-क्या महानगरों में परिवार को एक सीमीत संसाधनों के ऑकड़ों का सहारा लेकर विश्लेषण करना श्रेयष्कर है? इसका सीध एवं सरल उत्तर नकारात्मक होगा। इसके निमित्त मैं जब कभी कथा साहित्य(कहानी, उपन्यास) को पढ़ने का साहस बटोरता हूँ, (जो महानगरीय जीवन शैली पर केन्द्रित होती है।) तो एक ही स्वर, एक ही उद्देश्य, एक ही कथोपकथन  और कमोबेश एक ही शैली से मन खिन्न हो उठता है। महानगरों में मध्य वर्ग को ही इसके लिए सर्वथा उपयुक्त माना जाना उचित नहीं है। क्या शहरों में निम्न वर्ग नहीं? क्या प्रमचन्द द्वारा ग्रहीत गाँव-शहर को एक ही चरूमें से नहीं देखा जा सकता? प्रेमचन्द में इतना साहस था कि वह एक ही साथ होरी-धनिया-गोबर के साथ मिर्जा-मेहता-मालती को भी रखने का साहस किये थें। क्या आज ऐसा साहस किसी में है? शायद यही कारण था कि- अदम गोंडवी जी ने भी नया इतिहास लिखने की बात की थी-यथा-
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे।
हम अपने इस कालखंड का एक नया इतिहास लिखेंगे।

सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर,
उन दलितों की करूण कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे।

प्रेमचन्द की रचनाओं को एक सिरे से खारिज करके,
ये ’ओशो’ के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष्य लिखेंगे।
 इस प्रकार साहित्य के इस परिवर्तन में आधुनिक कहानियाँ खरी नहीं उतरती क्योंकि इन कहानियों पर पड़ते ग्लोबल प्रभाव को सहजता से आत्मसात् किया जा रहा है परन्तु ग्रामीण प्रभाव को अछूता करना साहित्य के साथ अन्याय है। इसके निमित्त यदि यत्र-तत्र प्रभाव दियाता भी है, तो वह यथार्थ से इतना दूर रहता है कि हमारे जैसा पाठक भी कभी-कभी सिर पकड़कर बैठ जाता है। क्योंकि इस गाँव को लेखक अपने ध्वनि प्रतीकों एवं कल्पनाओ से इतना ओत-प्रोत कर देता है कि-अन्ततः आत्मविश्लेषणपरक दुर्गध आने लगती है।    कहा जाता है कि-कहानी कला के बीच में लेखक या लेखिका की उपस्थिति कहानी कला की कसौटी का प्रमाण है। परंतु जब इनकी बेजा उपस्थिति से कथोपकथन और पात्रों का सेवाद प्रभावित होने लगे, तब यह कहानी कला की कमजोरी का द्योतक बनता है। कुछेक आलोचक इसे आत्मपरक विभाजन के रूप में स्वीकार्य करने की सतही सलाह भी देते हैं, जो हजम नहीं होता क्योंकि इससे आधुनिक गद्य की अन्य विधाओं पर खतरे की घंटी मंडराने लगती है। इस प्रकार सामाजिक सरोकारों के छलावे में एक अदना सा पाठक ही छला जाता है और वह उस तथाकथित सभ्य कीे जाने वाले समाज से स्व को कटा हुआ महसूस करते है।
कथा साहित्य में कहानी की ही भाँति उपन्यास का नवीन आवरण भी हैरतअंगेज सूरत प्रस्तुत करता है। इसके साज-सज्जा पर प्रकाशक अनायास धन की वर्षा करते हैं। लेकिन इसके शृंगार और कथावस्तु में सामंजस्य करना प्रेत की छाया छूने के बराबर है। सजिल्द-अजिल्द, शृंगारपरक ऐसे उपन्यास एक कमजोर कड़ी के रूप में प्रस्तुत होकर हमें चिढ़ाते हैं। लगभग ऐसा ही एक उपन्यास मुझे पढ़ने का अवसर मिला, इसे मजबूरी ही कह सकते हेै क्योंकि धन का मोह जो था! पढ़ता चला गया....प्रथम-द्वितीय से 107 पृष्ठ तक। लेकिन घोषित आत्मपरकता से मैं स्वयं भयभीत हों गया। यह भय न केवल उस लेखक से था अपितु प्रकाशक से भी रहा, जिसका संबंध साहित्य के आधुनिकतम स्वरूप से किया जाना लोहे के चने चबाने जैसा था। अक्सर यह देखने में आता है कि-जब भी आत्मप्रशंसा की बात आती है, तब लेखक के पास शब्दों का जखीरा जमा हो जाता है लेकिन परोपकार की बात आते ही उसके शब्दकोश के शब्द गायब हो जाते हैं और कल्पनाएँ सुषुप्तावस्था में चली जाती है। सोकर लिखने और लिखकर सोने में फर्क है। सोकर सपना देखते हैं, यह सपना उन्हीं चीजों से संबंधित होता है, जिससे प्रत्यक्ष में हमारा सामना हुआ हो। जबकि लिखकर सोना ही लेखकीय कौशल का प्रामाणिक नमूना बन सकता है। अतः मैं बोरिशाइल्ला’ के साथ आधुनिक उपन्यासों में एकाध को छोड़ शायद ही कोई उपन्यास होगा, जो आत्मपरक शैली के खाँचे में सटीक बैठे। यहाँ तक पेंच को जबरदस्ती कसना निंदनीय है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित-स्त्री और आदिवासी साहित्य की चर्चा न हो...यह असंभव है। प्रसंगतः यह कहना उचित है कि-दलित आत्मकथा, उपन्यास और कहानी पर भारी पड़ता है। क्योंकि इसमें ’स्व’ की पीड़ा उजागर होती है। लेकिन यह पीड़ा भी कभी-कभी अतिव्याप्ति दोष से बच नहीं पाती। जूठन, उचक्का, झोपड़ी से राजमहल तक, अपन-अपने पिंजरे इत्यादि गिनी चुनी आत्मकथाओं को छोड़ अधिकांश में यही दोष दृष्टिगोचर होता है। इसमें बचपन को तोड़ना-मरोड़ना, जवानी के साथ खिलवाड़ करना और बुढ़ापे के सहारे को भी अलग अंदाज में प्रस्तुत करना ठीक नहीं। क्योंकि एंेसी परिस्थिति में यहाँ भी काल्पनिक वर्चस्व हावी होकर पाठकों को हिमालय से चली शीतल बयार का अहसास होने लगता है। परन्तु यह हमें कभी नही भूलना चाहिए कि-जिस प्रकार हिमालय हमारे देश के लिए रक्षा कवच का कार्य करता है लेकिन इससे छेड़छाड़ विध्वश का कारक बनता है ठीक उसी प्रकार साहित्य में बाहरी प्रभाव(आत्मकथांक) रक्षक और भक्षक दोनों है। इसी प्रकार दूसरी ओर कुछ दलित-अदलित कहानिकारों को छोड़, शेष उसी लीक पर ही चलते दिखाई देते हैं। जबकि आधुनिक समय और समाज लीक से हटकर लेखन की मांग करता है, जो विशेष हो। लीक से दूर जाने में पाठकों से लेखक की सहभागिता और अंतर्संबंध अनिवार्य घटक बनकर नवीन उद्भावना करता है। परंतु वे बेचारों को....फटी-धोती, बिन-पनही और रीढ़ की हड्डी को छाती से चिपकाये गरीबों की गरीबी से किस कदर अपना संबंध स्थापित करें। इसका वास्तविक चित्रण तो अदम साहब ही करते हैं-
    आइए,  महसूस करिए  जिंदगी  के ताप को ं।
    मैं चमारों  की गली तक  ले  चलूँगा  आपको।

    जिस गली में भुखमरी की यातना से   ऊबकर।
    मर गयी है फुलिया बिचारी कल कुएँ में डूबकर।

    ×    ×    ×    ×    ×    ×    ×
    जुट गयी थी भीड़ जिसमें जोश का सैलाब था।
    जो भी था,  अपनी  सुनाने  के लिए बेताब था।   
लोग अपनी हाँकने में व्यस्त रहते हैं क्योंकि वह ठहरे शहरी। अतः अब तो यही कहकर संतोष करना पड़ रहा है कि-कल्पनाएँ यथार्थ तक पहुँचने का एक पतला-संकरा मार्ग भले बना लें, वह स्वतः यथार्थ नहीं बन सकती। जब बनने का प्रयास करेंगी तो वह फैंटेंसी में उलझकर स्वयं का रूप भी नहीं पहचान पायंेगी।
    समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श के आइने में उभरी तस्वीर कम विचारोत्तेजक नहीं। यहाँ तो मुद्रित और मौखिक माध्यमों में लगी होड़ से उत्तर-पूर्वी तथाकथित ’सबआल्टर्न साहित्य’ भी शर्म के मारे पानी-पानी हो जाय। श्लील-अश्लील बनाम मैत्रेयी-विभूति प्रकरण से लेकर हाल-फिलहाल दिग्गी के डिग्गी में सौ टके टंच की बात को कैसे भुलाया जा सकता है? भले ही राजेन्द्र यादव ’हासिल’ करने में दो कदम आगे निकल जायें। इस पर अदम जी की सटीक टिप्पणी दृष्टव्य है-
        टीवी से अखबार तक गर सेक्स की बौछार हो।
        फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो।

        बह गये कितने सिकंदर वक्त के सैलाब में,
        अक्ल इस कच्चे घड़े से कैसे दरिया पार हो।

और कहते हैं-

        एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें,
        झोपड़ी  से  राजपथ का रास्ता हमवार हो।।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है-क्या व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी को मुद्रित माध्यमों में भरपूर स्थान देकर झोपड़ी से राजमहल का रास्ता सहज हो सकता है? छोटी मुँह बड़ी बात का साहस तो कर नहीं सकता फिर भी थोड़ा साहस जुटाता हूँ तो यह तथ्य अनायास निकल जाता है कि-साहित्य व्यक्तिगत हित के निमित्त न होकर सार्वजनिक या सर्वजन होता है। अतः इसके मुख्य उद्देश्य का हनन स्वाभाविक है। पहले देखा जाता था, पढ़ा जाता था और अब लिखा जाता है तथा छापा जाता है। इस छाप को तूलिका के किसी भीरंग से भरकर रंगीन कर दिया जाता है। इतना भी ध्याान नहीं दिया जाता है कि-कौन सा रंगकृकिस रंग से मेल खाता है? गमगीन को भी चमेली के फूल से सुगंधित किया जाता है। ंऔर जहाँ सुगंध है उसे धूमिल किया जाता है। इस परिदृश्य में नारी जीवन को कठपुतली की तरह प्रस्तुत करना उचित नहीं। यह बात अलग है कि नारी की परछाई भी शक्तिस्वरूपा ब्रह्मनंद सहोदर से मेंल खाती है। यह माया भी है लेकिन आधुनिक नारियों की माया से अलग। जो लेखक वृंद सहजतापूर्वक इन रूपों को केन्द्र में रखकर लेखन कार्य में व्यस्त हैं उन्हें-साधुवाद।
    अन्ततः आदिवासी साहित्य के पल्ल्वन को शामिल करने में गर्व का अनुभव होना लाजमी है। लेकिन इस बिखरे और मौखिक रूप मंे हमें प्र्राप्त है। अधिसंख्य जनता न ही इसे पढ़ सकती है, न समझ सकती है। यहाँ अनुवाद के सहारे ही जीना मजबूरी है। लेकिन जहाँ तक मैं अपनी सीमा में रहकर जाना-पहचाना और कह रहा हूँ कि-यह साहित्य अपने मूल रूप् में वैसा नहीं जैसा पढ़ा या समझा जाता है या जबरिया समझने का प्रयास केया जाता है अपितु यह इससे भी बहुत आगे है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही हो सकता है कि-भारोपीय परिवार में हो, उरॉव, मुंडा की समझ रखने वालों की संख्या अत्यल्प है। जो लोग इसे समझने वाले हैं, उनमें अधिकांशतः महानगरीय जीवन-शैली से प्रभावित होकर वस्तुतः अपने मूल उद्देश्यों से लगभग दूरी बना रहें हैं। जबकि रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल आदि लेखिकावों में इसका पूर्ण परिपाक मिलता है। परंतु इस संदर्भ में एक प्रश्न लाजमी है-क्या आदिवासी साहित्य पर केन्द्रित महानगरीय गोष्ठियाँ उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में अपना योगदान दे सकती है? विगत वर्षों में हमने देखा कि- ऐसी गोष्ठियाँ अमरकंटक, डाल्टनगंज और उत्तर-पूर्व में हुई लेकिन छत्तीसगढ़ में नहीं। इसमें कोई दो राय नही ंकि इनमें नये-नये विचार आते हैं। कुछ नयी योजनाएँ भी बनती हैं। लेकिन तथाकथित अन्त्यज और गिरिजन कहे जाने वाले आदिवासी कितने शिरकत करते हैं। क्या इनके जीवन में अपेक्षित क्रांतिकारी परिवर्तन आया। यदि नही ंतो क्या इनके कारणों की खोज की गयीं? ये प्रश्न अभी भी अंधेरे में है और शायद भविष्य में भी ऐसे ही रहें।  इतना तो अवश्य है कि-इससे बड़े-बड़े आलेखों से संपादित पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा अवश्य बढ़ा रहें है। यह शोभा आथर््िाक संबल प्रदान करने में भी सहायक है। जबकि प्रयास तो यह होना चाहिये कि-इस सैद्धांतिक वर्चस्व को तोड़कर इसकी व्यवहारिक उपादेयता सिद्ध किया जाय। क्योंकि सिद्धांत ही व्यवहार पर हावी होकर तांडव नृत्य कर रहा है। हो सकता है नटराज के इस रौद्र रूप को देख कुछ लोग सहम जाय और कुछ बोलकर चुप  भी हो जाय । लेकिन इसकी टंकार बुत दूर तक सुनायी देंगी।
    ंअतः समकालीन साहित्य का पुनर्लेखन एक चुनौती से कम नहीं क्योंकि इसकी गद्दी पर विराजमान आकाआंे से भयभीत मन की कातर पुकार कोई नहीं सुनता। भले ही इसे अनसुना कर दिया जाय परंतु एक तथ्य स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि-साहित्य में आयी बाढ से खतरा भी है और लाभ भी। खतरा इस बात का हैकि कहीं यह तहरी न बन जाय और लाभ निःसंदेह साहित्यिक है।
(उपर्युक्त विचार लेखक के स्वयं के विचार हैं, इससे किसी भी समुदाय विशेष का योगदान नहीं। 30/07/13 )





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