बुधवार, 29 जनवरी 2014

सरकारी पत्रिका और समकालीन साहित्य का सच

सरकारी  पत्रिका और समकालीन साहित्य का सच 


आजकल का फरवरी 2014, अंक पढ़ना साहित्य को सरकारी पहनावे में देखने के बराबर है | इसे पढ़ने के बाद यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं हो रही है कि-साहित्य का सरकारी संसार भी सामाजिक प्रतिबद्धता को गहराई से पिरोने में कमोबेश सक्षम नहीं | कैलाश दहिया और फरहान परवीन का सम्पादकीय प्रयास तथ्यात्मक ज्यादा है और साहित्यिक कम...बहरहाल आवरण चित्र के लिए मानस रंजन जेना को साधुवाद | यदि इस अंक को साहित्यिक तराजू पर तौलते हैं तो पंकज बिष्ट का " राजेन्द्र जी के बहाने 'आजकल के दिन, विपुल ज्वाला प्रसाद की कहानी "सहारे की छड़ी", ज्ञान प्रकाश विवेक का "गजल में भाषा का प्रश्न", चंद्रशेखर नायर का साक्षात्कार और हिन्दी-मराठी कविता का तुलनात्मक अध्ययन पर केंद्रित "परख" तथा श्रद्धांजलि स्वरूप महासुन्दरी देवी पर लिखे गए संस्मरणों, आलेखों, कविता और कहानी तथा सुधीर निगम के व्यंग्य को आत्मसात करने में गुरेज नहीं |
साहित्यिक  पत्र-पत्रिकाओं में आलेख औपचारिक मानदंडों पर लिखकर नवीनता को समेटने का प्रयास करने लगती है ,तो दुःख होता है क्योंकि आलेख-शोध पत्र साहित्य का प्राण होता है, जिस पर भावी पीढ़ी खोजपरक अनुसंधान को अमली जामा पहनाती है परन्तु अपने पथ से इतर यह ण केवल नौकरी बचाने और अंक बटोरने का माध्यम बन चुका है अपितु यह पत्रिका का आर्थिक स्रोत बन चुका है | आखिर क्या कारण है कि-आधुनिक युग में बड़े लेखक अपना आलेख देने में टालमटोल करते हैं जबकि छोटे और चलताऊ लेखक अपनी व्यक्तिगत पुस्तकालय को भारी बनाकर उच्च शिक्षा को मजबूत करने की हिमायत करते हैं ? इसका सीधा-सरल उत्तर आजकल के अंक में "निर्मल वर्मा की कहानियों में आधुनिकता" विषय पर आशा शर्मा जी का लिखा लेख है | इस लेख की शुरूआत में लेखिका ने आधुनिकता की अवधारणा को निर्मल वर्मा के निर्मल व्यक्तित्व से जोड़कर कहती हैं कि-निर्मल वर्मा उन कहानीकारों में से हैं, जिनके लिए मानव संबंधों का उद्घाटन करना, मानवीय संवेदनशीलता का चित्रण करना एवं आज के युगबोध एवं भाव बोध का अंकन करना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना तथाकथित आधुनिकता के तत्वों की रक्षा करना, अनास्था एवं निष्क्रियता का स्वर उद्घोषित करना, पलायनवाद का प्रचार करना और प्रतिक्रियादी तत्वों का आश्रय देना है | इसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने नामवर सिंह का हवाला देकर अपनी स्थापना कर देती हैं | परन्तु ज्यो-ज्यों आलेख गति पकड़ता है..त्यों-त्यों इसकी क्षमता कमजोर होकर हमें यह कहने को मजबूर करने लगती है कि-वस्तुतः आशा शर्मा जी ने निर्मल वर्मा की कहानियों(यथा लवर्स, अमलिया,एक शुरुआत आदि) के मुख्य उद्धरण को छांटकर एक कोलाज की तरह प्रस्तुत करते हुए उन्होंने पुरानी परम्पराओं का ही निर्वाह किया है | 
अतः साहित्य की समकालीन सोच को कुरेदकर पाठकों के समक्ष रखकर नवीनता का आग्रह करने वाली पत्रिकाओं को पढ़ने के बाद दुखमिश्रित खुशी का होना लाजमी है |
क्रमशः

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