शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

भारतीय संदर्भ में विज्ञान की विगड़ती स्थिति: चिंतन और चुनौतियाँ

भारतीय संदर्भ में विज्ञान की विगड़ती स्थिति: चिंतन और चुनौतियाँ

डॉ0 मनजीत सिंह
                          
नजअ में मेरे मेरे एक दम ठहरो
दम अभी है हजार एक दम में।(गालिब)
    गालिब ने जिस आधार पर मृत्यु के समय तक जिस मनःस्थिति के निमित्त संघर्ष करते रहने की बात की है, वह वर्तमान संदर्भ में अपने पथ से विचलित होकर विकास के मार्ग पर चलकर नयी-नयी ऊँचाईयाँ छूने का प्रयास कर रही है। यह स्थिति कमोबेश समाज, राजनीति, अर्थ और विज्ञान में भी दिखाई देती है। जब हम भारतीय संदर्भ में विज्ञान की कसौटी पर इसे कसने का निरर्थक प्रयास करते हैं, तो तस्वीर साफ नजर आती है। वर्तमान समय में विज्ञान में शोध के नये-नये अवसर अनुपलब्ध होने तथा विगत दशको में भारतीय खोजों का वैश्विक आईना धुँधला हो जाने पर मठाधीशों में चिंता की लहर दौड़ जाती है। लेकिन यह चिंता कोई नये कारनामें करने में नाकामयाब रही है। इस संदर्भ में कुछ आवश्यक प्रश्न उठना लाजमी है-यथा-क्या कारण हैं कि हम वैश्विक स्तर पर दिन प्रतिदिन विज्ञान में पीछे होते जा रहे हैं? क्या शिक्षा का वर्तमान ढांचा इसके लिए जिम्मेदार है? क्या कारण है कि-रमन, बोस के बाद कोई भी भरतीय छात्र वैज्ञानिक सोच को विकसित करने में असमर्थ है?
    उपर्युक्त अनेक प्रश्नों के कारणों को शृंृंखलाबद्ध रूप में आकड़ों को आधार बनाकर उत्तर की तलाश करते हैं तो यही निष्कर्ष निकलता है कि-भारतीयों का विज्ञान में पिछड़ने का सबसे बड़ा कारण ’उच्च शिक्षा में समृद्ध करने वाले शोधपरक अध्ययनों तथा तकनीकी विकास में होने वाली गिरावटों के साथ ही संसाधनों की कमी के रूप में आत्मसात् किया जा सकता है। इसके अलावा आधुनिक समय में छात्रों में पैसा कमाने की ललक और इसके निमित्त उनके द्वारा किये जाने वाले सतही प्रयासों और त्वरित परिणामों(शार्ट कट) की चाह को भी  नकार नहीं सकते हैं, जिसके आधार पर वे अपने भविष्य का निर्माण करने की कवायद कर रहे हैं, जो निःसंदेह घातक है। इस संदर्भ में इंदिरा गाँधी द्वारा 1975 ई0 के नागपुर (प्रथम हिन्दी सम्मेलन) में दिये गये अभिभाषण स्मरणीय है, जिसमें उन्होंने वैज्ञानिक शोधों को क्षेत्रीय भाषाओं में आत्मसात् करने की बात की थीं। इस प्रकार छात्रों को बचपन से ही क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति मोहभंग को भी उपर्युक्त कथन से जोड़कर देखने की जरूरत है। उनका बचपन आंग्ल भाषाओं के नाहक बोझ तले सिसकियाँ लेता रहता और उन्हें चुप कराने की लोरियों में भी देशी गंघ नहीं होती अपितु इसमें भी विदेशी मानसिकता की सोची-समझी रणनीतियाँ स्पष्टतः झलकती है और दायरे को सीमित करती रहती हैं। इसे वे दबाव के रूप में महसूस करते हैं।
    ज्ञान-विज्ञान की बातें बचपन से लस्सी की तरह फेंटकर पिलाने के पीछे अभिभावकों की ख्वाईशों भले पूर्ण न हों छात्रों की मानसिकता संकीर्ण जरूर होने लगती हैं। इसका एहसास उन्हें स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय में पहुँचने के बाद तब होता है, जब समय निकल चुका होता है। कभी-कभी बतौर परीक्षक हमने छात्रों की मनोवैज्ञानिक सोचों को परखने का प्रयास भी किया और पाया कि-लगभग सभी छात्र-छात्राएँ एक ही उद्देश्य की ओर उन्मुख होकर मार्ग से भटकते हुए प्रतीत होते है और अपने लेखन में गाइड आधारित तथ्यों को ही तरजीह देते हैं। इस आधार पर कभी-कभार प्रथम आकर अपने परिवार और विद्याालय का नाम रौशन करने का प्रयास तो करते हैं परंतु शनैः शनैः नया करने की वजाय पुराने नियमों में अपने आपको बंधा हुआ पाते हैं, जिसका दुष्परिणाम न केवल बेरोजगारी के दंश के रूप में सामने आता है अपितु वे अपने ज्ञान का राष्ट्रीयकरण भी नहीं कर पाते हैं और अवसादग्रस्त होकर तीसरी दुनिया की तलाश में भटकते रहते हैं। इस परिस्थिति में उनके अंदर यह भावना कभी नहीं पनपती हैं कि-हमें डॉ0 सी0वी0रमन और जगदीशचन्द्र बोस से आगे या उनकी कतार में अपना नाम दर्ज कराना है। यहाँ तक वे अपीे आभा और चिंतन की सीमा को अवरूद्ध करते जाते हैं। इस प्रकार हम वैज्ञानिक संदर्भ में भारत की अंतरराष्ट्रीय पहचान कैसे दिला सकते है? यह एक सोचनीय प्रश्न है।
    प्रसंगतः राष्ट्रीय स्तर पर दी जाने वाली सुविधाओं के दोहन पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगना भी स्वाभाविक है। इसके आर्थिक पहलुओं की पड़ताल करने पर भवावह परिणाम सामने आते है, जिसके आधार पर विकास की बात सोचकर ही संतोष कर लेने में ही भलाई है। भले ही केन्द्र सरकार अपने बजट में मात्र दो फीसदी शोध को बढ़ावा देने के लिए प्रावधान रखी ह,ै लेकिन इसके दूसरी छोर पर स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालय में शिक्षा और शोध के नाम पर प्राप्त होने वाले धन के दुरूपयोग को ऊपरी तौर पर देखने से गंभीर परिणामों की नियति के कारणों का खुलासा हो जाता है। यहाँ तक कि प्राथमिक स्तर पर दी गयी आर्थिक सहायता तथा कर्मचारियों द्वारा किये जा रहे प्रयोग भी हमारे उपर्युक्त कथन को सिद्ध करने में सहायक है। यहाँ तक कि-अनेक प्रयोगशालाएँ ’’भूतहा घर’’ बनकर हमें दूर से ही चिढ़ाते हैं। इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या यह विज्ञान के नाम पर सरकारी धन का काले धन में परिवर्तन का अवैध तरीकों का परिणाम है? ऐसे में एक  रटी-रटाई पद्धति पर शोध करने का असफल प्रयास और प्रचुर संसाधनों पर रोक लगाना ही सबसे बड़ा अस्त्र हो सकता है। यदि समय रहते इस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में देशीय स्तर पर विकति विज्ञान सपना हो जाएगा और हमारे बच्चे विदेशी पद्धति के अन्धानुकरण से ऐसे तोते के रूप में विकसित होंगे, जो राम-नाम जपते-जपते अविरल गति से शून्य में विचरण करने में भी सक्षम नहीं होंगे।

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