रविवार, 29 दिसंबर 2019

परिवार के नये मानदंड

परिवार के नये मानदंड


वर्तमान समय में भारत का सामाजिक ढाँचा न केवल परिवर्तित हुआ है अपितु इनमें विद्रोह के नये स्वर दिन प्रतिदिन पनप रहे हैं । यह भारतीय समाज की सार्वभौमिक समस्या है, जिससे निजात मिलना लगभग मुश्किल है । इसके कारणों की समीक्षा करने से नवीन संस्कार फलित होते प्रतीत होते हैं । ये संस्कार संस्कृति के सोलह संस्कारों से इतर एक अलग एवं अनूठे प्रयोग की माँग करते हैं ।
इस प्रकार इस परिवर्धित संस्कार की रीढ़ में परिवार का आधुनिक ढाँचा ही विद्यमान है । यह ढाँचा कमोबेश "अहं" के साँचे में निर्मित होकर 'स्व' की पुकार से मजबूत होने की माँग करता है । क्योंकि अहं केवल रावण की जागीर नहीं रहा । इसका पूर्णतः भारतीयकरण हो चुका है । इसकी प्रतीति एवं व्याप्ति सर्वत्र है ।
उदाहरणस्वरूप हम किसी भी गाँव के कोने में बैठकर या घर-घर के आँगन से चलचित्र की भाँति फीचर निर्मित कर सकते है । इस संदर्भ में कोई जल्दी यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता कि हमारे घर के आँगन में तुलसी भी हरी भरी रहती है और गुलाब के पौधे भी खिलते रहते है जबकि ये खिलना एक कला है, जिसे कृत्रिम प्रकाश की जरूरत नहीं होती ।
हाल के दिनों में स्थिति अधिक गंभीर हो गयी है । क्योंकि हम विकासशील देश में निवास करते हैं । यहाँ आर्थिक संवृद्धि को बढ़ाने के लिए जूझ रहे हैं । हमारे यहाँ महँगाई-गरीबी-बेरोजगारी ऐसे बढ़ रही है, जैसे द्रोपदी की साड़ी । कहने के लिए सरकार अनेक योजनाएँ चला रही है । लेकिन इसका प्रत्यक्ष लाभ वाजिब हकदार को नहीं मिलता । जो अमीर वह वह अधिक अमीर बनकर सांसद-नेता बनने की कतार में खड़ा हो जाता है और  गरीब त्रस्त नयन से अश्रु जल धारा प्रवाहित करने को विवश होता है ।
अमीरी-गरीबी की इस खाई में गिरकर परिवार नामक आधुनिक यांत्रिक ढाँचा क्षतिग्रस्त होकर विलाप करने लगता है । सास-पतोहू-ननद के त्रिकोण में फँसा सामान्य व्यक्ति भी असामान्य होकर काँके की राह ढूढ़ने को मजबूर होता है अथवा ईहलीला समाप्त करने की ओर विवश होता है ।
पारिवारिक विचलन की भयावहता अमीरी-अमीरी में भी दृष्टव्य है । पति-पत्नी का रोजगार कब एवं किस परिस्थिति में काल से ग्रसित होता है । इसकी कल्पना से ही हृदय में कम्पन होने लगता है । कुछ वर्ष पहले हमारे करीबी के परिवार में घटी घटना उपर्युक्त कथन को सिद्ध करने में सहायक है । हमारा समाज क्रूर है । कुछ परिवार क्रूर है । नरम तो बस हमारा मन है, जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं ।
इस प्रकार निर्मित पारिवारिक मानदण्ड हमें सामाजिक विनाश की एक नयी इबारत लिखने को मजबूर करता है । यही कारण है कि धीरे धीरे लोग एकल से संयुक्त की यात्रा करने की आकांक्षा रखते हैं परन्तु आधुनिकता की चादर ओढ़कर तथा नया मुखौटा पहनकर पुनः स्व की गुफा में चक्कर लगाते रहते हैं । उन्हें भरोसा है कि आज नहीं कल, कल नहीं परसों या भले लग जाय बरसों..शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने को मिलेगा ही ।
आधुनिक पारिवारिक विचलन धार्मिक रूप में मजबूत कड़ी बनकर उपस्थित होता है । यह परिवार मंदिर-मस्जिद की उन्मुख होते दिखाई देते हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यही परिवार का धर्म हो या यही उसका यथार्थ हो अपितु यहाँ स्वार्थ की बदबू आती है । यहाँ दुःख तो सामान्य है ग्लानि-चिंता विशेष पद की अधिकारी बनकर नवनिर्माण करती है ।
बहरहाल अंत में यही कहने का साहस जुटा पाता हूँ कि-परिवार एक संस्था नहीं अपितु विचार है । ये विचार आपसी मेलजोल से बनते है और व्यक्ति को संस्कृत करके हमारी संस्कृति को नयी संजीवनी प्रदान करते हैं । सामाजिक संस्कार पारिवारिक संस्कार का पूरक है । जब परिवार बढ़ता है तो समाज बढ़ता है और दोनों मिलकर भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण बनाते हैं ।

           डॉ. मनजीत सिंह

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