रविवार, 28 नवंबर 2021

 एक दिन की तलाश में 

(बचपन याद आया )


जाड़े की ठिठुरन से 

मचान के चारो और लगे 

कंडे-बांस के छप्परनुमा दीवार 

हल्की पड़ती रही |


लौकी के ठट्टर के नीचे

नींद भी अबतलक

भाई-भाई को परेशान

करती रही |


बाबा ने कहा था-

बेटवा एक बात याद रखना

बचपन में ही हरेक कष्ट देख 

जीवन की नीव बनाते हैं ||


गाय के गोबर को भी 

सर पर उठाने में शर्म किसी ?

चलते-फिरते रहने से ही

आदत बनी रहती है ||


तभी हमने जाना 

जीवन में अंतर्विरोध 

सोते-जागते, हँसते-खेलते 

नहीं रहा गतिरोध ||


एक दिन की तलाश में 

लगाये रहा आश 

आएगा समय तो 

गढ़ दूँगा इतिहास ||


डॉ. मनजीत सिंह


29/11/2012

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