एक दिन की तलाश में
(बचपन याद आया )
जाड़े की ठिठुरन से
मचान के चारो और लगे
कंडे-बांस के छप्परनुमा दीवार
हल्की पड़ती रही |
लौकी के ठट्टर के नीचे
नींद भी अबतलक
भाई-भाई को परेशान
करती रही |
बाबा ने कहा था-
बेटवा एक बात याद रखना
बचपन में ही हरेक कष्ट देख
जीवन की नीव बनाते हैं ||
गाय के गोबर को भी
सर पर उठाने में शर्म किसी ?
चलते-फिरते रहने से ही
आदत बनी रहती है ||
तभी हमने जाना
जीवन में अंतर्विरोध
सोते-जागते, हँसते-खेलते
नहीं रहा गतिरोध ||
एक दिन की तलाश में
लगाये रहा आश
आएगा समय तो
गढ़ दूँगा इतिहास ||
डॉ. मनजीत सिंह
29/11/2012
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