शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

सामाजिक विभेदीकरण एवं परिवारवाद का नया स्वरूप

जब मनुष्य स्वयं निर्धारित परिवार के मानदण्डों से संचालित न होकर ज़बरदस्ती थोपी गयी नैतिकता के तहत परिवर्तित अवयवों को आत्मसात करता है तो वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षतः सामाजिक रूप में विचलन को न्यौता देता है । वह उस समाज का अंग होते हुए भी दूर होता चला जाता है और विभेदीकरण की नवीन संभावनाएँ जन्म लेने लगती हैं ।

समाज के इस बदलते स्वरूप को देखकर परिवार की दो धुरियाँ स्पष्टतः दृष्टिगत होती हैं । पहले भाग का पता व्यक्ति की मनोदशा से होता है जबकि दूसरे की पहचान लगभग नामुमकिन है क्योंकि यह अदृश्य संभावनाओं द्वारा संचालित होता है । इसमें कोई दो मत नहीं कि पहला व्यक्ति प्रत्यक्ष आधारित अनुमान का शिकार होता है जबकि दूसरा वातावरण एवं परिवेश के बल पर नये परिदृश्यों का गुलाम बनता है ।

इस आधार पर वर्तमान समय में परिवार के लोगों की मानसिकता का अनुमान लगाना बहुत आसान है क्योंकि कमोबेश भारतीय संस्कृति का कोई भी कोना इससे अछूता नहीं है । अधिकांश लोग इस संकीर्ण घेरे में कैद हैं। सबसे बड़ी बात है कि वह इस घेरे को बारम्बार तोड़ने का प्रयास भी करते हैं और हर बार असफल होते हैं । इस परिघटना का शिकार कथित बौद्धिक जमात भी हैं । वे मौन निमंत्रण को नीलकण्ठ की तरह धारण करके अलग रूप में दिखाई देते हैं ।

इस प्रकार समाज का हरेक वर्ग इस दुःख मिश्रित सुख से त्रस्त है । आज देश के सभी घरों में ग्लानि एवं पीड़ा में संघर्ष जारी है । इनमें कभी युद्ध की स्थिति हो जाती है तो कभी विचारों को आधार बनाया जाता है । परन्तु जीत हमेशा दुःख की ही होती है । यह दुःख बौद्ध से इतर त्रियग लोक में विचरण करने को विवश करता है । हम यह समझ नहीं पाते कि ये दुःख कब क्रोनिक बनकर भयानक कीड़े का सहारा लेकर विध्वंशकारी परिस्थितियों को सहजतापूर्वक आमंत्रित करता है ।

कहने का आशय यही है कि-शनैः शनैः सामाजिक स्तरीकरण की यह तस्वीर बहुत डरावना होने लगती है । इसका कारण यही है कि लोग स्वयं को उस सम्पूर्ण संसार का कर्ता मान बैठता है । वह उस जगह से चालित होता है जहाँ केवल काँटे ही काँटे होते हैं । वह जोड़ने की जगह तोड़ने की माया का शिकार होता है । वह समाज के उस कुत्सित वर्ग को प्रश्रय देता है, जिसने उसे इस विभेद का पर्याय बनने को विवश किया । इस प्रकार यह तीसरा वर्ग ही सर्वस्व होकर काली खोह में विचरण करने को उसे विवश करता है । कभी-कभी आत्मघाती प्रवृतियों के उजागर होने का सबसे बड़ा कारण यह भी  बनता है ।

इस स्वरूप का निर्धारण अचानक नहीं होता । यह बहुत लंबी प्रक्रिया का प्रतिफल होता है । यहाँ पहुँचकर परिवार का यह ठूँठ वृक्ष स्वयं को सर्वेश्वर मानकर स्पिनोजा को भी लज्जित करने लगता है । उसे केवल अपना चेहरा दिखता है । वह शकुनि के पाशे में इस कदर फँस चुका होता है कि यहाँ से निकलना उसके लिए असंभव हो जाता है । वह बैचैन मुद्रा में स्वयं को उस चाहरदीवारी में कैद मानने की भूल कर बैठता है, जिसका वह हकदार ही नहीं होता ।

प्रसंगतः कुछेक प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या वैश्विक दिखते ऐसे समाज का चरम एवं परम कभी आएगा ? क्या हमारा समाज आज के उस पारिवारिक चंगुल से मुक्त हो पायेगा ? क्या सचमुच यह पाताल में जा रहा है, जिसे कथित सुधारक विकास मानते हैं ? और अंत में क्या इसमें सुधार सम्भव है ? इन सभी प्रश्नों के उत्तर अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन इसकी परिणति एक ही मुहाने पर होती है । क्रमशः इन प्रश्नों पर शोधकर्ताओं की नजर से विचार किया जाय तो निम्न निष्कर्ष निकल सकता है-

1. वर्तमान वैश्विक समाज चरम पर विराजमान है क्योंकि इससे नीचे परिवार की कोई भी इकाई नहीं गिर सकती है । अब यह भी देखने में आया है कि परिवार की परमाणविक इकाई तंग होकर केंद्र की ओर अग्रसर है । दूसरे शब्दों में न्यूक्लियर परिवार अपना वर्चस्व खोता जा रहा है । वह उस वीरान मैदान में खड़ा है, जहाँ केवल अक्षोर क्षितिज ही दिखाई देता । यहाँ वह असहाय होकर खूब चिल्लपों मचाना चाहता है लेकिन वह कर नहीं पाता । इसका सबसे बड़ा कारण आंतरिक विचलन ही है। यह विचलन कभी ह्रदय को तो कभी मन को प्रभावित करता है । दोनों का समेकित प्रभाव नुकसानदायक ही होता है ।

2. इस प्रकार परिवार के बदलते ढाँचे से मुक्ति का सबसे बड़ा उपाय मनुष्य स्वयं ही है ।

3. इस तर्क से कोई भी समाज सुधारक इनकार नहीं कर सकता है कि वर्तमान समाज पाताल की अतल गहराईयों में गोता लगा रहा है । इसे यदि विकास माने तो बड़ी भूल होगी ।

4. इसमें सुधार सभव है लेकिन यह साधना बहुत मुश्किल है ।

5. समाज में प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व जब स्वयं के व्यवहारों से निर्धारित होने लगेगा तो निश्चित रूप में परिवर्तन की लहर प्रवाहित होगी । यह लहर समुद्र की सामान्य लहरों से भी तीव्र गति से बदलाव के लिए उत्तरदायी होंगी । इसके लिए निम्न सुझाव अपेक्षित है-यथा-व्यक्ति अपने व्यक्तिगत प्रयास को प्रभावी रखे । वह समाज के परंपरागत नियमों को पूर्णतः दरकिनार न करे अपितु इसे अपने अनुरूप स्वयं पर लागू करे । अंतिम सुझाव यही है कि-भारतीय समाज को घुन्न की तरह खाने वाले लोगों को कभी भी अहमियत देना साँप को गले लगाने से भी बदतर है ।

इन प्रयासों से साफ सुथरा भारत की असली तस्वीर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगती है, जिसका इंतजार क्या परिवार, क्या समाज.........इस लोकतंत्र का जन- जन सदियों से कर रहा है । यह यथोचित होगा-


बिल्कुल अभी नहीं
लेकिन
सबेरा होगा जरूर
चाँद भी मुस्करा कर
शीतल मंद बयार को
आने को विवश करेगा ।
सूरज भी अपनी लालिमा
वापस पाकर खुश होगा ।
चिड़िया लौट  जायेगी
..........................
जन्म-जन्मांतर का धुँध
छटेगा....
छटेगा....
बिल्कुल! बिल्कुल! बिल्कुल!

©डॉ. मनजीत सिंह
21/01/22

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