कहानी कला के प्रासंगिक उत्स
(सुधा कुलकर्णी की कहानियों से गुजरते हुए।)
हाल-फिलहाल सुधा कुलकर्णी को पढ़ने-समझने का अवसर मिला । यह तो सर्वविदित है कि भारत सहित विश्व में उनकी प्रतिभा व्यवसाय की बजाय साहित्य में अधिक निखरती रही है । हमें उनकी लोकप्रिय कहानियों से गुजरना बहुत सुखद लगा क्योंकि कुल इक्कीस कहानियों में उन्हें अनेक रूपों में पाते हैं । वह कभी आदर्श पुत्री, आदर्श शिष्या, आदर्श प्रेमिका, आदर्श पत्नी, आदर्श गृहिणी बनकर अपने पात्रों से वार्तालाप करके कहानी को सरस बनाती हैं तो कभी गुरू, समाज सेविका, सुधारक और कुशल व्यवसायी बनकर पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं ।
जब आपको दक्षिण में रहने का सुख मिले तो आपको सहज ही एहसास हो जायेगा कि भक्ति से लेकर सुधार की अनुगूँज पहले पहल वहीं क्यों सुनाई देती है । वहाँ के घरों में कहानी के ऐसे जीवंत पात्र अभी भी मिल जायेंगे, जिसे आधार बनाकर सुधा जी ने अपनी सृजनात्मकता को नयी गति देती आयी हैं ।
इसमें दो मत नहीं कि इन कहानियों में कथ्य की प्रमाणिकता स्वतः सिद्ध है क्योंकि इनकी कथावस्तु आत्मकथामक शैली में रचित है । इसे लेखिका स्वयं स्वीकार करती हैं । वह इसे अपनी डायरी के रूप में लिखित दस्तावेज मानती है ।
बहरहाल...यात्रा जारी है..शेष फिर कभी
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