शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||

 (पृथ्वी दिवस विशेष)


 घर-घर दीप जलाएँगे

    धरती माँ को बचाएँगे ।।


फोटो-साभार

जब कोई व्यक्ति अपने परिवार, समाज, सभ्यता एवं संस्कृति से दूर होता है तो उसके द्वारा एक नई दुनिया का निर्माण होने लगता है । वैश्विक प्रभाव से ऐसे नाभिकीय परिवार स्व की आभा से दीप्त होकर न केवल घर-परिवार से दूर होते जाते हैं अपितु अपनी जन्मभूमि से भी किनारे होकर परिधि पर एक नया संसार बनाने का प्रयास करते हैं । परन्तु वह संसार लाक्षागृह से भी कमजोर होता है । यही कारण है कि माँ एवं मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर माना गया है । प्रमाणस्वरूप (साभार) रामायण का जो संस्करण मद्रास की हिंदी प्रचार प्रेस ने 1930 में जारी किया था, उसके हिसाब से यह श्लोक इस तरह है:

मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव |

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||


इस संस्करण के मुताबिक ऋषि भारद्वाज ने राम को संबोधित करते हुए यह श्लोक कहा, जिसका अर्थ है मित्रों, धनवानों और अनाजों की इस संसार में बड़ी प्रतिष्ठा है, लेकिन मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं.


दूसरे पाठों के मुताबिक यह श्लोक लंका विजय के बाद राम ने लक्ष्मण को संबोधित करते हुए इस तरह कहा:

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते |

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||

इस संदर्भ में इस श्लोक का अर्थ है 'हे लक्ष्मण, यह लंका सोने की होने पर भी मेरी रुचि का विषय नहीं है क्योंकि मां और मातृभूमि ही स्वर्ग से बढ़कर हैं.' । अतः माँ एवं मातृभूमि दोनों की महत्ता स्वतः सिद्ध है । इसके साथ ही वैश्विक महामारी में प्रकृति के अनुरूप प्रत्येक व्यक्तियों का कर्तव्य नियत है परन्तु हम जिस स्तर पर स्वयं के विकास के निमित्त जागरूक रहते हैं । वैसी ही उदासीनता धरा के प्रति दिख जाती है । अतः वर्तमान समय में इसकी सुरक्षा जन-जन का उत्तरदायित्व है । इसके बिना हम न ही इस वैश्विक महामारी से सुरक्षित हो सकते हैं और न ही रोग प्रतिरोधक क्षमता ही बढ़ा सकते हैं । इस प्रकार हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या हरियाली को बरकरार रखना ही है ।

वर्तमान समय मे प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की घटनाओं के बढ़ने से अनियमित होते भू-स्थैतिक चक्रों को सहज ही आत्मसात किया जा सकता है । प्रसंगतः भूगोल विषय के स्थापित विद्वानों का स्मरण लाजमी है।  इनमें सविंदर सर एवं ओझा सर प्रमुख हैं । बात उन दिनों की है जब हम लोग अपने विभाग से भूगोल एवं अंग्रेजी विभाग की कक्षाओं में उपस्थित रहने का प्रयास करते थे । सर अक्सर भूगोल को सामान्य उदाहरणों से जोड़कर बहुत रोचक बना देते थे । वह पढ़ाते समय कुछ ऐसे प्रश्न पूछते थे, जिसके उत्तर को वर्तमानकालीक वैश्विक परिघटना के निमित कसौटी पर कसने का प्रयास करते हैं तो पृथ्वी की सुरक्षा खतरे में पड़ी जान पड़ती है । ऐसे ही प्रश्नों में एक प्रश्न यहाँ जायज है । ऐसी कौन सी दो जगहें हैं, जहाँ यदि कोई व्यक्ति टोपी पहनकर खड़ा हो तो वह उनमें से एक जगह गिर जायेगी । इसके उत्तर की तलाश में वे हिमालय की यात्रा कराते थे और उस समय जैसे हिमालयी चोटियों के विस्तार का सम्पूर्ण परिदृश्य आँखों के सामने दिखाई देने लगता था । हम जब कभी पृथ्वी पर भौगोलिक संकट को महसूस करते हैं तो निश्चित रूप में इसके अवस्थापना से जुड़े अवयवों की प्रतीति का एहसास होने लगता है ।


आज सुबह सबेरे विश्व पृथ्वी दिवस के अवसर पर पूर्व में किये गये आह्वान का सहज ही स्मरण लाजमी है-जन्म के समय वृक्ष लगाना । अक्सर देखते हैं कि-संतान के जन्म के समय माता-पिता उनकी शिक्षा-विवाह से लेकर घर तक की योजना के निमित्त धन जमा करने लगते हैं परन्तु प्रकृति के प्रति उदासीन रहते हैं, जो हमें जीवन देती है । हम यह क्यों नहीं सोचते कि-प्रकृति हमें देती है तो कुछ माँग भी रखती है । ऐसे में माँग-पूर्ति का नियम सर्वव्यापी बन जाता है । अतः हर-घर में जन्म के साथ वृक्ष लगाने का प्रण समय की माँग है । बिहार में एक गाँव है-नौगछिया(शायद लालू जी जन्म स्थल भी है) यहाँ हरेक बच्चे के जन्म के साथ नौ गाँछ(पेड़) लगाने की परंपरा अभी भी जीवित है । 


आंकड़े चीख-चीख कर बताते हैं कि-2020 तक 780 करोड़ पेड़ लगाना आवश्यक है । एक सर्वे के अनुसार दुनिया भर में अभी करीब 3 लाख करोड़ पेड़ है यानि औसतन प्रति व्यक्ति 422 पेड़ । लेकिन प्रति 2 सेकंड एक फुटबॉल मैदान के बराबर इन्हें बेदर्दी से काटा जा रहा है । यदि इसी क्रम में असन्तुल बरक़रार रहा तो विनाश निश्चित है ।


यह सार्वभौमिक सत्य बन चुका है कि-अत्यधिक विकास विनाश को आमंत्रित करता है । हम सड़के बना रहें हैं, शहरों से लेकर महानगरों को बढ़ा रहें हैं, जीवन-स्तर बढ़ा रहे हैं, गाड़ी चला रहे हैं, फ्रीज का खाते है,एसी में सोने को लालायित होते हैं? अंततः हम धरती के साथ दुश्मनी ही लेते हैं ।


आकड़ों पर विश्वास करें तो कार्बन उत्सर्जन में चीन, अमरीका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है । यदि यही क्रम जारी रहा तो स्वयं ही अपनी भावी पीढ़ी के गुनाहगार साबित होंगे । यह ऐसा अपराध होगा, जिसके निमित्त संविधान भी चुप होकर विलाप करने को मजबूर होगा । वह दिन दूर नहीं जब भविष्य में वैश्विक स्तर पर जमीन की जगह जल के लिए और परिवार की जगह पेड़ के लिए क्रमशः जल युद्ध और ग्रीन वार छिड़ जाय । आज हम अपने लिए हरियाली उजाड़ रहे हैं कल वह धरती के लिए हमें उजाड़ दे ।


प्रसंगतः सरकार की नीतियों को कागजों से जमीन पर उतरकर गाँव-गाँव, घर-घर दस्तक देना आवश्यक है । इसके लिए सरकार की ग्रामीण-शहरी विकास के माडलों में अप्रत्याशित परिवर्तन भी जरूरी है । इस सन्दर्भ में मित्र Sukhram Bhagat (भूगोल के विशेषज्ञ) का कहना उचित है कि-गाँवों से शहरों की ओर पलायन को रोकने के लिए हमें गाँव को शहर मानकर जीवन व्यतीत करना होगा तथा सरकार को भी शहरों से बाहर एक नया शहर विकसित करना होगा । भारत के कुछ राज्य इस पर अमल भी क्र रहे हैं-जैसे नया रायपुर, चंडीगढ़, सिकंदराबाद । लेकिन इसे सर्वत्र लागू करके धरती माता को जगाये रखा जा सकता है । 


भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ की खेती मानसून पर निर्भर रहती है । हमारे आर्थिक विश्लेषक मानसून को आधार बनाकर विश्लेषण करते है और शेयर बाजार में हलचल मचाते रहते हैं । परंतु जब हम धरती माता पर दबाव बढ़ाते हैं, कार्बन उगाहते हैं और मानसूनी जलवायु को कमजोर होकर अकाल में जीने को मजबूर करते हैं तो 1952 में नागार्जुन की लिखी कविता *अकाल और उसके बाद* के बिम्ब स्वतः विचरण करने लगते है-यथा-


कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की भई उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत हुई शिकस्त

दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद

धुँआ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद

कौवे ने खजुलाई पाँखें कई दिनों के बाद 

चमक उठी घर भर की आँखे कई दिनों के बाद ।


अतः यह तस्वीर भयावह हो सकती है क्योंकि अकाल से तप्त धरा अपना स्वरूप खोकर मानव जन समुदाय को उदासीन-नश्वर जीवन जीने को विवश करती है । अतः हमें धरती को बचाना है तो पारिस्थिकीय-पर्यावरणीय आवरण को सुरक्षित रखना होगा और जल-जंगल-जमीन की रक्षा का प्रण लेना होगा । अन्यथा हम उपभोग करेंगे और हमारी भावी पीढ़ी उपभोक्ता बनने को लालायित होती रहेगी । मिट्टी भी नसीब नहीं होगा जल तो इतिहास की किताब तक सीमित हो जाएगा या समस्त नीला ग्रह नील समुद्र में विलीन हो जायेगा । 


डॉ. मनजीत सिंह

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