रविवार, 14 अक्टूबर 2012

तंग गली का आख़िरी मकान

तंग गली का आख़िरी मकान 

 तंग गली में जीवन से हुआ 
साक्षात्कार-भेंट हुई ब्रम्ह से 
यह वही ब्रह्म था, जो 
भूख की तड़प से उत्पन्न हुआ|
वह पूछा-
क्यों परेशान हो भाई?
क्यों पहुंचे इस गली में ?
वह  तपाक से उत्तर दिया 
जैसे जले पर कोई नमक छिड़क दिया 
हम क्या इंसान नहीं है 
हमारे लिए मूलाधिकार नहीं है|
गरीबी की पीड़ा से हूँ मैं त्रस्त
ऐसे में आप कहते है
मैं हूँ बड़ा मस्त|
लेकिन  वह तो अनजान था 
अपनी ही धून में चला जा रहा था|
कभी कुढ़ता, परेशान हो जाता,
कुछ नया खोजने की ललक 
ठेले  लिए जा रही थी 
आख़िरी मकान की तरफ,
जहाँ अतीत से टकराकर 
वर्तमान भी चकनाचूर होने को
तत्पर  देख हताश होता,
बेचारा बोझ तले दबे
बार-बार दुहराता 
नजर आते ही मुँह छिपाता
लोगों का भय पीछा नहीं छोडता,
घर वापस आता ,
परिवार के भय से यह काम उसे 
जीवन  के संघर्ष में बहुत पीछे ले जाता|
प्रभु ने उसे ढाढस बंधाया
आज नहीं तो कल तुम्हारा समाया आएगा
अतीत-वर्तमान मिलकर एक हो जाएगा
बड़े-छोटे के भेद से समाज बारी हो जाएगा
तब जाकर बंद गली का 
आख़िरी मकान मिल पायेगा||


डा. मनजीत सिंह १३ अक्टूबर २०१२


तास के पत्ते 


ढह गयी मंजिल 
तास के पत्ते की तरह 
किसके हिस्से क्या मिला?
साहब. बीबी, गुलाम
एक्का, चौकी ,अठ्ठा या दहला|
साहब ने बीबी को 
बीबी ने गुलाम को 
एक्का ने चौके को 
दहला ने अठ्ठा को 
ऐसे कुचला कि 
सभ्यता में पहचान बनाने को 
बेकाबू पीड़ित जन भी 
आँखे छुपाने को मजबूर हुए,
अन्त में वही हुआ जिसका 
आभास करके शुरू हुआ था यह खेल
न कोई जीता न कोई हारा
हार गयी इंसानियत|
क्योंकि बनने की वजाय 
ढहने लगी वह मकान,
ईंट, सीमेंट, गारे से लिपटे
भरभराकर  गिरते मकान में
न साहब बचा न गुलाम |
अन्य मित्रों को बुलाने में 
कर दिया तास के पत्तों ने 
सबका जीवन निराकार||


डा. मनजीत सिंह १३ अक्टूबर २०१२

माँ  की गोंद में 

बच्चा बड़ा हो गया
माँ की ममता से दूर हो गया ,
आँचल  की छाँव पर 
पड़ने लगी है काली छाया
इसे  हटाने के प्रयास में 
युवा, धीरे-धीरे प्रौढ़ बन गया |
इस  प्रक्रिया में वह कब तक 
याद  करता 
क्योंकि  पड़ने लगी थी धूमिल
ममता की माया |
एक  समय था जब 
बिना  माँ के स्पर्श के 
न  सोता था न जागता था,
यह  क्या कम हैं कि ?
वयस्क  दौर तक वह याद करता रहा
ममतामयी आँसूओं को 
पोछने का प्रयास करता 
यही सोचता कि 
कब वह इसे पूरी तरह 
अपने  बचपन के समीप लाकर
कुछ नए तरीके से 
नए जमाने से रूबरू होकर
कर्ज के बोझ से मुक्त हो जाएगा|
लेकिन
जिसका उसे भय था 
वही बंधन ही बंधन का 
दुश्मन बनकर दहाडता
ललकारता उसे पीछे हटने पर
मजबूर करता |
बेचारगी की ले में वह
क्या करे! कहाँ छिपे!
पत्नी की ओट में
 मुरझाए फूल की तरह 
ऐसा बहाना बनाता जैसे
गलती उसकी नहीं अपितु
समय, समाज औ प्रकृति की हो!
जो भी हो, जैसे भी हो, जहाँ भी हो
समस्या आने पर भी 
वही माँ याद आती है |
भाई! प्रकृति का नियम है जो
समय परिवर्तित होता है |
परन्तु क्या इस परिवर्तन को 
स्वीकार करके वह जी सकेगा,
जीकर भी वह क्या कर सकेगा ?
भले ही वह यह कहते हुए सुना जाय
हरी  अनंत हरी कथा अनंता
पत्नी की महिमा सुनो हे सुनंदा |
इनकी  महिमा की पीड़ा अपरम्पार
अनंत सन्देश ने धूमिल कर दिया
ममता, मोह औ माँ की गोंद का 
सूना-सूना सचमुच संसार  |

डा. मनजीत सिंह १४ अक्टूबर २०१२





 




















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