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शनिवार, 31 अगस्त 2013

बजट : सबसे बड़ा रूपैया

बजट : सबसे बड़ा रूपैया


परिवार का बजट
महीने में एक बार
बनता है...........!
शेष दिनों में यह तो
केवल बिगडता है...!
सरकार का बजट
सालों भर बनता है
लेकिन
हर तीसरे महीने  के
अंत में प्रस्तुत होता है..!
समय बीतता जाता है
महीना-साल गुजरकर
बनती शताब्दी वर्ष को
दूर से ही चिढाता है ..!
सोना भी तो सिक्का बन
सरकार की शोभा बढाते हैं-
डालर-यूरो-पोंड-एन से
रोज ही दूरी बढाते हैं..!
सबकी हस्ती मिटती नहीं 
भारत की बस्ती में .....!
क्योकि वे गढते है कहानी
करोड़पति की मस्ती में ..!
वित्त-लोक से साझा करता
गटक जाते हैं सिक्का वे
कथनी-करनी; सूझ-बूझ का
देते है-टिक्का वे...!
आम बजट बना अब खास
गयी दिवाली होली में भी
नहीं आया मधुमास....!
गया बेचारा रूपया लेकर
रोज साँझ वह किसान
मजदूरी के प्रेम में
लंबी-चौड़ी फरमाईश में
गया बाजार लाई रस्सी
बजट की महिमा अपार है
बनते-रोज-रोज वह खस्सी |
खाकर-पीकर नेता आते
जेल में रहकर जीत ही जाते
लाल निशान होंगे भगवान
हो जाते हैं करूणानिधान |
क्रमशः

 डॉ. मनजीत सिंह
31/08/13

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

(कथा साहित्य, दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और स्त्री विमर्श की पड़ताल )

डॉ. मनजीत सिंह

इंसान  काले-गोरे  के खेमे  में  बँट गया,
तहजीब के  बदन पे  सियासी  लिबास है।
रोटी के लिए बिक गयी ’धनिया’ की आबरू,
’लमही’ में  प्रेमचन्द  का  होरी  उदास है।(अदम गोंडवी)
    अदम गोंडवी ने भले ही धनिया के आबरू के बिकने और होरी की उदासी को सामाजिक रूप उद्घाटित करते हैं लेकिन इसका सीधा संबंध समकालीन साहित्य से निर्धारित होता है। क्योंकि साहित्य का समकालीन स्वरूप अंतर्विरोधों से परिपूर्ण है, इनमें कुछ ऐसा कड़वा सच है, जिसे आत्मसात् करना मुमकिन नहीं है। यहाँ विमर्श के बहाने ईर्ष्या-द्वेष, गोष्ठी के बहाने अंक बटोर, परिचर्चा के बहाने टीका-टिप्पणी कमोबेश सर्वत्र व्याप्त है। इसका दूसरा पहलू भी कम रोचक नहीं है, जिसे हम शहर बनाम गाँव, ग्लोबल शहर बनाम विश्वग्राम को केन्दं्र में रखकर सहजतापूर्वक विश्लेषण कर सकते हैं। इस संदर्भ में यह कहना में तनिक भी हिचक महसूस नहीं हो रही है कि-आधुनिक साहित्य शहरीकृत मानसिकता कि दबाव से छटपटाता हुआ नवीनता की मांग कर रहा है। आज जब कभी साहित्य की बात की जाती है तो इसकी शुरूआत महानगरों से होती है और वहीं यह समाप्तप्राय भी हो जाता है। इसमें न ही महानगरीय संस्कृति की जीवनशैली की यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत हो पाती है और न ही गाँव की सोंधी महक ही सुगंिधत करती है।
प्रसंगतः प्रश्न स्वाभाविक है कि-क्या महानगरों में परिवार को एक सीमीत संसाधनों के ऑकड़ों का सहारा लेकर विश्लेषण करना श्रेयष्कर है? इसका सीध एवं सरल उत्तर नकारात्मक होगा। इसके निमित्त मैं जब कभी कथा साहित्य(कहानी, उपन्यास) को पढ़ने का साहस बटोरता हूँ, (जो महानगरीय जीवन शैली पर केन्द्रित होती है।) तो एक ही स्वर, एक ही उद्देश्य, एक ही कथोपकथन  और कमोबेश एक ही शैली से मन खिन्न हो उठता है। महानगरों में मध्य वर्ग को ही इसके लिए सर्वथा उपयुक्त माना जाना उचित नहीं है। क्या शहरों में निम्न वर्ग नहीं? क्या प्रमचन्द द्वारा ग्रहीत गाँव-शहर को एक ही चरूमें से नहीं देखा जा सकता? प्रेमचन्द में इतना साहस था कि वह एक ही साथ होरी-धनिया-गोबर के साथ मिर्जा-मेहता-मालती को भी रखने का साहस किये थें। क्या आज ऐसा साहस किसी में है? शायद यही कारण था कि- अदम गोंडवी जी ने भी नया इतिहास लिखने की बात की थी-यथा-
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे।
हम अपने इस कालखंड का एक नया इतिहास लिखेंगे।

सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर,
उन दलितों की करूण कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे।

प्रेमचन्द की रचनाओं को एक सिरे से खारिज करके,
ये ’ओशो’ के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष्य लिखेंगे।
 इस प्रकार साहित्य के इस परिवर्तन में आधुनिक कहानियाँ खरी नहीं उतरती क्योंकि इन कहानियों पर पड़ते ग्लोबल प्रभाव को सहजता से आत्मसात् किया जा रहा है परन्तु ग्रामीण प्रभाव को अछूता करना साहित्य के साथ अन्याय है। इसके निमित्त यदि यत्र-तत्र प्रभाव दियाता भी है, तो वह यथार्थ से इतना दूर रहता है कि हमारे जैसा पाठक भी कभी-कभी सिर पकड़कर बैठ जाता है। क्योंकि इस गाँव को लेखक अपने ध्वनि प्रतीकों एवं कल्पनाओ से इतना ओत-प्रोत कर देता है कि-अन्ततः आत्मविश्लेषणपरक दुर्गध आने लगती है।    कहा जाता है कि-कहानी कला के बीच में लेखक या लेखिका की उपस्थिति कहानी कला की कसौटी का प्रमाण है। परंतु जब इनकी बेजा उपस्थिति से कथोपकथन और पात्रों का सेवाद प्रभावित होने लगे, तब यह कहानी कला की कमजोरी का द्योतक बनता है। कुछेक आलोचक इसे आत्मपरक विभाजन के रूप में स्वीकार्य करने की सतही सलाह भी देते हैं, जो हजम नहीं होता क्योंकि इससे आधुनिक गद्य की अन्य विधाओं पर खतरे की घंटी मंडराने लगती है। इस प्रकार सामाजिक सरोकारों के छलावे में एक अदना सा पाठक ही छला जाता है और वह उस तथाकथित सभ्य कीे जाने वाले समाज से स्व को कटा हुआ महसूस करते है।
कथा साहित्य में कहानी की ही भाँति उपन्यास का नवीन आवरण भी हैरतअंगेज सूरत प्रस्तुत करता है। इसके साज-सज्जा पर प्रकाशक अनायास धन की वर्षा करते हैं। लेकिन इसके शृंगार और कथावस्तु में सामंजस्य करना प्रेत की छाया छूने के बराबर है। सजिल्द-अजिल्द, शृंगारपरक ऐसे उपन्यास एक कमजोर कड़ी के रूप में प्रस्तुत होकर हमें चिढ़ाते हैं। लगभग ऐसा ही एक उपन्यास मुझे पढ़ने का अवसर मिला, इसे मजबूरी ही कह सकते हेै क्योंकि धन का मोह जो था! पढ़ता चला गया....प्रथम-द्वितीय से 107 पृष्ठ तक। लेकिन घोषित आत्मपरकता से मैं स्वयं भयभीत हों गया। यह भय न केवल उस लेखक से था अपितु प्रकाशक से भी रहा, जिसका संबंध साहित्य के आधुनिकतम स्वरूप से किया जाना लोहे के चने चबाने जैसा था। अक्सर यह देखने में आता है कि-जब भी आत्मप्रशंसा की बात आती है, तब लेखक के पास शब्दों का जखीरा जमा हो जाता है लेकिन परोपकार की बात आते ही उसके शब्दकोश के शब्द गायब हो जाते हैं और कल्पनाएँ सुषुप्तावस्था में चली जाती है। सोकर लिखने और लिखकर सोने में फर्क है। सोकर सपना देखते हैं, यह सपना उन्हीं चीजों से संबंधित होता है, जिससे प्रत्यक्ष में हमारा सामना हुआ हो। जबकि लिखकर सोना ही लेखकीय कौशल का प्रामाणिक नमूना बन सकता है। अतः मैं बोरिशाइल्ला’ के साथ आधुनिक उपन्यासों में एकाध को छोड़ शायद ही कोई उपन्यास होगा, जो आत्मपरक शैली के खाँचे में सटीक बैठे। यहाँ तक पेंच को जबरदस्ती कसना निंदनीय है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित-स्त्री और आदिवासी साहित्य की चर्चा न हो...यह असंभव है। प्रसंगतः यह कहना उचित है कि-दलित आत्मकथा, उपन्यास और कहानी पर भारी पड़ता है। क्योंकि इसमें ’स्व’ की पीड़ा उजागर होती है। लेकिन यह पीड़ा भी कभी-कभी अतिव्याप्ति दोष से बच नहीं पाती। जूठन, उचक्का, झोपड़ी से राजमहल तक, अपन-अपने पिंजरे इत्यादि गिनी चुनी आत्मकथाओं को छोड़ अधिकांश में यही दोष दृष्टिगोचर होता है। इसमें बचपन को तोड़ना-मरोड़ना, जवानी के साथ खिलवाड़ करना और बुढ़ापे के सहारे को भी अलग अंदाज में प्रस्तुत करना ठीक नहीं। क्योंकि एंेसी परिस्थिति में यहाँ भी काल्पनिक वर्चस्व हावी होकर पाठकों को हिमालय से चली शीतल बयार का अहसास होने लगता है। परन्तु यह हमें कभी नही भूलना चाहिए कि-जिस प्रकार हिमालय हमारे देश के लिए रक्षा कवच का कार्य करता है लेकिन इससे छेड़छाड़ विध्वश का कारक बनता है ठीक उसी प्रकार साहित्य में बाहरी प्रभाव(आत्मकथांक) रक्षक और भक्षक दोनों है। इसी प्रकार दूसरी ओर कुछ दलित-अदलित कहानिकारों को छोड़, शेष उसी लीक पर ही चलते दिखाई देते हैं। जबकि आधुनिक समय और समाज लीक से हटकर लेखन की मांग करता है, जो विशेष हो। लीक से दूर जाने में पाठकों से लेखक की सहभागिता और अंतर्संबंध अनिवार्य घटक बनकर नवीन उद्भावना करता है। परंतु वे बेचारों को....फटी-धोती, बिन-पनही और रीढ़ की हड्डी को छाती से चिपकाये गरीबों की गरीबी से किस कदर अपना संबंध स्थापित करें। इसका वास्तविक चित्रण तो अदम साहब ही करते हैं-
    आइए,  महसूस करिए  जिंदगी  के ताप को ं।
    मैं चमारों  की गली तक  ले  चलूँगा  आपको।

    जिस गली में भुखमरी की यातना से   ऊबकर।
    मर गयी है फुलिया बिचारी कल कुएँ में डूबकर।

    ×    ×    ×    ×    ×    ×    ×
    जुट गयी थी भीड़ जिसमें जोश का सैलाब था।
    जो भी था,  अपनी  सुनाने  के लिए बेताब था।   
लोग अपनी हाँकने में व्यस्त रहते हैं क्योंकि वह ठहरे शहरी। अतः अब तो यही कहकर संतोष करना पड़ रहा है कि-कल्पनाएँ यथार्थ तक पहुँचने का एक पतला-संकरा मार्ग भले बना लें, वह स्वतः यथार्थ नहीं बन सकती। जब बनने का प्रयास करेंगी तो वह फैंटेंसी में उलझकर स्वयं का रूप भी नहीं पहचान पायंेगी।
    समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श के आइने में उभरी तस्वीर कम विचारोत्तेजक नहीं। यहाँ तो मुद्रित और मौखिक माध्यमों में लगी होड़ से उत्तर-पूर्वी तथाकथित ’सबआल्टर्न साहित्य’ भी शर्म के मारे पानी-पानी हो जाय। श्लील-अश्लील बनाम मैत्रेयी-विभूति प्रकरण से लेकर हाल-फिलहाल दिग्गी के डिग्गी में सौ टके टंच की बात को कैसे भुलाया जा सकता है? भले ही राजेन्द्र यादव ’हासिल’ करने में दो कदम आगे निकल जायें। इस पर अदम जी की सटीक टिप्पणी दृष्टव्य है-
        टीवी से अखबार तक गर सेक्स की बौछार हो।
        फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो।

        बह गये कितने सिकंदर वक्त के सैलाब में,
        अक्ल इस कच्चे घड़े से कैसे दरिया पार हो।

और कहते हैं-

        एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें,
        झोपड़ी  से  राजपथ का रास्ता हमवार हो।।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है-क्या व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी को मुद्रित माध्यमों में भरपूर स्थान देकर झोपड़ी से राजमहल का रास्ता सहज हो सकता है? छोटी मुँह बड़ी बात का साहस तो कर नहीं सकता फिर भी थोड़ा साहस जुटाता हूँ तो यह तथ्य अनायास निकल जाता है कि-साहित्य व्यक्तिगत हित के निमित्त न होकर सार्वजनिक या सर्वजन होता है। अतः इसके मुख्य उद्देश्य का हनन स्वाभाविक है। पहले देखा जाता था, पढ़ा जाता था और अब लिखा जाता है तथा छापा जाता है। इस छाप को तूलिका के किसी भीरंग से भरकर रंगीन कर दिया जाता है। इतना भी ध्याान नहीं दिया जाता है कि-कौन सा रंगकृकिस रंग से मेल खाता है? गमगीन को भी चमेली के फूल से सुगंधित किया जाता है। ंऔर जहाँ सुगंध है उसे धूमिल किया जाता है। इस परिदृश्य में नारी जीवन को कठपुतली की तरह प्रस्तुत करना उचित नहीं। यह बात अलग है कि नारी की परछाई भी शक्तिस्वरूपा ब्रह्मनंद सहोदर से मेंल खाती है। यह माया भी है लेकिन आधुनिक नारियों की माया से अलग। जो लेखक वृंद सहजतापूर्वक इन रूपों को केन्द्र में रखकर लेखन कार्य में व्यस्त हैं उन्हें-साधुवाद।
    अन्ततः आदिवासी साहित्य के पल्ल्वन को शामिल करने में गर्व का अनुभव होना लाजमी है। लेकिन इस बिखरे और मौखिक रूप मंे हमें प्र्राप्त है। अधिसंख्य जनता न ही इसे पढ़ सकती है, न समझ सकती है। यहाँ अनुवाद के सहारे ही जीना मजबूरी है। लेकिन जहाँ तक मैं अपनी सीमा में रहकर जाना-पहचाना और कह रहा हूँ कि-यह साहित्य अपने मूल रूप् में वैसा नहीं जैसा पढ़ा या समझा जाता है या जबरिया समझने का प्रयास केया जाता है अपितु यह इससे भी बहुत आगे है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही हो सकता है कि-भारोपीय परिवार में हो, उरॉव, मुंडा की समझ रखने वालों की संख्या अत्यल्प है। जो लोग इसे समझने वाले हैं, उनमें अधिकांशतः महानगरीय जीवन-शैली से प्रभावित होकर वस्तुतः अपने मूल उद्देश्यों से लगभग दूरी बना रहें हैं। जबकि रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल आदि लेखिकावों में इसका पूर्ण परिपाक मिलता है। परंतु इस संदर्भ में एक प्रश्न लाजमी है-क्या आदिवासी साहित्य पर केन्द्रित महानगरीय गोष्ठियाँ उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में अपना योगदान दे सकती है? विगत वर्षों में हमने देखा कि- ऐसी गोष्ठियाँ अमरकंटक, डाल्टनगंज और उत्तर-पूर्व में हुई लेकिन छत्तीसगढ़ में नहीं। इसमें कोई दो राय नही ंकि इनमें नये-नये विचार आते हैं। कुछ नयी योजनाएँ भी बनती हैं। लेकिन तथाकथित अन्त्यज और गिरिजन कहे जाने वाले आदिवासी कितने शिरकत करते हैं। क्या इनके जीवन में अपेक्षित क्रांतिकारी परिवर्तन आया। यदि नही ंतो क्या इनके कारणों की खोज की गयीं? ये प्रश्न अभी भी अंधेरे में है और शायद भविष्य में भी ऐसे ही रहें।  इतना तो अवश्य है कि-इससे बड़े-बड़े आलेखों से संपादित पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा अवश्य बढ़ा रहें है। यह शोभा आथर््िाक संबल प्रदान करने में भी सहायक है। जबकि प्रयास तो यह होना चाहिये कि-इस सैद्धांतिक वर्चस्व को तोड़कर इसकी व्यवहारिक उपादेयता सिद्ध किया जाय। क्योंकि सिद्धांत ही व्यवहार पर हावी होकर तांडव नृत्य कर रहा है। हो सकता है नटराज के इस रौद्र रूप को देख कुछ लोग सहम जाय और कुछ बोलकर चुप  भी हो जाय । लेकिन इसकी टंकार बुत दूर तक सुनायी देंगी।
    ंअतः समकालीन साहित्य का पुनर्लेखन एक चुनौती से कम नहीं क्योंकि इसकी गद्दी पर विराजमान आकाआंे से भयभीत मन की कातर पुकार कोई नहीं सुनता। भले ही इसे अनसुना कर दिया जाय परंतु एक तथ्य स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि-साहित्य में आयी बाढ से खतरा भी है और लाभ भी। खतरा इस बात का हैकि कहीं यह तहरी न बन जाय और लाभ निःसंदेह साहित्यिक है।
(उपर्युक्त विचार लेखक के स्वयं के विचार हैं, इससे किसी भी समुदाय विशेष का योगदान नहीं। 30/07/13 )





गुरुवार, 25 जुलाई 2013

हाय रे गरीबी

 हाय रे गरीबी 

तूने कहीं का न छोड़ी ..!

योजना आयोग की आँखमिचौली के खेल में गरीबों की गरीबी भी शरमा जाय | काश उनमें से किसी सदस्य और सरकार के कारिंदों को एक दिन के लिए 27 और 33 रूपये में पाँच सितारा होटल से विरत जीवन गुजारने का समय मिल जाता | यदि इतनी तीव्र गति से गरीबों (सात साल में 37.5 से 21.9-2004-05 से 20011-12) को देश से मुक्त करने में सफलता पाए गयी है(17 करोड) तो शायद जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है उससे तीव्रतर गति से गरीबों को रोटी, कपडा और मकान से परिपूर्ण करने में देर नहीं | बहरहाल यह गरीबों के साथ मजाक है...क्योंकि २०११ में 26 रूपये गाँव में और 32 रूपये शहर में निर्धारित आंकड़ों में एक रूपया जोड़कर नया आंकड़ा प्रस्तुत कर दिया गया | गेहूँ-चावल-चीनी-नमक-मिर्च-धनिया सहित सर्राफा बाजार के समस्त मदों में लगभग सौ फीसदी बढोत्तरी देखी गयी | यहाँ तक मुद्रा स्फीति और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में भी बढोत्तरी को महंगाई भत्ते से जोड़कर सहजता से आत्मसात किया जा सकता है |

जब से मेरा अर्थ से पाला पड़ा है तभी से आँकडे चौसर के पासे की तरह काम करते हैं...चाहें बजट हो, आर्थिक सर्वेक्षण हो या अब योजना आयोग हो | इस खेल में न जाने कई द्रौपदियों(क्योंकि महँगाई ऐसे बढ़ी है जैसे द्रौपदी की साड़ी ) को दाँव पर लगाया गया, न जाने कितने शकुनि मामाओं ने अपनी चाल खेली...इसका अंदाजा लगाकर संतोष भर किया जा सकता है..संतोषं परम सुखम | लेकिन क्या कभी हमारे सरकारी नुमाइंदे या स्वयं सरकार के संरक्षक कृष्ण का भेष धारण करके उनकी इज्जत बचाने का प्रयास कर रहें ? अब तो यही कह सकते हैं...ढाक के तीन पात हुए इस आँकड़ों से पुनः वही बात याद आ रही है....का बरखा जब कृषि सुखानी ...!! अब खेती भी सुख गयी और दो साल में केवल दो ही बूँ(द1+1) बारिश हुई..देंखे मूसलाधार बारिश कब होती है, जिससे किसानों के साथ ही मजदूरों का परिवार तरबतर होकर नहायेगा....छपाक..छप...छपाक..छप...छपाक..छप..करते-करते मन ऊब गया..!!

शुक्रवार, 7 जून 2013

आदिवासी संस्कृति एवं साहित्य में अभिव्यक्त नारी चेतना

आदिवासी संस्कृति एवं साहित्य में अभिव्यक्त नारी चेतना

(आदिवासी संस्कृति एवं साहित्य के परिप्रेक्ष्य में स्त्री विमर्श-विन्ध्य भारती (शोध पत्रिका), ISSN-0976-9986,  वर्ष-2011, (पृष्ठ-138 से 145 तक)सम्पादक-डा. सुधा तिवारी, प्रकाशक-अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा(म.प्र.)

-डॉ0 रावेन्द्र कुमार साहू                                                                   -डॉ0 मनजीत सिंह, हिन्दी विभाग 
हिन्दी विभागसहायक प्रध्यापक- हिन्दी विभाग                                 इलाहाबाद विश्वविद्यालय,इलाहाबाद
शास0 स्वशासी महाविद्यालय,सतना,म0प्र0

साहित्य में विगत तीन-चार दशकों से आदिवासी विमर्श को गति प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है लेकिन इनका मूल वेदों में निहित है, क्योंकि भारत में आर्यांे के आगमन के साथ ही अनार्यों का भी उल्लेख आता है। वस्तुतः यही अनार्य अर्थात् ‘‘दूसरे लोग‘‘ आदिवासी हुए, जिन्हें प्राचीन ग्रंथांे में भील, कोल, किरात, निषाद इत्यादि नामों से अभिहित किया गया। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूिम के तथ्यात्मक आधार की पुष्टि अंग्रेजों के प्रवेश और उनके द्वारा दी गयी संज्ञा ‘‘नेटिव ‘‘ या ‘‘ट्राइब‘‘ के रूप में मिलती है। यह शब्द भारतीय संविधान की उत्पत्ति के उपरांत ‘जनजाति‘ के रूप में प्रचलित हो गया।1 शब्दिक अर्थ में आदिवासी शब्द दो शब्दों ‘आदि‘ और ‘वासी‘ से मिलकर बना है, जिसका मूल अर्थ है-निवासी। संस्कृत ग्रंथो में ‘अत्विका‘ या ‘वनवासी‘2 (जिसे ज्ञानेन्द्र पाण्डेय ने भी पांचजन्य के ‘वीर वनवासी‘ अंक में आदिवासी की वजाय ‘वनवासी‘ कहा है।) भी कहा गया है। जबकि गाँॅंधी जी इन्हें ‘गिरिजन‘ कहा करते थे। सभ्यता निर्माताओं ने अंग्रेजी शब्द ‘ट्राइब‘ के मूल लैटिन शब्द ‘ट्राइबस‘ के रूप में व्यक्त किया है, जिसका प्रयोग रोमन राज्य में मूल त्रिपक्षीय जातीय विभाजन के लिए होता है। अनेक नृविज्ञानी  इसका प्रयोग ‘कुटुंब‘ के रूप में किया है।
प्रसंगतः रेमन्ड फर्थ का कहना है कि, ‘‘जनजाति एक ही सांस्कृतिक शृंखला का मानव समूह ह,ै जो साधारणतः एक ही भू-खंड पर रहता है, एक भाषा-भाषी है तथा एक ही प्रकार की परंपराओं एवं संस्थाओं का पालन करता है और एक ही सरकार के प्रति उत्तरदायी होता है।3 जबकि डी.एन.मजूमदार ने ‘‘जनजाति‘‘ को परिवारों का संकलन कहा है, जिसका अपना एक सामान्य नाम होता है, जिसके सदस्य एक निश्चित भू-भाग पर रहते हैं, सामान्य भाषा बोलते हैं, विवाह, व्यवसाय या उद्योग के विषय में कुछ निषेधों का पालन करते हैं तथा एक सुनियोजित आदान-प्रदान की व्यवस्था का विकास करते हैं। इस प्रकार इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया के अनुसार-‘‘जनजाति ऐसे परिवारों को सकंलन है। जिसका एक सामान्य नाम है, सामान्य भाषा है तथा जो सामान्य भू-भाग में बसे हुए अथवा उनमें बसे होने का दावा करते हैं तथा वे प्रायः अन्तर्विवाही नहीं होते, चाहे पहले ऐसी प्रथा उनमें पायी जाती रही हो।‘‘4 इस प्रकार आदिवासी कहने से एक ऐसे परिवार या समूह का बोध होता है, जिनकी स्व की भाषा, संस्कृति, एक सुनिश्चित भू-भाग होता है, जिसमें वे परम्परागत विधि-विधानों से परिपूर्ण ‘स्वतंत्र सुरक्षात्मक संगठन‘ के जरिये अपने समाज का संचालन करने में समर्थ होते है।
आदिवासी समुदाय न केवल भारतीय अवधारणा में है अपितु यह विदेशी मानसिंकता की भी उपज है क्योंकि वैश्विक स्तर पर वाइकिंग, गोथ और वैंडल (यूरोप), स्काइथियन तथा मंगोल (एशिया) एवं संयुक्त राज्य अमेंरिका के ‘नेटिव‘ भी बेहद चतुर, विनाशक और वर्चस्व के प्रतीक रहे। भारत के आदिवासी, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान , गजरात, आन्ध प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक तथा पूर्वोत्तर राज्यों में बहुसंख्यक है। इन पूर्वोत्तर राज्यों में गुरूंग, लिंबू, लेपचा, आका, डाफला, अबोर, मिरी, मिशमी, सिंगपी, मिकिर, राम, कवारी, गारो, खासी, नागा, कुकी, लुसाई, चकमा इत्यादि प्रसिद्ध हैं जबकि संथाल, मुंडा, उरांव, हो, भूमिज, खडि़या, बिरहोर, जुआग, खोंड, सवरा, गांेड़, भील, बैगा, कोरकू, कमार इत्यादि मध्य क्षेत्र में एवं भील, ठाकुर, कटकरी आदि (पश्चिमी क्षेत्र में) तथा चेंचू, कोंडा, रेड्डी, राजगांेड, कोया, कोलाम, कोटा, कुरूंबा, बडागा, टोडा, काडर, मलायन, मुशुवन, उराली, कनिक्कर इत्यादि दक्षिण क्षेत्र में निवास करते हैं।
यद्यपि इन आदिवासियों की सांस्कृतिक परंपरा भिन्न प्रतीत होती हुई भारतीय संस्कृति के रूप में प्रचलित है लेकिन कतिपय विधि-विधान हमें आधुनिक स्वरूप निर्धारित करने में सहायक है। इसी कारण समसामयिक आर्थिक शक्तियों तथा सामाजिक प्रभावों के कारण भारतीय समाज के इन विभिन्न अंगों की दूरी अब क्रमशः कम हो रही है। लेकिन यहॉं प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- आदिवासी समाज शेष भारतीय समाज से भिन्न क्यों है ? इसका सहज ही उत्तर दिया जा सकता है कि, ‘‘आदिवासी समाज का अन्तर्विरोध उन विसंगतियों का परिणाम है, जिनमें धार्मिक अंधविश्वास एवं सामाजिक कुप्रथाओं का विशेष योगदान है।‘‘ इन परिस्थितियों का विशेष वर्णन निर्मला पुतुल ने अपनी कविताअें में किया है। उन्होंनें आदिवासियों की खराब दशा, कुरीतियों के कारण बिगड़ती स्थिति, थोड़े लाभ के लिए बड़े समझौते, पुरूष वर्चस्व, स्वार्थवश पर्यावारण की हानि इत्यादि का सहज भाव से व्याख्या की है।5 इसी प्रकार आयता उरॉंव, सृष्टिधर, घासीराम, गौरंगिया, बुधुबाबु, रसिका, कानूराम देवगन, मेनेस राम ओडिया, रघुनाथ मुर्मू, प्यारा केरकेट्टा, इग्नेस बेक, जयपाल सिंह मुण्डा, लको बोदरा, नुअस केरकेट्टा  इत्यादि क्षेत्रीय लोक साहित्यकारों नें आदिवासियों को सामाजिक सांस्कृतिक पहचान दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
यदि हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में विचार करें तब विजय राघव रेड्डी के लेख  ‘आदिवासी साहित्य: विविध परिदृश्य‘ का स्मरण लाजमी है। रेड्डी जी ने लिपि की अनुपलब्धता और वाचिक शैली की प्रधानता को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए आदिवासी साहित्य को लोा साहित्य की श्रेणी में स्थान प्रदान कराते हुए, कल्पना की बजाय परिवेशगत यथार्थ को महत्व प्रदान किया है।6 क्योंकि इसमें उनकी परंपराएॅं, संस्कार, प्राकृतिक शोभा, सुख-दुख, आचार-विचार , रीति रिवाज, प्रतिबिम्बित ही नहीं होते प्रत्युत उनकी पारंपरिक सोच, मिथक व मूल्य भी व्यक्त होते है। अतः अनका अंतिम रूप से प्राप्त साहित्य भावनाओं से भरा होता है, जिनकी संवेदनाएंॅं यथार्थ का स्वरूप ग्रहण करती है। ऐसे साहित्य को ‘सबऑल्टर्न लिट्रेचर नाम दिया गया, जिसका अर्थ होता है- अधीनस्थ, मातहत, गौण, महत्वहीन, घटिया, निकृष्ट, अधोवर्ती, निम्न इत्यादि ।7 लेकिन क्या इस प्रकार के साहित्य को हासिए पर रखकर आदिवासी-नारीवादी, अल्पसंख्यक या दलितवादी विमर्श को गति मिल सकता है ? यदि इस प्रकार  के साहित्य को लोक साहित्य से जोडं़े तों सारे अन्तर्विरोध समाप्त हो जाते है।
अतः आदिवासी अस्मिता की मुख्य अभिव्यक्ति की पहचान समाज में नारी चिन्तन को रूप  प्रदान करने में निहित है। भले ही आदिवासी समाज वैश्वीकरण के आइने में अपना रूप ग्रहण नहीं कर पाता लेकिन महिला सशक्तिकरण की नीति उन्हें एक दरजा ऊपर स्थान प्राप्त कराने में सक्षम है। इस संदर्भ में संस्कृत की यह उक्ति सार्थक है कि, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता‘ अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती है वहॉंँ देवता रमण करते हैं। यदि शेष भारत मे नारियों के प्रति क्रांतिकारी बदलाव आधुनिक या कि उत्तर आधुनिक समाज की देन है तब आदिवासी समाज में यह परम्परागत उत्स के रूप में प्राप्त है। जब एक तरफ भूमंडलीकरण के दौर में सामंती विचारधारा की धज्जियॉंँ उड़ाती मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, उषाप्रियवंदा, मन्नू भंडारी इत्यादि नारी लेखिकाएॅंँ है,  तो दूसरी तरफ निर्मला पुतुल की यह कविता है, जिसमें पुरूष मानसिकता की पोल खुल जाती है- ‘‘क्या हॅूँ मैं तुम्हारे लिए/एक तकिया/कि कहीं से थका-मॉँदा आया/और सिर टिका दिया/कोई खँूूॅटी/कि ऊब उदासी थकान से भरी/कमीज उतारकर टॉँग दी/या आँॅंगन में तनी अरगनी/कि घर-घर के कपड़े लाद दिए/कोई घर/कि सुबह निकला/शाम लौट आया ?‘‘8
अतः आदिवासी साहित्य का सकारात्मक पहलू नारी संबंधी विचारो में दृष्टिगत होता है क्योंकि नारियों के प्रति उनका दृष्टिकोण समाज एवं संस्कृति में स्थान निर्धारित करते हुए वैश्विक स्तर पर टक्कर लेने के लिए पर्याप्त है। भले ही आदिवासी नारी पुरूष-प्रधान समाज का शिकार रही है, जिसमें उनकी आवधारणा इस रूप में स्पष्ट हो सकती है कि- पुरूष के टिकने के लिए स्त्री शायद ‘घर‘ हो सकती है, लेकिन स्त्री का अपना घर कहाँॅं ? क्या उसका अपना कोई घर है भी ? लेकिन निर्मला पुतुल ‘अपने घर की तलाश में‘ शीर्षक कविता के माध्यम से इस यक्ष प्रश्न की तलाश करती हुई कुछ इस प्रकार स्त्री की पीड़ा व्यक्त करती है कि -‘अदर समेट पूरा का पूरा घर, मैं बिखरी हूॅँ पूरे घर में/पर यह घर मेरा नही है ...........कही कोई मेरा घर नही होता/बल्कि मै हँॅू स्वयं एक घर/जहॉंँ रहते हैं लोक निर्लिप्त/गर्भ से लेकर बिस्तर तक के बीच/कई-कई रूपों में/............भागती/तलाश रही हँॅू सदियो से निरंतर/.........। इस प्रक्रिया में आदिवासी समाज और उसमें विकल स्त्रीमन अभी भी व्याकुल है। यदि एकांत श्रीवास्तव के लेख ‘तब से आज तक स्त्री‘ के वक्तव्य को व्यक्त करने का साहस जुटाता हँूॅ तो सहज ही उस मानसिक गुलामी को सलामी देने की प्रवृत्ति को बल प्रदान होता है, उनका कथन प्रसंगतः दृष्टव्य है कि, ‘‘कोई भी आन्दोलन, कोई भी नारा और कोई भी कानूनी अधिकार स्त्री को केवल एक झूठा आश्वासन भर दे सकता है और झूठी सुरक्षा भावना भी, लेकिन इससे उसके जीवन का अधंकार खत्म नहीं होता। जन्म के बाद से ही स्त्री का सहज, स्वाभाविक विकास तभी हो सकता है, जब इस पुरूष प्रधान समाज के घर-परिवार में और लोगों के हृदय में एक स्वतंत्र स्त्री की मजबूत और सम्मानजनक छवि बने। कानून यहॉंँ केवल सहायता कर सकता है। स्त्री के प्रति घर -परिवार और समाज के दृष्टिकोण को नहीं बदल सकता है। बहुत हद तक यह काम शिक्षा और साहित्य के द्वारा किया जा सकता है और किया भी जाता है।‘‘9
अतः आदिवासी संस्कृति की अंतर्धारा में भी नारी संवदेना की मार्मिक अभिव्यक्ति है। नारी का आर्थिक रूप से पुरूष पर निर्भर होना, उसकी सामाजिक दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है, यह तथ्य किसी न किसी रूप में उनके सम्पूर्ण साहित्य में विद्यमान है। ऐसे तो आदिवासी स्त्रियों की स्वंतत्रता और स्वच्छन्दता के मिथक और भ्रम का प्रचार खूब किया जाता रहा है लेकिन उनके समाज के भीतर भी कुछ ऐसे कड़े नियम और बटवारे हैं जो स्त्री को पुरूष से कमतर महसूस कराने के लिए गढे़ गए हैं। लेकिन कुछेक अपवाद आधुनिक भारतीय संस्कृति के विपरीत वैदिक परंपरा का स्मरण कराते है, जैसे -‘वर चुनने की स्वतंत्रता‘। इसमें वह न तो दंडित होती है और न ही दोषी करार दी जाती हैं।10 उनके यहाँ प्रचलित ‘घोटलू प्रथा‘ में वैदिक सस्कृति की  तरह एक प्रकार  के प्रशिक्षण स्थल का बोध होता है, जिसमें लड़के-लड़कियांँ साथ-साथ प्रशिक्षण ,  प्राप्त करते थे। यह बहुत कुछ ‘युवागृह‘ की तरह काम करता है। इसलिए भारत की अन्य स्त्रियों के विपरीत आदिवासी लडकियॉंँ स्वतत्रंतापूर्वक अपनी रजामंदी से विवाह करती थी, इस प्रथा में उनका प्रणय निवेदन प्रमुख है। इनका प्रमाण हमें पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम के दक्षिण पश्चिम सिरे पर निवास करने वाले ‘चकमा‘ के प्रणय गीतों से मिल जाता है। चकमा बौद्ध होते है और ये मंगोल प्रजाति के आदिवासी है-उनका एक प्रणय गीत हमारे इस कथन को सिद्ध करने में सहायक है- ‘नदी नाले और ताल-तलैया भर जाने से जैसे मछलियाँॅं खुशी से नाच उठती है, मेरी सजनी! वैसे ही तेरे हाथ से पान खाकर मेरा दिल नाचने लगता है‘, ‘जैसे पहाड़ी झरनों में मछलियॉँ खरपतवार के बिना जिंदा नहीं रह सकती ओ  मेरे प्रिये! वैसे ही तुझे देखे बिना मै एक पल भी जिंदा नहीं रह सकता।11 इसी प्रकार अरूणाचल प्रदेश के सियाङ जिले में निवास करने वाली आदि जनजाति का प्रणयगीत प्रसिद्ध है-
        रोम-रोम में बसकर प्रिय
        उस पार खड़े हो
        पर मेरे मन में बहुत निकट
        तुम दूर नहीं हो
        कोई अवरोध नहीं आ सकता
        हमारे मिलन में
        प्रेम हमारा शाश्वत और अमर है। 
इस प्रकार भारत का पूर्वोत्तर राज्य शेष भारत से भिन्न परंपरा को पल्लवित करता रहा है क्योंकि ‘मिजो‘ (मिजोरम की आवास भूमि) तथा ‘तांखुल समुदाय‘ (मणिपुर के पूर्वी दिशा में उखरूल जिले में निवास करने वाले) हमारे इसी कथन के साक्षी है । ‘तांखुल समुदाय‘ में अविवाहित लड़के-लडकियों के लिए बना शयनागार एवं परस्पर मिलने और विवाह तय करने की सुविधा उपर्युक्त तथ्य को सिद्ध करने में सहायक। इस संदर्भ में वियोग-संयोग की झॉंँकी निम्न कविता के माध्यम से बिम्बित होती है-‘‘ओह ! यह मेरा बुलावा है/बाँसुरी की आवाज आ रही है/उसके शयनागार से/मेरे अंदर वह प्रतिध्वनि गुज रही है/ हॉंँ एक साल पूरे एक साल तक/तुम्हें आयी नहीं याद मेरी/अब आए हो यहाँ /अब होगा सही मिलन।‘‘12 बाँसुरी की आवाज और नायिका की व्यथा का वर्णन हिन्दी साहित्य के कृष्ण भक्ति का काव्य का स्मरण कराता है। 
आदिवासी संस्कृति में उपर्युक्त स्थिति का वर्णन अपवादस्वरूप प्राप्त होता है, क्योंकि नारीवादी विमर्श में कुछ कड़े नियम उनकी विकृत मानसिकता को इंगित करते है-जैसे संपत्ति में हिस्सेदारी के संबंध में पुरूष वर्चस्व अभी भी कायम है। यह स्थिति सवर्ण स्त्री की पीड़ा व दर्द को व्यक्त करती है, जो लगभग सभी भारतीय भाषाओं में व्याप्त है। कुछ आदिवासी स्त्रियों की स्थिति इससे भी बदतर है। इस परिस्थिति का आकलन करते हुए विजय राघव रेड्डी जी ने स्त्रीवादियों के कथन को उद्घृत करते हुए कहा है कि, ‘‘पुरूषाधिपत्य से लाखों स्त्रियाँॅं दबी पड़ी हुई है। इनको केन्द्र में रखकर इनकी विमुक्ति के लिए जो कविताएंँ लिखी जाती ह,ै वे स्त्रीवादी कविताएँॅ है। लिंग-विवक्षा अर्थात् समाज में पुरूष का सम्मान और स्त्री का अपमान तथा लिंग-विभेदन अर्थात् समाज में पुरूष की भूमिका को श्रेष्ठ व महत्वपूर्ण और स्त्री भूमिका को हीन व महत्वहीन आंके जाने की अवधारणा को लेकर स्त्रीवादी साहित्य की विषयवस्तु का ताना बाना बुना हुआ है।‘‘ इस प्रसंग में सवर्ण नारी की स्थिति को दलित नारी की स्थिति से भिन्न मानते हुए उनकी परिस्थिति का वर्णन करते है,जिसमें आदिवासी नारी के हृदय की अंतहीन पीड़ा व्यंजित होती है। आदिवासियों की जागरूकता और उनकी पीड़ा का वर्णन उनके साहित्यों में आसानी से मिल जाता है। निर्मला पुतुल की कविता समाज के उन लोगांे के लिए ब्रह्मास्त्र का काम कर रही है, जो नारी के प्रति दोहरा चरित्र निजात करके पीड़ा को आंमत्रित करते है-‘और ये वे लोग है जो ........‘ कविता में पुरूष प्रधान समाज की पोल खोलती नारी का अंतर्मन व्याप्त है क्योंकि ‘ये वे लोग है जो मुझे देख/नॉँक भौं सिकोड़ते है/और गोरी चमड़ी से ढके चलते है। .............हमारे नाम पर लेकर-/गटक जाते है हमारे हिस्से का समुद्र।/जो मुँहं पर /करते हैं मेरी बड़ाई/और पीठ पीछे की/फुसफुसाहटों में देते है/बदनाम और बदचलन औरतों की सज्ञा।। .................और हमारी ही जमीन पर/खड़े होकर पूछते हैं हम से हमारी औकात!/‘ और अंत में इस कविता की नियताप्ति ‘कविता में भी देह के तलाश से होती है।‘13
आदिवासी साहित्य में नारी विमर्श को प्रमुखता से महत्व प्रदान करके पीड़ा को क्रांतिकारी स्वरूप देकर व्यक्त करने वाली कवयित्रियों में निर्मला जी के अतिरिक्त ‘खडि़या भाषा‘ की ‘वंदना टेट‘े का सफलतम प्रयास भी सराहनीय है। वंदना टेटे ने न केवल नारी आंदोलन के माध्यम से मुक्ति की कामना की है अपितु सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के माध्यम से आदिवासी संस्कृति को पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। ‘औरत‘ नाम से हिन्दी में अनुवादित कविता इन्हीं मानसिकताओं की पोल खोलती नजर आ रही है और औरतों को पुरूषो के विरूद्ध संघर्ष हेतु मोर्चा का आह्वान करती है-‘‘कई-कई मोर्चे पर खड़ी/लड़ रही औरत।/भीड़ में अकेली, अनवरत। थकती-टूटती/फिर मजबूर करती खुद को खुद से/खेतों, खलिहानों में/जंगल मरूभूमि में/घर में ऑँगन में।।/ तुम्हारी खींची लक्ष्मणरेखा/के खिलाफ/उसने बो दिये है संघर्ष बीज/और पिरो दिये है मधुर गीत/हताश होती है और उलाहाने देती/तुम्हारी नफरत भरी अवाज को/बना लिया है/उसने अपनी ताकत।‘‘14 इनके आलावा डॉं0 मंजू ज्योस्सा की कविता ‘विवाह‘ भी उल्लेखनीय है क्योंकि उन्होने  ‘नागपुरियॉ‘ लड़की के माध्यम से एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व कराया है, जिनका दामन माँॅं की ममता से उज्ज्वल रहता है और विवाह के नाम का भय उसे अंदर तक झकझोंर देता है। इसका प्रमाण हमें कुछ इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते है कि- ‘‘मॉंँ, पिता मेरी शादी मत करना क्योंकि मैनें ‘बुधनी‘ के जीवन  को देखा, वह रोज सबेरे भात पकाकर, बाल-बच्चे संभालकर, खेत में काम करती हैं। उसका पति हमेशा उसे प्रताडि़त करता है। अतः मॉंँ मुझे पराये घर न भेजना, मैं अपने भाई की तरह कमाऊॅंँगी। इतना ही नही ‘मंगरी‘ की जिदंगी उससे भी बदतर है, वह प्रातः घर के काम से निवृत्त होकर बच्चों के पालन-पोषण के लिए बॉँध पर काम करने जाती है, उसके पास संपत्ति के नाम पर कुछ नही, जबकि उसका उदंड पति लात मारकर, हंडि़या पीता है, मॉंँ मुझे कुएँॅ मंे ढकेल देना लेकिन शादी मत करना। इससे खराब स्थिति ‘सोमरी‘ की है क्योंकि उसे हर वर्ष संतान सुख भोगना पड़ता है उसका रसिक पति चरित्रहीन है, निर्लज्ज है। और अंत में हताश होकर कहती है कि-मॉंँ भले ही, मुझे मार डालना पर, मेरा व्याह मत करना।‘‘15
आदिवासी नारी का यथार्थ चित्रण उपर्युक्त उद्धरणों से सहज ही स्पष्ट हो जाता है भले ही एक तरफ लडकियाँॅं विवाह हेतु वर को चुनने के लिए स्वतंत्र हो लेकिन उनकी वास्तविक स्थित यही है। पुरूष के नाममात्र से भयातुर समाज का यह भाग आज भी मुक्ति की कामना हेतु विलाप कर रहा है। वस्तुतः आदिवासी साहित्य की प्राप्ति की सुगमता और इन्हें व्यापक स्तर पर पहँुॅचाना अपेक्षित है जो अनुवाद के माध्यम से ही संभव है। यदि दक्षिण, पश्चिम, मध्य और पूवात्तर भारत में रचित आदिवासी साहित्य का हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद करके सार्वजनिक किया जाय तो नारी हृदय की व्यथित पीड़ा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार साहित्य और भाषा के द्वारा आदिवासी जन की वास्तविक पहचान तथा प्रासंगिक स्थिति का एहसास हो सकता है क्योंकि नामवर सिंह ने भी कहा है कि ‘कविता किसी साहित्य की पहचान होती है जो कि वो जो बोलता है उसकी भाषा क्या है ? किस भाषा में बात करता हैं।‘‘16 इस प्रकार नारी मुक्ति आंदोलन को बल तभी मिलेगा जब परिस्थितिवश इस दृष्टि से परखते हुए उनकी संवेदनाओं को संपूर्ण भारतीय परिवेश में व्याप्त कराएगें। इस मुद्दे पर परम्परा , संस्कृति और समाज के भीतर पुरूष समाज से जिरह करते हुए समाजवादी विचारक लोहिया कें विचार उन आदिवासी नारियों के हृदय की पीड़ा को भी कम करने में सक्षम है क्योंकि उन्होनें समाज को आगाह करते हुए कहा था कि, ‘‘किसको पंसद करोगे। ऐसी औरत पंसद करोगे जो आपके प्रति अपना प्रेम, अपनी भक्ति, अपना आदर आपके मरने के बाद आपके शरीर के साथ या शरीर के बिना जलकर दिखाये या ऐसी औरत पसंद करोगे, जो आपके साथ-साथ या आगे-पीछे देश की रक्षा करते हुए खुद अलग से मरे ? ........... नारी को गठरी नहीं बनाना है परन्तु नारी को इतना स्वंय काबिल होना चाहिए कि वक्त पर पुरूष को गठरी बनाकर अपने साथ ले सके। 
दरअसल आदिवासी स्त्रियों पर कड़े नियम संपत्ति में हिस्सेदारी को लेकर है, इसलिए जनजातीय संस्कृति में महिला की स्थिति जानने के लिए उनकी पुरातन एवं आधुनिक स्थिति का अभिज्ञान आवश्यक है। वैसे तो कई आदिवासी समाज में मातृसत्ता विद्यमान है लेकिन अधिकांशतः जातियाँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विश्वास करती है, भले ही अनेक जगह सत्ता नाममात्र के लिए महिला के अधीन हो, लेकिन वास्तविकता पुरूष वर्चस्व के रूप में ही कायम है। प्रारंभिक समय में ‘समूह‘ के रूप में रहने से उपर्युक्त समस्या नगण्य थीं । उस समय जनजातियों के पितृप्रधान समाज में भी लड़कियाँॅं जब तक चाहे रह सकती थी। पति की मृत्यु के उपरांत भी उसकी जिम्मेदारी पिता या भाई की होती थी। जबकि हिस्सेदारी का प्रश्न ही नहीं था। अतः जंगल में निवास करने वाली जनजातियॉंँ स्वतंत्रतापूर्वक जीवन यापन करती थी। सच तो यह है कि आदिवासी स्त्रियॉंँ पुरूषांे से ज्यादा मेहनती थी लेकिन कालांतर में अंग्रेजों के आगमन और उनकी ‘फूट डालो और राज करो‘ की कारगर नीति ने आदिवासी समाज में सामंतवादी प्रवृत्ति को स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस समय जमींदारी प्रथा, भूमि-अधिग्रहण आदि बुराईयों ने अपना पॉंँच जमाना शुरू कर दिया । इस परिस्थिति में आदिवासी मुखिया या मॉँझी ने जमीन को अपने नाम करने में कोई कसर नही छोड़ी धीरे-धीरे उस अंतहीन शोषण की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी जिनका शिकार आदिवासी स्त्रियाँॅ हुई।
तदन्तर समूहिकता की बजाय वर्चस्ववादी एक नई प्रवृत्ति के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ और तब से लेकर आज तक नारी अन्याय की प्रतिमूर्ति के रूप में स्थापित होती चली गयी, जिसका वर्णन बिटिया मुर्मु ने कुछ इस प्रकार किया है कि, ‘‘स्त्री और पुरूष की शारीरिक बनावट के आधार पर काम में बटवारा समझ में आ सकता है, लेकिन आदिवासी पुरूष समाज ने कार्य का बटवारा शारीरिक बनावट या क्षमता के अधार पर न करके, स्त्री पर अधिकार जताने के दृष्टिकोण से, कड़े-कड़े नियम-कानून बनाकर उन्हें कुछ कामांे से वर्जित कर दिया, जैसे-हल चलाना, घर का छप्पर छाना या धनुष छूना अर्थात् जमीन और घर की परिभाषा में संपत्ति के प्रतीक है, पर आदिवासी पुरूष ही समाज का अधिकारी रहे हैं।‘17  इस संदर्भ में ‘अंगामी नागा समाज‘ में औरतों की वर्तमान स्थिति उल्लेखनीय है, क्योंकि ये औरतें कानूनी रूप से संपत्ति की अधिकारिणी नहीं होती हैं लेकिन घरेलू और व्यवहारिक स्थलों पर उनका महत्वपूर्ण स्थान होता है।18 लेकिन पैतृक संपत्ति में अधिकारी की मांग आदिवसी समाज में जोरों पर ह,ै जिसकी गँॅूज सुप्रीम कोर्ट तक सुनाई पड़ी।
आदिवासी पूर्वोत्तर भारत में सर्वाधिक मजबूत कड़ी के रूप में अपना प्रतिनिधित्व करते है, जहॉंँ मिशाल के तौर पर स्त्री-पुरूष में समानता विद्यमान है। वहॉंँ के खासी, गारो, बोडो तथा मिजो समाज में पक्षपातपूर्ण रवैया नहीं अपनाया जाता है। खासी जनजाति का सामाजिक संगठन मातृसत्तात्मक सिद्धांत पर आधारित है। खासी कई गोत्रों में विभक्त है। प्रत्येक की उत्पत्ति किसी महिला पूर्वजों के नाम से  संबधित रहती है। खासी ऐसी महिला की पूजा करते है। गोत्र को खासी भाषा में ‘शिकुर‘ और उसके सदस्यों को ‘‘का लाकेई‘‘ की संज्ञा दी गयी है।19 प्रत्येक शिकुर परिवार में विभक्त होता है। पुत्रियॉंँ, उसकी मॉंँ, सभी एक परिवार और मकान में रहते है। शादी के बाद पति ही अपनी पत्नी के घर रहने जाता है। परिवार की संपत्ति की उत्तराधिकारी गारो की भाँंति पुत्री ही होती है। परन्तु गारो जनजाति में माता-पिता की इच्छानुसार यह विधान प्रचलित है, जिसे ‘‘का खछुह‘‘ कहा जाता है।20 यह स्थिति समाज में महिलाओं को एक दरजा ऊपर स्थान प्रदान करती है यहाँ तक कि धार्मिक उत्सवों, परिवार के अन्य निर्णयों में पुत्री को महत्व देना, इसी कथन को सिद्ध करने में सहायक है। परंन्तु इसका अर्थ यह नही कि समाज में औरतों को एकाधिकार प्राप्त हो। वस्तुंतः पिता ही परिवार का मुखिया होता है। इसके अतिरिक्त विधवा-विवाह की मनाही, तलाक प्रथा का प्रचलित होना तथा गोद लेने की प्रथा का प्रचलन, सामाजिक स्वरूप को अधिक संबल प्रदान करता है, जिससे स्त्रियॉंँ अपने हक के निमित्त क्रांति करने का अधिकार रख सकती है।
यदि ‘अंगामी नागा जनजाति‘ की स्त्रियों पर विहंगम दृष्टि डालते है तब वहॉंँ प्रत्येक दृष्टिकोण से स्त्री अपने पति की सहयोगिनी है और प्रत्येक क्षेत्र में दोनो मिलकर काम करते हैं। आर्थिक मामलों में एक-दूसरे की सहायता करते है, कन्या-मूल्य, आधुनिक दहेज प्रथा का पूरक है। नैनीताल के तराई में फैली ‘थारू जनजाति‘ में महिलाओं की स्थिति का ब्यौरा वहॉंँ प्रचलित विवाह के प्रकारों से मिलता है क्योंकि स्वभाव से, स्त्रीभक्त, परंपरावादी रूढि़वादी और अंधविश्वासी प्रतीत होते है। इनके विवाह अन्य जनजातियों से अलग है। वहाँॅं ‘खासी विवाह‘ या ‘धर्म विवाह‘, ‘खर्चा विवाह‘, ‘चुटकुटा‘, ‘उखरा विवाह‘ या ‘प्रेमविवाह‘, ‘पति-भ्राता विवाह‘ तथा ‘साली विवाह‘ प्रचलित हैं। ‘खासी विवाह‘ में विवाह का प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से रखा जाना तथा वधू पक्ष द्वारा इच्छानुसार चयन करना, ‘ब्रहम विवाह‘ के समकक्ष है । इसके अतिरिक्त विवाहों में वधू-मूल्य देना, पुनर्विवाह का प्रचलन आज के सामाजिक स्तरीकरण ओर नारी पीड़ा को कमतर करने में सहायक है।
हिन्दी साहित्य में पूवोत्तर इलाकों को प्रस्तुत करने में अग्रणी अज्ञेय ने अपने संस्मरण तथा कहानियों के माध्यम से समाज, संस्कृति, प्रकृति परंम्परा और मानसिकताओं की मौजूदगी दर्ज करायी है। इनमें ‘जयदोल‘, ‘हीली-बोन की बतखे‘, ‘मेजर चौधरी की वापसी‘, ‘नंगा पर्वत की एक घटना‘ तथा ‘नीली हंसी‘ जैसी कहानियाँॅं और तीन संस्मरण ‘परशुराम से तुरखम‘, ‘मॉँझुली‘ और ‘बहता पानी निर्मला‘ आलोच्य युग में विवेच्य है। उन्होंने इनकी संस्कृति में पुराण एवं नदी सभ्यता को आधार बनाया है, क्योंकि नदी अपने आप में एक संस्कृति होती है और अपने आसपास रहने वाले लोगांे की जीवन-पद्धति निर्धारित करती है। उन लोगांे के बाहरी रहन-सहन को ही प्रभावित नहीं करती अपितु उनकी संपूर्ण मनोभूमिका के निर्माण में योगदान देती है। ‘गंगायाम् घोषः जैसी उक्ति अथवा सिंधुं या नाइल जैसी नदी सभ्यताएॅंँ इसका प्रमाण है। ब्रह्मपुत्र बहुत विशाल नदी है, जिसमें अनेक द्वीप है इनमें से एक है मॉँझुली ।21 इस प्रकार अज्ञेय ने ब्रह्मपुत्र नदी के आस-पास निवास करने वाले लोगो, जनजातियो का जो लेखा-जोखा अपने संस्मरण में प्रस्तुत किया है, वह आदिवासी साहित्य और संस्कृति के विकास की गाथा का बयान करता है। इन संस्मरणों में ‘होली बेन की बतखें‘ खासी समाज के स्त्री प्रधान जाति संगठन, समाजिक सत्ता में उसका अनुशासन, कनिष्ठतम लड़की को उत्तराधिकार का नियम, खासिया घरो की बनावट,नाड्.-क्रेम के नृत्योत्सव, प्रकृति उपसाना, जनजातीय लोगों की वन्य पशुओं-पक्षियों के प्रति संवेदना आदि जैसी पूर्वी जीवन की अनेक बारीकियों से परिचय कराती है।22 और उनका उत्तर औपनिवेशिक परंपरा से जोड़ना भी एक सार्थक प्रयास कहा जा सकता है।
इस भूमंडलीकरण के दौर में एक तरफ भारतीय संस्कृति की वैश्विक पहचान बनाने में स्त्रीयॉं अगली पक्ति में शामिल होने को तत्पर हैं लेकिन दूसरी तरफ न केवल भारत अपितु विश्वस्तर पर ये जनजातियॉँ अपने विकास और सर्वहितकारी स्वरूप को प्राप्त करने के लिए विवश है। इनके विकास का मार्ग अवरूद्ध करने में ईसाई मिशनरियों का भी योगदान रहा, जो व्रितानी अलगाववादी नीति का परिणाम थी, जिसे नेहरू जी ने भी स्वीकार किया था कि, ‘‘ब्रिटिश अफसरों ने या कभी-कभी वहॉंँ जा बसे पादरियों ने आदिवासियों के मन में उल्टी बातें भर दी थी।‘‘23 वस्तुतः स्वतंत्रता के पश्चात् आदिवासी विकास के निमित्त कभी भी स्थायी और सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया। यद्यपि नेहरू ने कुछ प्रयास करते हुए कहा कि हम आदिवासी क्षेत्रों के मामले को दिशाहीन भटकाव की स्थिति में नहीं रहने दे सकते है................आज की दुनिया में न यह संभव है और न वह वांँछनीय ही है। परंतु इसके साथ ही हमें इन क्षेत्रों के अतिप्रशासन के जोखिम से भी बचाना होगा। हमें इन दो सीमांतों के बीच मध्यमार्ग बनाकर काम करना होगा। आदिवासी समाज को उनकी अपनी जातीय चेतना के अनुरूप विकास का मार्ग निर्धारित करने में सहायता दी जानी चाहिए । विकास के कार्य के लिए आधुनिक भारी भरकम संस्थाओं को उन पर थोपने की बजाय उनकी अपनी संास्कृतिक और सामाजिक परंपरा के संबंध में भी राष्ट्रीय नीति अत्यंत संवेदनशील रही है। जबकि गोविंद वल्लभपंत ने सलाह दी थी कि-‘आदिवासियों के रीति-रिवाजों और आमोद-प्रमोद की रीति-नीति को अनावश्क रूप से इतना न बदला जाय कि उनकी अपनी कोई पहचान ही न रह जाय। ऐसा कोई भी प्रयास ग्रामीण एवं शैल वनों के जीवन से उसके रंग और वैविध्य को समाप्त करना होगा।23
अंततः भले ही भारत के सविधान में जनजातियों को प्रचुर स्थान मिला है लेकिन उनकी स्थिति विकसित समाज से भिन्न है और इस समाज में नारी की संवेदनाएॅँ पीडि़त और स्वतंत्रता की तलाश में व्याकुल है। हो सकता है कि भविष्य में नारी अस्मिता में एक ऐसी क्रांति आये जिससे सामाजिक समरसता कायम हो । इस परिस्थिति में भले ही इस शिव- धनुष के टूटने पर समाज के परशुराम रूपी परम्परिक चेतना वाले हंाहाकार मचाये लेकिन नई राम चेतना उस धनुष की टंकार सुनने में अक्षम होगी और आदिवासी समाज में स्त्री की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जायेगी। 
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सन्दर्भः-
1.    उपाध्याय विजय शंकर, वर्मा विजय प्रकाश -भारत की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिंन्दी ग्रंथ अकादमी,  
पंचम   आवृत्ति: 1998, पृष्ठ-1

    2.     ळण्च्ंदकमलरूभ्पदकने ंदक वजीमतेरूजीम उपससपजंदज  बवदेजतनबजपवदरू म्बवदवदवउपबंस ंदक चवसपजपबंस ूममासल ए 28ण्12ण्1991 चण्3003ण्
  3   उपाध्याय विजय शंकर, वर्मा विजय प्रकाश-भारत की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिंन्दी ग्रंथ
       अकादमी, पंचम आवृत्ति: 1998, पृष्ठ -1
  4.     वही, पृष्ठ-2
  5.     आरोह-भाग 1, एनसीईआरटी, प्रथम संस्करण, 2007, पृष्ठ -108
  6.     बहुवचन, अंक 25 ,अ0-जू0, 2010, सं0-राजेन्द्र कुमार, पृष्ठ-95
  7.    वहीं, पृष्ठ -95
  8.   ’साहित्य अमृत’,संपादक, त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, मई 2011,, वर्ष 16, अंक 10, पृष्ठ-66
  9.   वही , पृष्ठ-66
  10  कथादेश , मई  2010 अंक, पृष्ठ-26
  11.  बहुवचन, अंक 25 ,अ0-जू0, 2010, सं0-राजेन्द्र कुमार, म0गा0अं0हि0वि0वि0, वर्धा प्रकाशन पृष्ठ-97
  12  वही , पृष्ठ-99
  13.  वही , पृष्ठ-110
  14.  वही , पृष्ठ-110
  15.  वही , पृष्ठ-112
  16. बहुवचन संयुक्तांक अंक 26,27 संपादक-ए0 अंरविदाक्षन, म0गा0अं0हि0वि0वि0 , वर्धा प्रकाशन, जुलाई-सितम्बर    
        2010, अक्टूबर -दिसम्बर 2010, पृष्ठ-10 
 17.   कथादेश, मई 2010 अंक,  पृष्ठ-27
18.   उपाध्याय विजय शंकर, वर्मा विजय प्रकाश -भारत की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिंन्दी ग्रंथ अकादमी, पंचम
     आवृत्ति: 1998, पृष्ठ -62
19.   वही, पृष्ठ-65
20.   वही, पृष्ठ-66
21.  ’साहित्य अमृत’, अज्ञेयजन्मशती अंक संपादक, डॉ0 लक्ष्मीमल्ल सिघंवी, अक्टूबर 2010, वर्ष 16, अंक 3, पृष्ठ-109
22.   वही, पृष्ठ-111
23.   उपाध्याय विजय शंकर, वर्मा विजय प्रकाश-भारत की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिंन्दी ग्रंथ अकादमी, पंचम
      आवृत्ति: 1998, पृष्ठ -50
24.   वही, पृष्ठ-91

सोमवार, 13 मई 2013

साहित्य की गिरती साख

 साहित्य की गिरती साख

'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित कमलेश जैन का लेख 'अपराध और यौन कुंठाओं का 'सारा आकाश' से राजेन्द्र यादव की मनोवृत्तियां उजागर होती हैं | बलौल जैन जी के कथन को अक्षरशः उद्घृत करने का साहस जुटाता हूँ तो एक अजीब सी सिहरन पैदा होती है | इसका कारण यही है कि-हिन्दी साहित्य में अपनी तथाकथित अमिट छाप छोड़ने वाले साहित्यकार का उद्देश्य क्या है ? वह कहती हैं कि-बचपन में संस्कृत की किताब में एक कहानी पढ़ी थी। शीर्षक याद नहीं लेकिन सारांश अब तक स्मृति में ताजा है। शिकार करने में अक्षम एक बूढ़ा बाघ शिकार को दबोचने के लिए एक नायाब नुस्खा अपनाता है। हाथों में सोने का कंगन लेकर और गड्ढा खोदकर उसे पत्तों से ढंक देता है। और वहीं बैठकर आने-जाने वाले लोगों को सोने के कंगन का लालच दिखा उन्हें अपने जाल में फंसाकर उनका शिकार करता है। 84 साल के वयोवृद्ध कथाकार-साहित्यकार राजेन्द्र यादव के लिए हिन्दी मासिक पत्रिका हंस वह सोने का कंगन है, जिसमें छपने का लालच दिखा वे नए लड़के-लड़कियों को अपने जाल में फंसाते हैं और फिर उनका शोषण करते हैं। इतना ही नहीं उनके व्यक्तित्व का पोस्टमार्टम करती हुई स्वस्थ व्यक्ति के विमार विचार को ‘बीमार व्यक्ति के बीमार विचार’ शीर्षक के एवज में लिखती हैं-मैंने पूरी किताब पढ़ी। बहुत कुछ छिपाने और झूठ लिखने के बावजूद जो कुछ कुंठा से भरे घड़े से छलक गया है, उसके मुताबिक राजेन्द्र यादव एक आपराधिक पृष्ठभूमि के यौन मनोरोगी हैं, जिनके जीवन की धुरी सिर्फ सेक्स और उससे जनित अपराध है। वे अपने घर में हुई हत्या, आत्महत्या में बराबर के भागीदार रहे हैं। आपराधिक न्याय का एक मशहूर सिद्धांत है- ‘दोज आर ओल्सो रेस्पॉन्सिबल हू वेट एंड वॉच’। यानी, अपराध होने में सहयोग करने वाले और अपराध के दौरान मौन सहयोग और स्वीकृति देने वाले लोग भी अपराध में बराबर के जिम्मेदार माने जाते हैं। इस तरह अपनी बहनों की हत्या और आत्महत्या में राजेन्द्र यादव भी बराबर के अपराधी हैं और उसी सजा के भागीदार हैं जो एक हत्यारे या आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले शख्स को मिलती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने में उनकी यह पुस्तक ही मददगार साबित होती है। राजेन्द्र यादव के मुताबिक उनकी चचेरी बहन रेवा अपने ही चचेरे भाई से गर्भवती हो गई थी और इसी वजह से उसे जहर दे दिया गया था। उसे राजेन्द्र यादव से शिकायत रही कि उन्होंने उसे नहीं बचाया। रूमानी अंदाज में अब वे खुद को उस हत्या का अपराधी मानते हैं। अपराधी तो उनका परिवार और वे हैं ही। वे गुनाह होने देने और गुनाह छिपाने के अपराधी हैं। आखिर क्या हुआ कि मामला पुलिस तक नहीं पहुंचा और सभी साफ-साफ बच गए। सभी जहर देकर हत्या करने और लाश को ठिकाने लगाने के अपराधी हैं। उनकी किताब ये भी बताती है कि उनकी बहन कुसुम ने भी जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। डॉक्टर पिता और पढ़े-लिखे सक्षम भाइयों के रहते विवाह न होने की वजह से उसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। राजेन्द्र यादव की ही स्वीकारोक्ति है, “चूंकि घर में ऐसा कोई नहीं था, जो बहनों की शादियों के लिए भागदौड़ करता, लड़के देखता या संबंध बनाने के लिए दुनिया भर की खाक छानता।” ये लोग खुद अपने अनगिनत संबंधों की तलाश में रेड लाइट इलाके से लेकर रानीखेत, अस्पताल और दुनिया-जहान का सफर करते हैं, पर बहनों और बेटियों के विवाह के लिए समय नहीं निकाल पाते। (पाखी ब्लॉग से आभार)
कमलेश जैन जी ने जिस मजबूती के साथ राजेंद्र यादव पर प्रहार किया है, यदि इसमें सच्चाई का अंश है तो साहित्य सहचर के लिए चिंताजनक है |

2
साहित्य में आलोचना को टीका-टिप्पणी के माध्यम से उजागर करना श्रेयष्कर नहीं | वह चाहेँ वाजपेयी बनाम प्रेमचंद हों या विजय बहादुर सिंह बनाम भारत भारद्वाज की टिप्पणी हों | प्रेमचंद की बातें वाजपेयी जी पर भारी पड़ती थी, इसमें संदेह नहीं | लेकिन आधुनिक समय में गुरू-शिष्य परम्परा में गुरू को उच्च से उच्चतम स्थान पर काबिज कराने के हथकंडों को आलोचना की अगली कड़ी के रूप में आत्मसात नहीं किया जा सकता |
ग़ालिब छुटी शराब को पढ़ने के बाद एक बात तो धडल्ले से कही जा सकती है कि-रवीन्द्र कालिया ने अपनी यात्रा(पंजाब, दिल्ली, मुम्बई और इलाहबाद ) में आने वाले हर पड़ावों की गहनता से पड़ताल करते हैं | साथ ही ऐसा कम ही देख्नने को मिलता है कि कोई भी साहित्यकार अपने यथार्थपरक जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करता है लेकिन कालिया जी ने इसमें शाराब को माध्यम बनाकर संस्मरण को जीवंत बना दिया है | बीच-बीच में आत्मकथा की सुगंध भी आती है | दूसरी बात ममता अग्रवाल(कालिया) को भी एक स्थल पर पाँच सितारा होटल में मधु जीवन के अहसास को हमारे समक्ष रखते हैं | परन्तु ममता जी की वजाय अपनी माँ को ज्यादा तरजीह देते हैं | इससे एक तरफ माँ के प्रति उनका प्रेम भाषित होता है तो दूसरी तरफ पत्नी प्रेम का भी भरपूर प्रमाण मिलता है
3
  

विश्वग्राम और हम

विश्वग्राम  और हम

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साहित्य के लिए उर्वरा जमीन अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में भरपूर है | ऐसी जमीन का शहरों में मिलना मुश्किल है | क्योंकि देशी जमीन, देशी बीज, देशी खाद-पानी (लोक तत्व ) से तैयार फसल को काटने के बाद ही इसका एहसास होता है | यही कारण था कि-डा.सत्य प्रकाश मिश्र ने १९९९ में प्रेमचंद के माध्यम से लगभग इसी उद्देश्य की ओर इशारा कर चुके थे| उनका कहना था कि -देशी जमीन की सुगंध प्रेमचंद में मिलती है | इनमे और दूसरों में सबसे बड़ा अंतर यही है कि-अन्य लेखक जब कभी लेखकीय यात्रा शुरू करते थे तो, यात्रा करते समय स्टेशन पर जाते हैं और गंतव्य पर उतर जाते हैं, रास्ते में क्या हो रहा है क्या नहीं, उसकी पड़ताल भर करते हैं जबकि प्रेमचंद गंतव्य से उतरकर किसी पिछड़े गाँव में जाते थे और उस गाँव की किसी झोपड़ी में बैठ जाते और यही से उनकी वास्तविक यात्रा शुरू होती थी |प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि-क्या आज ऐसे तत्वों को कारगर तरीके से प्रस्तुत करने के लिए केवल कल्पना जरूरी है या यथार्थ की भी आवश्यकता है ? उदारीकरण और वैश्वीकरण से प्रभावित होकर तथाकथित विश्वग्राम भी उपर्युक्त तत्वों से लबालब भरा है, जरूरत है उसके खारेपन को दूर करने की |
2
भारत में स्त्री मुक्ति और स्त्री स्वातंत्र्य की चर्चा अक्सर की जाती रही है | लेकिन पुरूष स्वातंत्र्य और पुरूष शोषण की बात करने में अक्सर कंजूसी बरती जाती है | इसका प्रमाण धारा ३७६ के दुरूपयोग से मिलता है | हमने इसे अपनी आँखों से देखा है | वाकया गाँव के प्रथम व्यक्ति से सम्बंधित है| पूरा गाँव उस व्यक्ति के समर्थन में अभी भी है लेकिन एक औरत ने उन पर आरोप लगाया है कि-अमुक व्यक्ति विगत तीन वर्षों से हमारे साथ सम्बन्ध बना रहा है | बात यहीं तक रहती तो इसे सत्य मानने में कोताही नहीं लेकिन उसने थाना-मजिस्ट्रेट के सामने अलग-अलग बयान दिया है | यहाँ तक कि-उसने ७० हजार रूपये और एक चेन की भी मांग अप्रत्यक्ष रूप से लगाया है |उत्तर प्रदेश पुलिस की बातें निराली है, बिना जाँच लिए इस घटना को सत्य मानकर ३७६ का आरोप तय कर दी | जबकि उस व्यक्ति से दूर-दूर तक उससे कोई सम्बन्ध नहीं | यहाँ तक कि-यह भी जानकारी मिली है कि-यहाँ जेल में इस मुकदमे में कुल ७०० लोग सजा भुगत रहें हैं, जिसमे नब्बे फीसदी पर झूठ-मूठ का आरोप है | क्या बच्चा, क्या जवान, क्या बूढा हर व्यक्ति इस समस्या से जूझ रहा है | कहावत सटीक है-एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है लेकिन जब तालाब का पानी सूख गया हो तो वह क्या कर सकती है | ऐसे ही हमारे समाज के रक्षक ही भक्षक बनकर पीड़ित को और पीड़ा पहुंचाते है तथा अपराधी स्वतन्त्र विचरण करते हैं | नारी की गरिमा और उसकी अस्मिता की पहचान उसकी आबरू से होती है लेकिन क्या यह घटना नये विमर्श की मांग नहीं करती |
3
आज भी भारत के गाँव में रहने वाले कुछ लोगों के मन में जातिवाद वाला वायरस विद्यमान है | कल हमने यह महसूस किया | अभी भी ग्रामीण समाज में तीन तरह के लोग दिख जाते हैं |पहले जातिवाद को जहर की तरह घूँट-घूँट कर पीते रहते हैं | दूसरे इसमें अमृत घोलने का प्रयास करते है लेकिन तीसरा व्यक्ति न ही इसे विष और न ही अमृत मानता है अपितु तटस्थ भाव से मेलजोल बनाए रखते हैं | इसका एहसास मुझे कल हुआ-तिलक, शादी और खान-पान का संयोग तथा एक सज्जन का दोहरा चरित्र ऐसे उजागर हुआ , जिसका वर्णन लाजमी नहीं | उनका कहना था कि-(का कही अब त देहतियो में इ चमरा सब शहर बना देले बाड़े स, का जमाना आई गईल अब त कहीं खाए जाईल मुश्किल हो गईल बा, अब देख एक ही कुर्सी पर उहो खात रहल हा अऊर ओही पर हमनी के बईठे के पडल हा, हमर त मन रहे कि उठी के चली जाई} अब तो देहात और शहर में कोई अंतर ही नहीं | क्या जमान आ गया एक ही साथ सब लोग खाना खा रहें हैं | ऐसी संकीर्ण मानसिकता उस व्यक्ति के मन में आयी थी, जिसके घर में खाने को लाले पड़े हैं | इस सन्दर्भ में दलित साहित्य के विस्तार की आवश्यकता है क्योंकि शहर में लिखना और शहर में उस लेखन को भुनाना उचित नहीं | जब तक भारत के हर गाँव से इसे वास्तविक रूप मे नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इस विमर्श का आभासी चेहरा ही दिखाई देगा, जिस पर गुमान भर कर सकते हैं | सामाजिक परिवर्तन के लिए लोगों की भावनाओं में ऐसा संचार अपेक्षित है, जिसकी जरूरत भी है |
4
वैश्वीकृत गाँव की हालत देखकर कभी-कभी रोना आता है क्योंकि यहाँ अब जहाँ भी जाएँ वह अधिकतर संख्या वृद्धजनों की दिखाई पडती है जिसका कारण गाँव से शहर की ओर पलायन की तीव्र गति को माना जा सकता है | ऐसी परिस्थिति में वह दिन दूर नहीं जब गोंव के अधिकाँश घरों में ताला लग जाएगा और देखते-देखते ये खँडहर में तब्दील हो जायेंगे   

रविवार, 28 अप्रैल 2013

समाचार

सरबजीत सिंह 

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान की जेल में भारतीय कैदी सरबजीत सिंह पर हुए हमले को दुखद बताया | इतना क्या कम है | लोकतंत्र के राजा (सेनापति, अधिपति कहने से उन्हें बेइज्जती महसूस हो सकती है ) ने एक ही दिन बाद दुःख प्रकट कर दिया | सिंह ने कहा, ‘‘यह बहुत दुखद है। जेल में कुछ कैदियों ने उन पर हमला किया। यह बहुत दुखद है।’’ जैसे सरबजीत का दर्द सिंह साहब का दर्द बनकर ध्वनि का रूप लेकर शब्द बनकर फूट पड़ा हो | बहरहाल 121 करोड़ की कमान संभालने वाले व्यक्ति ने अपने बहुमूल्य समयों में से इतना समय निकाला, इसके लिए वह बधाई के पात्र है......कृष्ण की बाँसुरी की मधुर आवाज(मनमोहिनी आवाज) ने मोह लिया सबको ...!!

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

राष्ट्रीय खेल(हाकी) में स्वर्णिम युग की शुरूआत




गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

लोकतंत्र

राईट टू रिकाल या राईट टू  रिजेक्ट


आज एक छात्र ने मुझसे पूछा कि-सर मतदान करते समय एक ही विकल्प क्यों चुना जाता है ? जबकि किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में चार विकल्प रहते हैं | क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि-मतदाताऑ के समक्ष भी चार विकल्प या कम से कम तीन विकल्प हो |

१. वास्तविक प्रत्याशी
२. आभाषी प्रत्यासी
३. धनी-निर्धन प्रत्याशी
४. इनमें से कोई नहीं

हमें तो यह विभाजन उचित प्रतीत होता है | आप क्या सोचते हैं ?

बँधुआ मजदूरी

बँधुआ  मजदूरी

भारत में बँधुआ मजदूरी की वास्तविक तस्वीर देखकर घिन्न आती है | यह आधुनिक और वैश्विक कहे जाने वाले समाज पर एक ऐसा कलंक है, जिसे मिटाने का उत्तरदायित्व देश के हर नागरिकों को है | बचपन बचाओ, सुखी हो जाओ | अक्सर सुनने में आता है कि-फला घर में काम कर रहे नौकर ने मालिक का सारा सामान चोरी कर लिया | हमें तो लगता है कि- भारत में ऐसे कई गिरोह सक्रिय हैं, जो छोटे-छोटे बच्चों को उस दलदल में धकेल देते है जहाँ से निकलना असंभव है |

बुधवार, 28 मार्च 2012

आदिवासी साहित्य की परख

आदिवासी विमर्श वर्तमान  समय में युग की मांग हैं क्योंकि दलित और नारी विमर्श से भी आगे का यथार्थ हैं. यह विमर्श न केवल हासिए के साहित्य में नया मोड़ निर्धारित करता है अपितु लोकतंत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन की मांग भी करता हैं.इस सन्दर्भ में पेसिफिक पब्लिकेशन नई दिल्ली से प्रकाशित एवं डा. वीरेंद्र सिंह यादव तथा डा, रावेंद्र कुमार साहू के कुशल सम्पादकीय में 2012  में आयी पुस्तक "आदिवासी विमर्श :स्वस्थ जनतांत्रिक मूल्यों की तलाश " विमर्श को नया आयाम प्रदान करती हैं.494 पृष्ठ और सम्पूर्ण भारत के 29 विद्वानों के लेखों को संगृहीत करके संपादक महोदय ने आदिवासी ग्रन्थ को मानस के समकक्ष ला खड़ा कर दिया हैं.यह पुस्तक पांच भागों में विभक्त हैं - संयोग से इसमें हमारा भी एक लेख है, जो अध्याय १ में
वैश्विक सभ्यता में विलुप्त होते आदिवासी समुदायों की त्रासद गाथा" शीर्षक से प्रकाशित है | 

हमारे  लेख का कुछ भाग .

 वैश्विक सभ्यता में विलुप्त होते आदिवासी समुदायों की त्रासद गाथा

 -डॉ0 मनजीत सिंह
जवाहर नवोदय विद्यालय,
 मल्हार, बिलासपुर (छ0ग0)-495551                                                                           

   
    धरती के इस छोर से उस छोर तक
    मुठ्ठी भर सवाल लिये मैं,
    दौड़ती-हाँफती-भागती
    तलाश रही हूँ, सदियों से निरन्तर
    अपनी जमीन, अपना घर
    अपने होने का अर्थ!!
                       नगाड़े की तरह बजते शब्द-निर्मला पुतुल1
    निर्मला पुतुल के उद्गार आदिवासी समुदायों की व्यथा कथा को पूर्णतः व्यंजित करती है। भारत में यह समुदाय संकटग्रस्त स्थिति को प्राप्त है, क्योंकि ये इस वैश्विक सभ्यता में स्वयं को उपेक्षित और उत्पीडि़त महसूस करते हैं। राज्यों के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और शोषण के नवीन आयाम इसमें उत्तरदायी है। इसे यदि ’ग्लोबल गाँव के देवता’ के संदर्भ में देखें तब सहज ही जल, जंगल और जमीन पर आदिवासी समुदायों की समाप्ति को आत्मसात् किया जा सकता है। विमर्श के इस नये आयाम को इनकी उत्पत्ति से जोड़कर, सामाजिक-धार्मिक, नारी-अस्मिता का प्रश्न, विकास में बाधक विस्थापन और माओवाद (नक्सलवाद) का यथार्थ जैसी अवधारणाओं का विश्लेषण करके पुनर्मूल्यांकन करने पर सटीक निष्कर्ष की प्राप्ति हो सकती है।
ऐतिहासिक उत्पत्ति एवं विस्तार:-
    इक्कीसवीं सदी में आदिवासी उत्पत्ति को लेकर तमाम विमर्श सामने आये हैं। वैसे यह शब्द सामान्यतः उन लोगों के जीवनयापन की शैली के लिए रूढ़ हो गया, जो वैदिक काल में ’अनार्य’ या ’दस्यु’ कहलाते थें। इन्हें ही विकसित लोगों ने आदिवासी, जनजाति, आदिमजाति, वन्यजाति, वनवासी इत्यादि नाम दिया। संस्कृत ग्रन्थों में भी ’अत्विका’ या ’वनवासी’ कहा गया है। जबकि गाँधी जी इन्हें ’गिरिजन’ कहा करते थे। प्राचीन ग्रन्थों मंे इन्हें ही भील, कोल, किरात, निषाद इत्यादि नामों से जाना जाता है। भारतीय इतिहास में व्रितानी सल्तनत ने जहाँ-जहाँ प्रवेश किया, वहाँ के निवासियों  को अपने से अलग करने हेतु उन्हे ’’नेटिव’’ या ’’ट्राइब’’ की संज्ञा दे दी। इसी ’दूसरे लोगों’ं को जनजाति या ज्त्प्ठम् के रूप में मान्यता मिली है। शाब्दिक अर्थ में आदिवासी शब्द दो शब्दों ’आदि’ और ’वासी’ से मिलकर बना है, जिसका मूल अर्थ है-निवासी। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे भारत और समीपवर्ती देश में निवास करने वाले ’प्रथम देशी निवासियों’ के रूप में स्मरण किया जाता है, जिनकी व्याप्ति ’इण्डो-आर्यन इमिग्रेशन्स’ से होती है। सभ्यता निर्माताओं ने अंग्रेजी शब्द ’ट्राइब’ के मूल लैटिन शब्द ’ट्राइबस’ के रूप में व्यक्त किया है, जिसका प्रयोग रोमन राज्य में मूल त्रिपक्षीय विभाजन के लिए होता है। अनेक नृ-वैज्ञानिकों ने इसका प्रयोग ’कुटुंब’ के रूप में किया है।
    आदिवासी उत्पत्ति के प्रश्न को रंजीत साउ ने ग्रीस से जोड़कर इनकी ऐतिहासिकता सिद्ध करने का प्रयास किया है। क्योंकि दुनिया में लोकतंत्र का पहला फूल सैन्य आविष्कारों के साये में ग्रीस में खिला। हथियारों का विनिर्माण काफी आधुनिक हो चला था। अब राज्यों के पास छोटी फौजी टुकडि़यों की जगह बड़ी सेनाओं को हथियारों से लैस करने की तकनीक आ चुकी थी। एक बार में हमला करने वाले पुराने जमाने के लड़ाकुओं की जगह राज्यों ने अब भारी-भरकम हथियारों से सम्पन्न सैन्य बलों को तैनात करना शुरू कर दिया था। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह भू-स्वामी हो या किसान, जो खुद को इन हथियारों (होपला) से लैस करने की क्षमता रखता था। इस नई सेना ने एक नए किस्म की समानता को जन्म दिया। होपला से लड़े जाने वाले युद्ध की खासियत कंधे से कंधा मिलाकर एवं सटकर खड़े होने वाले आठ फौजियों की एक कतार थी, जिसे ’फैलेंक्स’ कहते थे। यह जन सेना थी, जिसमें नागरिक ही सैनिक बन चुके थे। होपला ने ग्रीस का रूपांतरण कर डाला और एक सुनियोजित तरीके से गढ़े हुए लोकतंत्र की बुनियाद रखी। एक किसान, जो अब फैलंेक्स की कतार में राजपरिवार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होता था। अब राजशाही को देखने का नजरिया  बदल चुका था। 

विशिष्ट पोस्ट

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान  (सरकारी सेवा के बीस साल) मनुष्य अ...