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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||

 (पृथ्वी दिवस विशेष)


 घर-घर दीप जलाएँगे

    धरती माँ को बचाएँगे ।।


फोटो-साभार

जब कोई व्यक्ति अपने परिवार, समाज, सभ्यता एवं संस्कृति से दूर होता है तो उसके द्वारा एक नई दुनिया का निर्माण होने लगता है । वैश्विक प्रभाव से ऐसे नाभिकीय परिवार स्व की आभा से दीप्त होकर न केवल घर-परिवार से दूर होते जाते हैं अपितु अपनी जन्मभूमि से भी किनारे होकर परिधि पर एक नया संसार बनाने का प्रयास करते हैं । परन्तु वह संसार लाक्षागृह से भी कमजोर होता है । यही कारण है कि माँ एवं मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर माना गया है । प्रमाणस्वरूप (साभार) रामायण का जो संस्करण मद्रास की हिंदी प्रचार प्रेस ने 1930 में जारी किया था, उसके हिसाब से यह श्लोक इस तरह है:

मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव |

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||


इस संस्करण के मुताबिक ऋषि भारद्वाज ने राम को संबोधित करते हुए यह श्लोक कहा, जिसका अर्थ है मित्रों, धनवानों और अनाजों की इस संसार में बड़ी प्रतिष्ठा है, लेकिन मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं.


दूसरे पाठों के मुताबिक यह श्लोक लंका विजय के बाद राम ने लक्ष्मण को संबोधित करते हुए इस तरह कहा:

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते |

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||

इस संदर्भ में इस श्लोक का अर्थ है 'हे लक्ष्मण, यह लंका सोने की होने पर भी मेरी रुचि का विषय नहीं है क्योंकि मां और मातृभूमि ही स्वर्ग से बढ़कर हैं.' । अतः माँ एवं मातृभूमि दोनों की महत्ता स्वतः सिद्ध है । इसके साथ ही वैश्विक महामारी में प्रकृति के अनुरूप प्रत्येक व्यक्तियों का कर्तव्य नियत है परन्तु हम जिस स्तर पर स्वयं के विकास के निमित्त जागरूक रहते हैं । वैसी ही उदासीनता धरा के प्रति दिख जाती है । अतः वर्तमान समय में इसकी सुरक्षा जन-जन का उत्तरदायित्व है । इसके बिना हम न ही इस वैश्विक महामारी से सुरक्षित हो सकते हैं और न ही रोग प्रतिरोधक क्षमता ही बढ़ा सकते हैं । इस प्रकार हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या हरियाली को बरकरार रखना ही है ।

वर्तमान समय मे प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की घटनाओं के बढ़ने से अनियमित होते भू-स्थैतिक चक्रों को सहज ही आत्मसात किया जा सकता है । प्रसंगतः भूगोल विषय के स्थापित विद्वानों का स्मरण लाजमी है।  इनमें सविंदर सर एवं ओझा सर प्रमुख हैं । बात उन दिनों की है जब हम लोग अपने विभाग से भूगोल एवं अंग्रेजी विभाग की कक्षाओं में उपस्थित रहने का प्रयास करते थे । सर अक्सर भूगोल को सामान्य उदाहरणों से जोड़कर बहुत रोचक बना देते थे । वह पढ़ाते समय कुछ ऐसे प्रश्न पूछते थे, जिसके उत्तर को वर्तमानकालीक वैश्विक परिघटना के निमित कसौटी पर कसने का प्रयास करते हैं तो पृथ्वी की सुरक्षा खतरे में पड़ी जान पड़ती है । ऐसे ही प्रश्नों में एक प्रश्न यहाँ जायज है । ऐसी कौन सी दो जगहें हैं, जहाँ यदि कोई व्यक्ति टोपी पहनकर खड़ा हो तो वह उनमें से एक जगह गिर जायेगी । इसके उत्तर की तलाश में वे हिमालय की यात्रा कराते थे और उस समय जैसे हिमालयी चोटियों के विस्तार का सम्पूर्ण परिदृश्य आँखों के सामने दिखाई देने लगता था । हम जब कभी पृथ्वी पर भौगोलिक संकट को महसूस करते हैं तो निश्चित रूप में इसके अवस्थापना से जुड़े अवयवों की प्रतीति का एहसास होने लगता है ।


आज सुबह सबेरे विश्व पृथ्वी दिवस के अवसर पर पूर्व में किये गये आह्वान का सहज ही स्मरण लाजमी है-जन्म के समय वृक्ष लगाना । अक्सर देखते हैं कि-संतान के जन्म के समय माता-पिता उनकी शिक्षा-विवाह से लेकर घर तक की योजना के निमित्त धन जमा करने लगते हैं परन्तु प्रकृति के प्रति उदासीन रहते हैं, जो हमें जीवन देती है । हम यह क्यों नहीं सोचते कि-प्रकृति हमें देती है तो कुछ माँग भी रखती है । ऐसे में माँग-पूर्ति का नियम सर्वव्यापी बन जाता है । अतः हर-घर में जन्म के साथ वृक्ष लगाने का प्रण समय की माँग है । बिहार में एक गाँव है-नौगछिया(शायद लालू जी जन्म स्थल भी है) यहाँ हरेक बच्चे के जन्म के साथ नौ गाँछ(पेड़) लगाने की परंपरा अभी भी जीवित है । 


आंकड़े चीख-चीख कर बताते हैं कि-2020 तक 780 करोड़ पेड़ लगाना आवश्यक है । एक सर्वे के अनुसार दुनिया भर में अभी करीब 3 लाख करोड़ पेड़ है यानि औसतन प्रति व्यक्ति 422 पेड़ । लेकिन प्रति 2 सेकंड एक फुटबॉल मैदान के बराबर इन्हें बेदर्दी से काटा जा रहा है । यदि इसी क्रम में असन्तुल बरक़रार रहा तो विनाश निश्चित है ।


यह सार्वभौमिक सत्य बन चुका है कि-अत्यधिक विकास विनाश को आमंत्रित करता है । हम सड़के बना रहें हैं, शहरों से लेकर महानगरों को बढ़ा रहें हैं, जीवन-स्तर बढ़ा रहे हैं, गाड़ी चला रहे हैं, फ्रीज का खाते है,एसी में सोने को लालायित होते हैं? अंततः हम धरती के साथ दुश्मनी ही लेते हैं ।


आकड़ों पर विश्वास करें तो कार्बन उत्सर्जन में चीन, अमरीका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है । यदि यही क्रम जारी रहा तो स्वयं ही अपनी भावी पीढ़ी के गुनाहगार साबित होंगे । यह ऐसा अपराध होगा, जिसके निमित्त संविधान भी चुप होकर विलाप करने को मजबूर होगा । वह दिन दूर नहीं जब भविष्य में वैश्विक स्तर पर जमीन की जगह जल के लिए और परिवार की जगह पेड़ के लिए क्रमशः जल युद्ध और ग्रीन वार छिड़ जाय । आज हम अपने लिए हरियाली उजाड़ रहे हैं कल वह धरती के लिए हमें उजाड़ दे ।


प्रसंगतः सरकार की नीतियों को कागजों से जमीन पर उतरकर गाँव-गाँव, घर-घर दस्तक देना आवश्यक है । इसके लिए सरकार की ग्रामीण-शहरी विकास के माडलों में अप्रत्याशित परिवर्तन भी जरूरी है । इस सन्दर्भ में मित्र Sukhram Bhagat (भूगोल के विशेषज्ञ) का कहना उचित है कि-गाँवों से शहरों की ओर पलायन को रोकने के लिए हमें गाँव को शहर मानकर जीवन व्यतीत करना होगा तथा सरकार को भी शहरों से बाहर एक नया शहर विकसित करना होगा । भारत के कुछ राज्य इस पर अमल भी क्र रहे हैं-जैसे नया रायपुर, चंडीगढ़, सिकंदराबाद । लेकिन इसे सर्वत्र लागू करके धरती माता को जगाये रखा जा सकता है । 


भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ की खेती मानसून पर निर्भर रहती है । हमारे आर्थिक विश्लेषक मानसून को आधार बनाकर विश्लेषण करते है और शेयर बाजार में हलचल मचाते रहते हैं । परंतु जब हम धरती माता पर दबाव बढ़ाते हैं, कार्बन उगाहते हैं और मानसूनी जलवायु को कमजोर होकर अकाल में जीने को मजबूर करते हैं तो 1952 में नागार्जुन की लिखी कविता *अकाल और उसके बाद* के बिम्ब स्वतः विचरण करने लगते है-यथा-


कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की भई उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत हुई शिकस्त

दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद

धुँआ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद

कौवे ने खजुलाई पाँखें कई दिनों के बाद 

चमक उठी घर भर की आँखे कई दिनों के बाद ।


अतः यह तस्वीर भयावह हो सकती है क्योंकि अकाल से तप्त धरा अपना स्वरूप खोकर मानव जन समुदाय को उदासीन-नश्वर जीवन जीने को विवश करती है । अतः हमें धरती को बचाना है तो पारिस्थिकीय-पर्यावरणीय आवरण को सुरक्षित रखना होगा और जल-जंगल-जमीन की रक्षा का प्रण लेना होगा । अन्यथा हम उपभोग करेंगे और हमारी भावी पीढ़ी उपभोक्ता बनने को लालायित होती रहेगी । मिट्टी भी नसीब नहीं होगा जल तो इतिहास की किताब तक सीमित हो जाएगा या समस्त नीला ग्रह नील समुद्र में विलीन हो जायेगा । 


डॉ. मनजीत सिंह

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

सामाजिक विभेदीकरण एवं परिवारवाद का नया स्वरूप

जब मनुष्य स्वयं निर्धारित परिवार के मानदण्डों से संचालित न होकर ज़बरदस्ती थोपी गयी नैतिकता के तहत परिवर्तित अवयवों को आत्मसात करता है तो वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षतः सामाजिक रूप में विचलन को न्यौता देता है । वह उस समाज का अंग होते हुए भी दूर होता चला जाता है और विभेदीकरण की नवीन संभावनाएँ जन्म लेने लगती हैं ।

समाज के इस बदलते स्वरूप को देखकर परिवार की दो धुरियाँ स्पष्टतः दृष्टिगत होती हैं । पहले भाग का पता व्यक्ति की मनोदशा से होता है जबकि दूसरे की पहचान लगभग नामुमकिन है क्योंकि यह अदृश्य संभावनाओं द्वारा संचालित होता है । इसमें कोई दो मत नहीं कि पहला व्यक्ति प्रत्यक्ष आधारित अनुमान का शिकार होता है जबकि दूसरा वातावरण एवं परिवेश के बल पर नये परिदृश्यों का गुलाम बनता है ।

इस आधार पर वर्तमान समय में परिवार के लोगों की मानसिकता का अनुमान लगाना बहुत आसान है क्योंकि कमोबेश भारतीय संस्कृति का कोई भी कोना इससे अछूता नहीं है । अधिकांश लोग इस संकीर्ण घेरे में कैद हैं। सबसे बड़ी बात है कि वह इस घेरे को बारम्बार तोड़ने का प्रयास भी करते हैं और हर बार असफल होते हैं । इस परिघटना का शिकार कथित बौद्धिक जमात भी हैं । वे मौन निमंत्रण को नीलकण्ठ की तरह धारण करके अलग रूप में दिखाई देते हैं ।

इस प्रकार समाज का हरेक वर्ग इस दुःख मिश्रित सुख से त्रस्त है । आज देश के सभी घरों में ग्लानि एवं पीड़ा में संघर्ष जारी है । इनमें कभी युद्ध की स्थिति हो जाती है तो कभी विचारों को आधार बनाया जाता है । परन्तु जीत हमेशा दुःख की ही होती है । यह दुःख बौद्ध से इतर त्रियग लोक में विचरण करने को विवश करता है । हम यह समझ नहीं पाते कि ये दुःख कब क्रोनिक बनकर भयानक कीड़े का सहारा लेकर विध्वंशकारी परिस्थितियों को सहजतापूर्वक आमंत्रित करता है ।

कहने का आशय यही है कि-शनैः शनैः सामाजिक स्तरीकरण की यह तस्वीर बहुत डरावना होने लगती है । इसका कारण यही है कि लोग स्वयं को उस सम्पूर्ण संसार का कर्ता मान बैठता है । वह उस जगह से चालित होता है जहाँ केवल काँटे ही काँटे होते हैं । वह जोड़ने की जगह तोड़ने की माया का शिकार होता है । वह समाज के उस कुत्सित वर्ग को प्रश्रय देता है, जिसने उसे इस विभेद का पर्याय बनने को विवश किया । इस प्रकार यह तीसरा वर्ग ही सर्वस्व होकर काली खोह में विचरण करने को उसे विवश करता है । कभी-कभी आत्मघाती प्रवृतियों के उजागर होने का सबसे बड़ा कारण यह भी  बनता है ।

इस स्वरूप का निर्धारण अचानक नहीं होता । यह बहुत लंबी प्रक्रिया का प्रतिफल होता है । यहाँ पहुँचकर परिवार का यह ठूँठ वृक्ष स्वयं को सर्वेश्वर मानकर स्पिनोजा को भी लज्जित करने लगता है । उसे केवल अपना चेहरा दिखता है । वह शकुनि के पाशे में इस कदर फँस चुका होता है कि यहाँ से निकलना उसके लिए असंभव हो जाता है । वह बैचैन मुद्रा में स्वयं को उस चाहरदीवारी में कैद मानने की भूल कर बैठता है, जिसका वह हकदार ही नहीं होता ।

प्रसंगतः कुछेक प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या वैश्विक दिखते ऐसे समाज का चरम एवं परम कभी आएगा ? क्या हमारा समाज आज के उस पारिवारिक चंगुल से मुक्त हो पायेगा ? क्या सचमुच यह पाताल में जा रहा है, जिसे कथित सुधारक विकास मानते हैं ? और अंत में क्या इसमें सुधार सम्भव है ? इन सभी प्रश्नों के उत्तर अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन इसकी परिणति एक ही मुहाने पर होती है । क्रमशः इन प्रश्नों पर शोधकर्ताओं की नजर से विचार किया जाय तो निम्न निष्कर्ष निकल सकता है-

1. वर्तमान वैश्विक समाज चरम पर विराजमान है क्योंकि इससे नीचे परिवार की कोई भी इकाई नहीं गिर सकती है । अब यह भी देखने में आया है कि परिवार की परमाणविक इकाई तंग होकर केंद्र की ओर अग्रसर है । दूसरे शब्दों में न्यूक्लियर परिवार अपना वर्चस्व खोता जा रहा है । वह उस वीरान मैदान में खड़ा है, जहाँ केवल अक्षोर क्षितिज ही दिखाई देता । यहाँ वह असहाय होकर खूब चिल्लपों मचाना चाहता है लेकिन वह कर नहीं पाता । इसका सबसे बड़ा कारण आंतरिक विचलन ही है। यह विचलन कभी ह्रदय को तो कभी मन को प्रभावित करता है । दोनों का समेकित प्रभाव नुकसानदायक ही होता है ।

2. इस प्रकार परिवार के बदलते ढाँचे से मुक्ति का सबसे बड़ा उपाय मनुष्य स्वयं ही है ।

3. इस तर्क से कोई भी समाज सुधारक इनकार नहीं कर सकता है कि वर्तमान समाज पाताल की अतल गहराईयों में गोता लगा रहा है । इसे यदि विकास माने तो बड़ी भूल होगी ।

4. इसमें सुधार सभव है लेकिन यह साधना बहुत मुश्किल है ।

5. समाज में प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व जब स्वयं के व्यवहारों से निर्धारित होने लगेगा तो निश्चित रूप में परिवर्तन की लहर प्रवाहित होगी । यह लहर समुद्र की सामान्य लहरों से भी तीव्र गति से बदलाव के लिए उत्तरदायी होंगी । इसके लिए निम्न सुझाव अपेक्षित है-यथा-व्यक्ति अपने व्यक्तिगत प्रयास को प्रभावी रखे । वह समाज के परंपरागत नियमों को पूर्णतः दरकिनार न करे अपितु इसे अपने अनुरूप स्वयं पर लागू करे । अंतिम सुझाव यही है कि-भारतीय समाज को घुन्न की तरह खाने वाले लोगों को कभी भी अहमियत देना साँप को गले लगाने से भी बदतर है ।

इन प्रयासों से साफ सुथरा भारत की असली तस्वीर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगती है, जिसका इंतजार क्या परिवार, क्या समाज.........इस लोकतंत्र का जन- जन सदियों से कर रहा है । यह यथोचित होगा-


बिल्कुल अभी नहीं
लेकिन
सबेरा होगा जरूर
चाँद भी मुस्करा कर
शीतल मंद बयार को
आने को विवश करेगा ।
सूरज भी अपनी लालिमा
वापस पाकर खुश होगा ।
चिड़िया लौट  जायेगी
..........................
जन्म-जन्मांतर का धुँध
छटेगा....
छटेगा....
बिल्कुल! बिल्कुल! बिल्कुल!

©डॉ. मनजीत सिंह
21/01/22

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

संविधान मर्मज्ञ की सार्थक पहल

#बिहाने बिहाने

129वीं जयंती पर सादर नमन


भारतीय संविधान के मर्मज्ञ एवं दलित विमर्श के मसीहा अम्बेडकर की 129वीं जयंती के अवसर पर एक बात जेहन में आ रही है कि-दलित-अदलित-पीड़ित जनसमूह से निर्मित भारत का आधुनिक ढाँचा बहुत कुछ उनके विचारों पर खरा उतरकर निर्मित हुआ है, जिसे उन्होंने 1936 में "अपने प्रसिद्ध लेख एनीहिलेशन आफ कास्टीज्म' की पृष्ठभूमि के रूप में घोषित किया था |

दरअसल बाबा साहब भीमराव आंबेडकर दलित साहित्य के सूर्य थे | उनकी प्रखर प्रतिभा का आकलन इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने दलित साहित्य में आत्मसम्मान और आत्म गौरव का भाव जगाया | हरिनारायण ठाकुर ने 'दलित साहित्य का समाजशास्त्र' ( पृष्ठ १७५ ) में  "दलित आंदोलन पर विस्तृत काम करने वाले इ. जिलियट के लेख 'गौरव का लोकगीत : समकालीन दलित विश्वास के तीन घटक' का उल्लेख करते हैं, जिसकी शुरूआत अंबेडकर की मराठी कविता से हुआ है | इसके साथ ही वे उसका हिन्दी अनुवाद भी किये है-यथा-

हिन्दुओ को चाहिए थे वेद,
इसलिए उन्होंने व्यास को बुलाया, जो सवर्ण नहीं थे |
हिन्दुओ को चाहिए थे महाकाव्य ,
इसलिए उन्होंने वाल्मीकि को बुलाया, जो खुद अछूत थे |
हिन्दुओं को चाहिए था एक संविधान ,
इसलिए उन्होंने मुझ (अम्बेडकर) को बुलाया |
इस प्रकार अम्बेडकर ने महसूस किया उस पीड़ा को जो दाग दिया सच (रमणिका गुप्ता) में महावीर और मालती ने झेला था, जीवन साथी (प्रेम कपाडिया) बनकर रेखा ने झेले, चंदर ने अपनी अस्मिता को लहूलुहान (बुद्धशरण हंस) करके वैश्यालय में माँ का दर्शन किया था और उस वैश्य में ही दुर्गा एवं सहक्ति का सानिध्य पाया | इसके अतिरिक्त ओमप्रकाश वाल्मीकि का तो यहाँ तक कहना है कि, " डा. अम्बेडकर ने गाँव को भारतीय गणतंत्र की अवधारणा का शत्रु माना | उनके अनुसार-हिंदुओं की ब्राम्हणवादी और पूंजीवादी व्यस्था का जन्म भारतीय गाँव में होता है |(दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र-ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ-३१)  कुल मिलाकर अदम गोंडवी ने जिस ताप को निम्न गजल में महसूस किया, कमोबेश अम्बेडकर ने भी महसूस किया-

आइए, महसूस करिये जिंदगी के ताप को |
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको |

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊबकर |
मर गयी फुलिया बिचारी कल कुएँ में डूबकर |

है सधी सिर पर बिनौले-कंडियों की टोकरी |
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी |

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा |
मैं इसे कहता हूँ सरयू पार के मोनालिसा |

कैसी ये भयभीत है हिरनी -सी घबराई हुई |
लग रही जैसे कली बेला के कुम्हलाई हुई |

कल को ये वाचाल थी पर आज कैसी मौन है |
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है |

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को |
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को |

डूबते सूरज की किरने खेल रही थी रेट से |
घास का गठ्ठर लिए ये आ रही थी खेत से |

आ रही थी वो चली खोयी हुई जज्बात में |
क्या पता उसको कोई भेदिया है घात में |

होनी से अनभिज्ञ कृष्ना बेखबर राहों में थी |
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी |

चीख निकली भी तो होठों में ही घुटकर रह गयी |
छटपटायी पहले, फिर ढीली पडी, फिर ढह गयी |
*****************************
*************************और अंत में कहते हैं-
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आयें मेरे गाँव में |
तट पे नदियों के घनी अमराईयों की छाँव में |

गाँव जिसमें आज पांचाली उघारी जा रही |
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही |

हैं तरसते कितने ही मंगल लँगोटी के लिए |
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए |

अदम साहब ने जिन-जिन पात्रों को अपने गाँव में चमारों की गली (पृष्ठ-८४) तक ले जाने की बात करते हुए हरखू, मंगल, फुलिया,कृष्ना जैसे को व्यक्त किया हैं ठीक वैसे ही पात्र अम्बेडकर को महाराष्ट्र में मिले, कर्णाटक सहित दक्षिण में मिले और उन्होंने ऐसे पात्रों को बहुजन हिताय के दृष्टिकोण से सामाजिक स्वतंत्रता का ऐसा स्वाद चखाया, जिसके बल पर आज उनका साहित्य समकालीन साहित्य में मील के पत्थर की तरह स्थापित होकर विकास के पथ पर अग्रसर कराने को तत्पर है |
इस सन्दर्भ में मैं अपने गाँव के तथाकथित हरिजन कहे जाने वाले कुनबे की ओर अपनी विहंगम दृष्टि डालता हूँ तो ऐसा दृश्य उपस्थित होता है , जिन्हें दलित कहने में मुझे शर्म महसूस होता है | (क्योंकि हरि नारायण ठाकुर जी ने भी कुछ इस तरह से माना है कि-समाज का वह प्रत्येक व्यक्ति दलित है, वह चाहे किसी भी जाति, वर्ग या समुदाय का हो, भूख की पीड़ा से त्रस्त हो ) अतः हमारा गाँव इस मायने में बहुत आगे है | गाँव की शुरूआत ही इनकी बस्ती से होती थी | लेकिन एक अनजान व्यक्ति आज जब गाँव में प्रवेश करता है तो वह भ्रम में पड़ जाता है कि ये महल किन रईसों के हैं | उनके घरों में शायद ही कोई घर होगा जहाँ कोई सरकारी सेवा में न हो | दो-चार घर अभी भी तंग हैं जैसे-अमरीका, पतरू, भरत आदि लेकिन इनकी भी स्थिति इतनी पतली नहीं कि वे दो जून का के भोजन को मोहताज हों | कहने का अर्थ है कि-अब स्थिति परिवर्तित हो चुकी है |

प्रसंगतः दलित विमर्श का पुनर्मूल्यांकन समय और समाज की जरूरी माँग हो सकती है क्योंकि आज जब हम हासिये के यथार्थ की बात करते हैं तो सहज ही नारी-दलित-आदिवासी विमर्श की प्रासंगिकता स्वतः सिद्ध हो जाता है ।

14.04.20

#डॉ. मनजीत सिंह

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

(कथा साहित्य, दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और स्त्री विमर्श की पड़ताल )

डॉ. मनजीत सिंह

इंसान  काले-गोरे  के खेमे  में  बँट गया,
तहजीब के  बदन पे  सियासी  लिबास है।
रोटी के लिए बिक गयी ’धनिया’ की आबरू,
’लमही’ में  प्रेमचन्द  का  होरी  उदास है।(अदम गोंडवी)
    अदम गोंडवी ने भले ही धनिया के आबरू के बिकने और होरी की उदासी को सामाजिक रूप उद्घाटित करते हैं लेकिन इसका सीधा संबंध समकालीन साहित्य से निर्धारित होता है। क्योंकि साहित्य का समकालीन स्वरूप अंतर्विरोधों से परिपूर्ण है, इनमें कुछ ऐसा कड़वा सच है, जिसे आत्मसात् करना मुमकिन नहीं है। यहाँ विमर्श के बहाने ईर्ष्या-द्वेष, गोष्ठी के बहाने अंक बटोर, परिचर्चा के बहाने टीका-टिप्पणी कमोबेश सर्वत्र व्याप्त है। इसका दूसरा पहलू भी कम रोचक नहीं है, जिसे हम शहर बनाम गाँव, ग्लोबल शहर बनाम विश्वग्राम को केन्दं्र में रखकर सहजतापूर्वक विश्लेषण कर सकते हैं। इस संदर्भ में यह कहना में तनिक भी हिचक महसूस नहीं हो रही है कि-आधुनिक साहित्य शहरीकृत मानसिकता कि दबाव से छटपटाता हुआ नवीनता की मांग कर रहा है। आज जब कभी साहित्य की बात की जाती है तो इसकी शुरूआत महानगरों से होती है और वहीं यह समाप्तप्राय भी हो जाता है। इसमें न ही महानगरीय संस्कृति की जीवनशैली की यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत हो पाती है और न ही गाँव की सोंधी महक ही सुगंिधत करती है।
प्रसंगतः प्रश्न स्वाभाविक है कि-क्या महानगरों में परिवार को एक सीमीत संसाधनों के ऑकड़ों का सहारा लेकर विश्लेषण करना श्रेयष्कर है? इसका सीध एवं सरल उत्तर नकारात्मक होगा। इसके निमित्त मैं जब कभी कथा साहित्य(कहानी, उपन्यास) को पढ़ने का साहस बटोरता हूँ, (जो महानगरीय जीवन शैली पर केन्द्रित होती है।) तो एक ही स्वर, एक ही उद्देश्य, एक ही कथोपकथन  और कमोबेश एक ही शैली से मन खिन्न हो उठता है। महानगरों में मध्य वर्ग को ही इसके लिए सर्वथा उपयुक्त माना जाना उचित नहीं है। क्या शहरों में निम्न वर्ग नहीं? क्या प्रमचन्द द्वारा ग्रहीत गाँव-शहर को एक ही चरूमें से नहीं देखा जा सकता? प्रेमचन्द में इतना साहस था कि वह एक ही साथ होरी-धनिया-गोबर के साथ मिर्जा-मेहता-मालती को भी रखने का साहस किये थें। क्या आज ऐसा साहस किसी में है? शायद यही कारण था कि- अदम गोंडवी जी ने भी नया इतिहास लिखने की बात की थी-यथा-
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे।
हम अपने इस कालखंड का एक नया इतिहास लिखेंगे।

सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर,
उन दलितों की करूण कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे।

प्रेमचन्द की रचनाओं को एक सिरे से खारिज करके,
ये ’ओशो’ के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष्य लिखेंगे।
 इस प्रकार साहित्य के इस परिवर्तन में आधुनिक कहानियाँ खरी नहीं उतरती क्योंकि इन कहानियों पर पड़ते ग्लोबल प्रभाव को सहजता से आत्मसात् किया जा रहा है परन्तु ग्रामीण प्रभाव को अछूता करना साहित्य के साथ अन्याय है। इसके निमित्त यदि यत्र-तत्र प्रभाव दियाता भी है, तो वह यथार्थ से इतना दूर रहता है कि हमारे जैसा पाठक भी कभी-कभी सिर पकड़कर बैठ जाता है। क्योंकि इस गाँव को लेखक अपने ध्वनि प्रतीकों एवं कल्पनाओ से इतना ओत-प्रोत कर देता है कि-अन्ततः आत्मविश्लेषणपरक दुर्गध आने लगती है।    कहा जाता है कि-कहानी कला के बीच में लेखक या लेखिका की उपस्थिति कहानी कला की कसौटी का प्रमाण है। परंतु जब इनकी बेजा उपस्थिति से कथोपकथन और पात्रों का सेवाद प्रभावित होने लगे, तब यह कहानी कला की कमजोरी का द्योतक बनता है। कुछेक आलोचक इसे आत्मपरक विभाजन के रूप में स्वीकार्य करने की सतही सलाह भी देते हैं, जो हजम नहीं होता क्योंकि इससे आधुनिक गद्य की अन्य विधाओं पर खतरे की घंटी मंडराने लगती है। इस प्रकार सामाजिक सरोकारों के छलावे में एक अदना सा पाठक ही छला जाता है और वह उस तथाकथित सभ्य कीे जाने वाले समाज से स्व को कटा हुआ महसूस करते है।
कथा साहित्य में कहानी की ही भाँति उपन्यास का नवीन आवरण भी हैरतअंगेज सूरत प्रस्तुत करता है। इसके साज-सज्जा पर प्रकाशक अनायास धन की वर्षा करते हैं। लेकिन इसके शृंगार और कथावस्तु में सामंजस्य करना प्रेत की छाया छूने के बराबर है। सजिल्द-अजिल्द, शृंगारपरक ऐसे उपन्यास एक कमजोर कड़ी के रूप में प्रस्तुत होकर हमें चिढ़ाते हैं। लगभग ऐसा ही एक उपन्यास मुझे पढ़ने का अवसर मिला, इसे मजबूरी ही कह सकते हेै क्योंकि धन का मोह जो था! पढ़ता चला गया....प्रथम-द्वितीय से 107 पृष्ठ तक। लेकिन घोषित आत्मपरकता से मैं स्वयं भयभीत हों गया। यह भय न केवल उस लेखक से था अपितु प्रकाशक से भी रहा, जिसका संबंध साहित्य के आधुनिकतम स्वरूप से किया जाना लोहे के चने चबाने जैसा था। अक्सर यह देखने में आता है कि-जब भी आत्मप्रशंसा की बात आती है, तब लेखक के पास शब्दों का जखीरा जमा हो जाता है लेकिन परोपकार की बात आते ही उसके शब्दकोश के शब्द गायब हो जाते हैं और कल्पनाएँ सुषुप्तावस्था में चली जाती है। सोकर लिखने और लिखकर सोने में फर्क है। सोकर सपना देखते हैं, यह सपना उन्हीं चीजों से संबंधित होता है, जिससे प्रत्यक्ष में हमारा सामना हुआ हो। जबकि लिखकर सोना ही लेखकीय कौशल का प्रामाणिक नमूना बन सकता है। अतः मैं बोरिशाइल्ला’ के साथ आधुनिक उपन्यासों में एकाध को छोड़ शायद ही कोई उपन्यास होगा, जो आत्मपरक शैली के खाँचे में सटीक बैठे। यहाँ तक पेंच को जबरदस्ती कसना निंदनीय है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित-स्त्री और आदिवासी साहित्य की चर्चा न हो...यह असंभव है। प्रसंगतः यह कहना उचित है कि-दलित आत्मकथा, उपन्यास और कहानी पर भारी पड़ता है। क्योंकि इसमें ’स्व’ की पीड़ा उजागर होती है। लेकिन यह पीड़ा भी कभी-कभी अतिव्याप्ति दोष से बच नहीं पाती। जूठन, उचक्का, झोपड़ी से राजमहल तक, अपन-अपने पिंजरे इत्यादि गिनी चुनी आत्मकथाओं को छोड़ अधिकांश में यही दोष दृष्टिगोचर होता है। इसमें बचपन को तोड़ना-मरोड़ना, जवानी के साथ खिलवाड़ करना और बुढ़ापे के सहारे को भी अलग अंदाज में प्रस्तुत करना ठीक नहीं। क्योंकि एंेसी परिस्थिति में यहाँ भी काल्पनिक वर्चस्व हावी होकर पाठकों को हिमालय से चली शीतल बयार का अहसास होने लगता है। परन्तु यह हमें कभी नही भूलना चाहिए कि-जिस प्रकार हिमालय हमारे देश के लिए रक्षा कवच का कार्य करता है लेकिन इससे छेड़छाड़ विध्वश का कारक बनता है ठीक उसी प्रकार साहित्य में बाहरी प्रभाव(आत्मकथांक) रक्षक और भक्षक दोनों है। इसी प्रकार दूसरी ओर कुछ दलित-अदलित कहानिकारों को छोड़, शेष उसी लीक पर ही चलते दिखाई देते हैं। जबकि आधुनिक समय और समाज लीक से हटकर लेखन की मांग करता है, जो विशेष हो। लीक से दूर जाने में पाठकों से लेखक की सहभागिता और अंतर्संबंध अनिवार्य घटक बनकर नवीन उद्भावना करता है। परंतु वे बेचारों को....फटी-धोती, बिन-पनही और रीढ़ की हड्डी को छाती से चिपकाये गरीबों की गरीबी से किस कदर अपना संबंध स्थापित करें। इसका वास्तविक चित्रण तो अदम साहब ही करते हैं-
    आइए,  महसूस करिए  जिंदगी  के ताप को ं।
    मैं चमारों  की गली तक  ले  चलूँगा  आपको।

    जिस गली में भुखमरी की यातना से   ऊबकर।
    मर गयी है फुलिया बिचारी कल कुएँ में डूबकर।

    ×    ×    ×    ×    ×    ×    ×
    जुट गयी थी भीड़ जिसमें जोश का सैलाब था।
    जो भी था,  अपनी  सुनाने  के लिए बेताब था।   
लोग अपनी हाँकने में व्यस्त रहते हैं क्योंकि वह ठहरे शहरी। अतः अब तो यही कहकर संतोष करना पड़ रहा है कि-कल्पनाएँ यथार्थ तक पहुँचने का एक पतला-संकरा मार्ग भले बना लें, वह स्वतः यथार्थ नहीं बन सकती। जब बनने का प्रयास करेंगी तो वह फैंटेंसी में उलझकर स्वयं का रूप भी नहीं पहचान पायंेगी।
    समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श के आइने में उभरी तस्वीर कम विचारोत्तेजक नहीं। यहाँ तो मुद्रित और मौखिक माध्यमों में लगी होड़ से उत्तर-पूर्वी तथाकथित ’सबआल्टर्न साहित्य’ भी शर्म के मारे पानी-पानी हो जाय। श्लील-अश्लील बनाम मैत्रेयी-विभूति प्रकरण से लेकर हाल-फिलहाल दिग्गी के डिग्गी में सौ टके टंच की बात को कैसे भुलाया जा सकता है? भले ही राजेन्द्र यादव ’हासिल’ करने में दो कदम आगे निकल जायें। इस पर अदम जी की सटीक टिप्पणी दृष्टव्य है-
        टीवी से अखबार तक गर सेक्स की बौछार हो।
        फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो।

        बह गये कितने सिकंदर वक्त के सैलाब में,
        अक्ल इस कच्चे घड़े से कैसे दरिया पार हो।

और कहते हैं-

        एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें,
        झोपड़ी  से  राजपथ का रास्ता हमवार हो।।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है-क्या व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी को मुद्रित माध्यमों में भरपूर स्थान देकर झोपड़ी से राजमहल का रास्ता सहज हो सकता है? छोटी मुँह बड़ी बात का साहस तो कर नहीं सकता फिर भी थोड़ा साहस जुटाता हूँ तो यह तथ्य अनायास निकल जाता है कि-साहित्य व्यक्तिगत हित के निमित्त न होकर सार्वजनिक या सर्वजन होता है। अतः इसके मुख्य उद्देश्य का हनन स्वाभाविक है। पहले देखा जाता था, पढ़ा जाता था और अब लिखा जाता है तथा छापा जाता है। इस छाप को तूलिका के किसी भीरंग से भरकर रंगीन कर दिया जाता है। इतना भी ध्याान नहीं दिया जाता है कि-कौन सा रंगकृकिस रंग से मेल खाता है? गमगीन को भी चमेली के फूल से सुगंधित किया जाता है। ंऔर जहाँ सुगंध है उसे धूमिल किया जाता है। इस परिदृश्य में नारी जीवन को कठपुतली की तरह प्रस्तुत करना उचित नहीं। यह बात अलग है कि नारी की परछाई भी शक्तिस्वरूपा ब्रह्मनंद सहोदर से मेंल खाती है। यह माया भी है लेकिन आधुनिक नारियों की माया से अलग। जो लेखक वृंद सहजतापूर्वक इन रूपों को केन्द्र में रखकर लेखन कार्य में व्यस्त हैं उन्हें-साधुवाद।
    अन्ततः आदिवासी साहित्य के पल्ल्वन को शामिल करने में गर्व का अनुभव होना लाजमी है। लेकिन इस बिखरे और मौखिक रूप मंे हमें प्र्राप्त है। अधिसंख्य जनता न ही इसे पढ़ सकती है, न समझ सकती है। यहाँ अनुवाद के सहारे ही जीना मजबूरी है। लेकिन जहाँ तक मैं अपनी सीमा में रहकर जाना-पहचाना और कह रहा हूँ कि-यह साहित्य अपने मूल रूप् में वैसा नहीं जैसा पढ़ा या समझा जाता है या जबरिया समझने का प्रयास केया जाता है अपितु यह इससे भी बहुत आगे है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही हो सकता है कि-भारोपीय परिवार में हो, उरॉव, मुंडा की समझ रखने वालों की संख्या अत्यल्प है। जो लोग इसे समझने वाले हैं, उनमें अधिकांशतः महानगरीय जीवन-शैली से प्रभावित होकर वस्तुतः अपने मूल उद्देश्यों से लगभग दूरी बना रहें हैं। जबकि रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल आदि लेखिकावों में इसका पूर्ण परिपाक मिलता है। परंतु इस संदर्भ में एक प्रश्न लाजमी है-क्या आदिवासी साहित्य पर केन्द्रित महानगरीय गोष्ठियाँ उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में अपना योगदान दे सकती है? विगत वर्षों में हमने देखा कि- ऐसी गोष्ठियाँ अमरकंटक, डाल्टनगंज और उत्तर-पूर्व में हुई लेकिन छत्तीसगढ़ में नहीं। इसमें कोई दो राय नही ंकि इनमें नये-नये विचार आते हैं। कुछ नयी योजनाएँ भी बनती हैं। लेकिन तथाकथित अन्त्यज और गिरिजन कहे जाने वाले आदिवासी कितने शिरकत करते हैं। क्या इनके जीवन में अपेक्षित क्रांतिकारी परिवर्तन आया। यदि नही ंतो क्या इनके कारणों की खोज की गयीं? ये प्रश्न अभी भी अंधेरे में है और शायद भविष्य में भी ऐसे ही रहें।  इतना तो अवश्य है कि-इससे बड़े-बड़े आलेखों से संपादित पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा अवश्य बढ़ा रहें है। यह शोभा आथर््िाक संबल प्रदान करने में भी सहायक है। जबकि प्रयास तो यह होना चाहिये कि-इस सैद्धांतिक वर्चस्व को तोड़कर इसकी व्यवहारिक उपादेयता सिद्ध किया जाय। क्योंकि सिद्धांत ही व्यवहार पर हावी होकर तांडव नृत्य कर रहा है। हो सकता है नटराज के इस रौद्र रूप को देख कुछ लोग सहम जाय और कुछ बोलकर चुप  भी हो जाय । लेकिन इसकी टंकार बुत दूर तक सुनायी देंगी।
    ंअतः समकालीन साहित्य का पुनर्लेखन एक चुनौती से कम नहीं क्योंकि इसकी गद्दी पर विराजमान आकाआंे से भयभीत मन की कातर पुकार कोई नहीं सुनता। भले ही इसे अनसुना कर दिया जाय परंतु एक तथ्य स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि-साहित्य में आयी बाढ से खतरा भी है और लाभ भी। खतरा इस बात का हैकि कहीं यह तहरी न बन जाय और लाभ निःसंदेह साहित्यिक है।
(उपर्युक्त विचार लेखक के स्वयं के विचार हैं, इससे किसी भी समुदाय विशेष का योगदान नहीं। 30/07/13 )





गुरुवार, 13 जून 2013

दलित विमर्श

दलित  विमर्श 


विगत वर्ष एक सेमिनार के दौरान एक मैडम ने पति-पत्नी सम्बन्ध पर व्यंग्य किया और तुरंत तुलसी के ढोल गंवार को कुछ इस प्रकार कह डाला-

ढोल, गंवार, शूद्र, पति, घोड़ा, जितने मारो उतने थोडा |

(वैसे मैं भी हरिजन सदृश्य लोगों को शूद्र नहीं मानता, वास्तव में समाज का वह प्रत्येक व्यक्ति शूद्र है, जो गरीब हो-हरि नारायण ठाकुर)

गरीबी की न कोई जाति होती है और न ही किसी धर्म के अधीन यह संचालित होता है, अपितु इससे सभी प्रभावित है.........क्या सवर्ण-अवर्ण-नारी-पुरूष-साधु-भिखारी, सब इससे त्रस्त हैं | आज हमने अपनी कोरी आँखों से देखा कि-एक तथाकथित सवर्ण कहा जाने वाला खेतिहर किसान धन के अभाव में अपने रोग का निदान नहीं कर सका और मजबूरन काल की और अग्रसरित होने लगा | गाँव के जाने-माने लोगों ने वाचिक सहयोग भी किया लेकिन यह अपर्याप्त रहा ...! धन्य है भारत देश...! धन्य हैं यहाँ की जनता ...!...धन्य है भारत सरकार...! यदि सरकारी अस्पताल में सुविधापरस्त डाक्टर अपने कार्य को ईमानदारी से करें तो शायद सरकार के प्रयास और उसके कारिंदे प्रशंसा के पात्र भी होंगे..परन्तु वः तो अपनी दुकान चलाने में व्यस्त हैं..ऐसे में उनसे सेवा और स्वास्थ्य की कामना करना घोड़े को चने खिलाने जैसा है क्योंकि जिस प्रकार घोड़ा चना खाने के बाद भी पैर मारता है ठीक वैसे ही ये नौकर(सेवक कहने में शर्म आती है..सरकारी डाक्टर) मोटी-तगड़ी तनख्वाह और कर हजम करने बाद रोगियों को पैर ही मारते हैं....काश ये व्यावहारिक होते...?

भारत के गाँव अंधविश्वास के कारण तीव्र विकास की गति में पीछे हैं....आज भी यह चौतरफा वर्चस्व स्थापित किया है। कुछ पढ़े लिखे-लिखे लोग भी जंतर-मंतर पहनते हैं ,झाड़-फूँक करवाते हैं और विरोध करने पर अथर्वेद का हवाला देकर प्रतिवाद करते हैं ....�हाय रे जमाना .....? 

सोमवार, 13 मई 2013

भारत में स्त्री मुक्ति और स्त्री स्वातंत्र्य की चर्चा अक्सर की जाती रही है | लेकिन पुरूष स्वातंत्र्य और पुरूष शोषण की बात करने में अक्सर कंजूसी बरती जाती है | इसका प्रमाण धारा ३७६ के दुरूपयोग से मिलता है | हमने इसे अपनी आँखों से देखा है | वाकया गाँव के प्रथम व्यक्ति से सम्बंधित है| पूरा गाँव उस व्यक्ति के समर्थन में अभी भी है लेकिन एक औरत ने उन पर आरोप लगाया है कि-अमुक व्यक्ति विगत तीन वर्षों से हमारे साथ सम्बन्ध बना रहा है | बात यहीं तक रहती तो इसे सत्य मानने में कोताही नहीं लेकिन उसने थाना-मजिस्ट्रेट के सामने अलग-अलग बयान दिया है | यहाँ तक कि-उसने ७० हजार रूपये और एक चेन की भी मांग अप्रत्यक्ष रूप से लगाया है |उत्तर प्रदेश पुलिस की बातें निराली है, बिना जाँच लिए इस घटना को सत्य मानकर ३७६ का आरोप तय कर दी | जबकि उस व्यक्ति से दूर-दूर तक उससे कोई सम्बन्ध नहीं | यहाँ तक कि-यह भी जानकारी मिली है कि-यहाँ जेल में इस मुकदमे में कुल ७०० लोग सजा भुगत रहें हैं, जिसमे नब्बे फीसदी पर झूठ-मूठ का आरोप है | क्या बच्चा, क्या जवान, क्या बूढा हर व्यक्ति इस समस्या से जूझ रहा है | कहावत सटीक है-एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है लेकिन जब तालाब का पानी सूख गया हो तो वह क्या कर सकती है | ऐसे ही हमारे समाज के रक्षक ही भक्षक बनकर पीड़ित को और पीड़ा पहुंचाते है तथा अपराधी स्वतन्त्र विचरण करते हैं | नारी की गरिमा और उसकी अस्मिता की पहचान उसकी आबरू से होती है लेकिन क्या यह घटना नये विमर्श की मांग नहीं करती |

महामारी


अकाल के बाद यह
रोग बनकर आती है,
सताती है, जलाती है
रूलाती है, सुलाती है |
दिन को भी रात और
रात को भी दिन बनाती है |
कार्य दिवस में बड़े बाबू को
चमत्कार दिखलाती है |
हाय ! यही महामारी उसे
स्वप्न में भी उठाती है |
गिरता हुआ व्यक्ति भी
ओहदा का ध्यान नहीं रखता
अपना ही पेट भरता है
भरता चला जाता है |
दूसरों का निवाला निगलते-निगलते
राक्षस ही बन जाता है |
यह वही महामारी है जो
सभ्यता को कहीं का नहीं छोडती
शिक्षा में लग जाने से
इंजीनीयर-डाक्टर के फेर में
बेकारी को ही बुलाती |
ओह.....! यही महामारी उसे
असमय बेरोजगार ही बनाती |
गावो-शहरों के बीच
के भेद को भी निताती है
जाति-पात से ऊपर उठाकर
इंसान कहलाने पर भी
विवश उसे कराती है |

०२/०४/२०१३

रविवार, 28 अप्रैल 2013

चंचल मन

चंचल मन


चंचल मन के कोने में
एक ऐसी जगह बाकी है,
जहाँ केवल प्रेम और स्नेह
सहजता से पा सकता आश्रय |
कभी-कभी घृणा-प्रेम पर मारी
कभी स्नेह से पराजित होकर
कर लेता किनारा, ढूढता दूजा सहारा ||

........डा.मनजीत सिंह......

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

दलित कहानी का सच : संवेदनशील भाषा और समाज

दलित कहानी का सच : संवेदनशील भाषा और समाज

1

(दाग दिया सच के सन्दर्भ में )


हाल ही में हमने कई दलित कहानियाँ पढ़ी | एक बात तो लगभग सभी कहानियों में दिखाई दी-इन काहानियों में अन्य पुरूष शैली का प्रयोग कम देखने को मिलता है इसकी जगह प्रथम पुरूष शैली का प्रयोग ही लेखक स्वय उपस्थित होकर करता है | ऐसे में ये कहानियाँ कभी-कभी लेखक के आत्मविश्लेषण का संक्षिप्त दस्तावेज ही प्रतीत होती हैं | वैसे भी दलित कहानियों में हासिये पर जीवनयापन करने वाली लगभग सभी जातियों (यथा-पैशाचिक-मुद्राराक्षस में नाई, अस्मिता लहू-लुहान-बुध्चरण जैन में चंदर बनिया, दाग दिया सच-रमणिका गुप्ता में कुर्मी महतो की लड़की और चमार का लड़का इत्यादि ) को शामिल करने का प्रयास सराहनीय है | बहरहाल एक बात गले से नीचे नहीं उतरती है-आखिर आधुनिक कहानीकारों ने ग्लोबल प्रभाव तले बदलते परिवेश में दलित साहित्य का वर्णन क्यों नहीं कर रहें हैं ? अब समय बदला, ज़माना बदला, समाज भी बदल गया तो दलित पात्रों की स्थिति भी बदलनी चाहिए | जिस बनिए की बात बुद्धचरण जी कर रहें हैं-वह या तो समाज में अपनी स्थिति पूरी तरह परिवर्तित कर चुका है या उस स्थिति में नहीं हैं कि उसे दलित साहित्य में स्थान दिया जाय | रमणिका गुप्ता ने अवश्य एक नयी बहस को दाग दिया सच में शामिल किया है | क्योंकि इन्होने इस कहानी को पूर्णतः देशज स्वरूप दिया है | इसका प्रमाण हमें बीच-बीच में जिस तरीके से पात्रों को उपस्थित कराते हुए अन्य पुरूष शैली का प्रयोग कराती हैं उससे कहानी की नयी परत ही खुलती है | एक उदाहरण देख सकते हैं-जब महावीर और मालती के प्रेम सम्बंधों का विरोध करते तासा पार्टी के नौजवान, थाने के इन्स्पेक्टर का कुर्मी होना और बुजुर्गों द्वारा मालती के पिता को यह कहते हुए डांटना-"क्या मरजी है बेटी चमार के साथ व्याहानी हैं क्या ? बिरादरी में रहना है या नहीं ? दस दिन के अंदर ब्याह कर दो लड़का खोज के, नहीं तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा | बिरादरी की इज्जत बर्बाद कर रहे हो |...........यह तो रही तथाकथित बुजुर्गों की धौंस भरी भाषा | अक्सर यह देखा गया है कि-जब कोई भी व्यक्ति किसी कमजोर पर अपना क्रोध जाहिर करता है तो उसकी भाषा भी उससे ऊँची होती है(इसे लोक बनाम-देशज, देशज बनाम साहित्यिक या साहित्यिक बनाम आंग्ल के रूप में भी आत्मसात कर सकते हैं )|
इस प्रकार बेचारा बुधन गिडगिडाकर कहता है-"इतनी जल्दी कैसे 'कुटुंब' मिलती बाबू ! फिर धोकर का बेटा तो लायके ही है | के देखे है आज कल जाट-पात | हमर पास तो पैसा-कौड़ी भी तो नाय है | आज-कल जात वाला सब जो कोलयरी की नौकरी पाया गया है मोटर साइकल और टी. वी. माँगो है-हमर थीं (पास) कहाँ से इतनी रकम आवेगी | आप सब भी तो तैयार ण है हमर घर शादी करे खातर |......."बुधन के एक एक शब्दों से आंचलिकता का एहसास होता है | भाषा के अतिरिक्त इस कहानी को दलित कहानियों के कोलाज में स्थान देतें हैं तो इसे किसी भी कों से ऊपर ही चिपकाना पड़ेगा | क्योंकि इसमें महावीर को कूच-कूच कर मारना, रमणिका गुप्ता द्वारा 'दाऊ टू ब्रूटस' से महावीर की तुलना तथा रात भर महावीर के लाश को रखकर जश्न मनाना और यह दुहाई देना कि-इज्जत बच गयी थी उनकी-उनके समाज की और उनकी औरतों की !इज्जत औरतो के जो पुरूषों ने दे रखी थी औरतों को ताजिंदी गुलाम बने रहने के एवज में | कुर्मी की बेटी के आशिक को मार दिया गया था | सब औरतें खुश थीं | समाज खुश थ | लेकिन धोकर बेचारा सब्र कर लिया था जैसे उसके जीवन में मीठे फल की आकांक्षा हो | लेखिका ने इसके अंत में एक साथ कई प्रश्नों को हमारे समक्ष छोड़ जाती हैं | क्योंकि वह स्वय धोकर के मुँह से महावीर-मालती की कहानी सुनकर बैचैन हो जाती है | अपनी छटपटाहट दिखाने के लिए कहती है-गाँव के लोग कहते है-धोकर पर महावीर का भूत सवार है | हाँ महावीर का भूत सवार है धोकर पर चूँकि धोकर एक मनुष्य है ! ऐसा हादसा देखने वाले किसी मनुष्य पर भूत सवार हो सकता है-उस घटना का भूत-हत्यारों का भूत-मृतकों का भूत-अगर वह संवेदनशील मनुष्य है ! और धोकर मनुष्य है-मनुष्य था और मनुष्य रहेगा ! भविष्य में मानवता की चिंता से व्यग्र लेकिका ने दलित साहित्य को एक दर्जा ऊपर स्थान दिलाती हैं |
(यह मेरे अपने विचार है: इससे किसी समुदाय को ठेस पहुँचती है तो क्षमा सहित-डा.मनजीत सिंह )


दलित साहित्य और नारी


दलित साहित्य में नारी की क्रांतिकारी भूमिका का साक्षात् प्रतिरूप आज हमारे गाँव में दिखाई दिया | उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में स्थित परसिया नामक गाँव, जो कि बलिया शहर से १४ किमी पूरब(हजारी प्रसाद द्विवेदी के गाँव के पास) स्थित है | सुबह एक ऐसी घटना घटी जिसे सुनकर मैं दंग ही नहीं हुआ अपितु इनसे एक नयी आशा की किरण जगी | मै अपनी माता जी से बाते कर रहा था कि-सड़क पर एक मृत शरीर को दाह संस्कार के लिए ले जाती हुई जनता की आवाज सुनाई पडी |(राम नाम सत्य है ) | मेरी माँ ने बताया कि-श्यामलाल के घर में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी है, जिसे कंधा पर ले जाने में पुरुषों के साथ औरतें भी थी | ऐसी बात नहीं कि उनके घर में चार पुरूष नहीं अपितु महिलाओं ने ही आगे आकर इसमें हिस्सेदारी की | क्या इस घटना में नयी सुबह और नयी किरण का एहसास नहीं होता प्रतीत हो रहा है ?

२३/०४/१३

रविवार, 21 अप्रैल 2013

दलित कहानी का सच

दलित कहानियों का सच : संवेदनशील भाषा और समाज

          1

(दाग दिया सच के सन्दर्भ में )


                     हाल ही में हमने कई दलित कहानियाँ पढ़ी | एक बात तो लगभग सभी कहानियों में दिखाई दी-इन काहानियों में अन्य पुरूष शैली का प्रयोग कम देखने को मिलता है इसकी जगह प्रथम पुरूष शैली का प्रयोग ही लेखक स्वय उपस्थित होकर करता है | ऐसे में ये कहानियाँ कभी-कभी लेखक के आत्मविश्लेषण का संक्षिप्त दस्तावेज ही प्रतीत होती हैं | वैसे भी दलित कहानियों में हासिये पर जीवनयापन करने वाली लगभग सभी जातियों (यथा-पैशाचिक-मुद्राराक्षस में नाई, अस्मिता लहू-लुहान-बुध्चरण जैन में चंदर बनिया, दाग दिया सच-रमणिका गुप्ता में कुर्मी महतो की लड़की और चमार का लड़का इत्यादि ) को शामिल  करने का प्रयास सराहनीय है | बहरहाल एक बात गले से नीचे नहीं उतरती है-आखिर आधुनिक कहानीकारों ने ग्लोबल प्रभाव तले बदलते  परिवेश में दलित साहित्य का वर्णन क्यों नहीं कर रहें हैं ? अब समय बदला, ज़माना बदला, समाज भी बदल गया तो दलित पात्रों की स्थिति भी बदलनी चाहिए | जिस बनिए की बात बुद्धचरण जी कर रहें हैं-वह या तो समाज में अपनी स्थिति पूरी तरह परिवर्तित कर चुका है या उस स्थिति में नहीं हैं कि उसे दलित साहित्य में स्थान दिया जाय | रमणिका गुप्ता ने अवश्य एक नयी बहस को दाग दिया सच में शामिल किया है | क्योंकि इन्होने इस कहानी को पूर्णतः देशज स्वरूप दिया है | इसका प्रमाण हमें बीच-बीच में जिस तरीके से पात्रों को उपस्थित कराते हुए अन्य पुरूष शैली का प्रयोग कराती हैं उससे कहानी की नयी परत ही खुलती है | एक उदाहरण देख सकते हैं-जब महावीर और मालती के प्रेम सम्बंधों का विरोध करते तासा पार्टी के नौजवान, थाने के इन्स्पेक्टर का कुर्मी होना और बुजुर्गों द्वारा मालती के पिता को यह कहते हुए डांटना-"क्या मरजी है बेटी चमार के साथ व्याहानी हैं क्या ? बिरादरी में रहना है या नहीं ? दस दिन के अंदर ब्याह कर दो लड़का खोज के, नहीं तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा | बिरादरी की इज्जत बर्बाद कर रहे हो |...........यह तो रही तथाकथित बुजुर्गों की धौंस भरी भाषा | अक्सर यह देखा गया है कि-जब कोई भी व्यक्ति किसी कमजोर पर अपना क्रोध जाहिर करता है तो उसकी भाषा भी उससे ऊँची होती है(इसे लोक बनाम-देशज, देशज बनाम साहित्यिक या साहित्यिक बनाम आंग्ल के रूप में भी आत्मसात कर सकते हैं )|
                          इस प्रकार बेचारा बुधन गिडगिडाकर कहता है-"इतनी जल्दी कैसे 'कुटुंब' मिलती बाबू ! फिर धोकर का बेटा तो लायके ही है | के देखे है आज कल जाट-पात | हमर पास तो पैसा-कौड़ी भी तो नाय है | आज-कल जात वाला सब जो कोलयरी की नौकरी पाया गया है मोटर साइकल और टी. वी. माँगो है-हमर थीं (पास) कहाँ से इतनी रकम आवेगी | आप सब भी  तो तैयार ण है हमर घर शादी करे खातर |......."बुधन के एक एक शब्दों से आंचलिकता का एहसास होता है | भाषा के अतिरिक्त इस कहानी को दलित कहानियों के कोलाज में स्थान देतें हैं तो इसे किसी भी कों से ऊपर ही चिपकाना पड़ेगा | क्योंकि इसमें महावीर को कूच-कूच कर मारना, रमणिका गुप्ता द्वारा 'दाऊ टू ब्रूटस' से महावीर की तुलना तथा रात भर महावीर के लाश को रखकर जश्न मनाना और यह दुहाई देना कि-इज्जत बच गयी थी उनकी-उनके समाज की और उनकी औरतों की !इज्जत औरतो के जो पुरूषों ने दे रखी थी औरतों को ताजिंदी गुलाम बने रहने के एवज में | कुर्मी की बेटी के आशिक को मार दिया गया था | सब औरतें खुश थीं | समाज खुश थ | लेकिन धोकर बेचारा सब्र कर लिया था जैसे उसके जीवन में मीठे फल की आकांक्षा हो | लेखिका ने इसके  अंत में  एक साथ कई प्रश्नों को हमारे समक्ष  छोड़ जाती हैं | क्योंकि वह स्वय धोकर के मुँह से महावीर-मालती की कहानी सुनकर बैचैन हो जाती है | अपनी छटपटाहट दिखाने के लिए कहती है-गाँव के लोग कहते है-धोकर पर महावीर का भूत सवार है | हाँ महावीर का भूत सवार है धोकर पर चूँकि धोकर एक मनुष्य है ! ऐसा हादसा देखने वाले किसी मनुष्य पर भूत सवार हो सकता है-उस घटना का भूत-हत्यारों का भूत-मृतकों का भूत-अगर वह संवेदनशील मनुष्य है ! और धोकर मनुष्य है-मनुष्य था और मनुष्य रहेगा ! भविष्य में मानवता की चिंता से व्यग्र लेकिका ने दलित साहित्य को एक दर्जा ऊपर स्थान दिलाती हैं |
(यह मेरे अपने विचार है: इससे किसी समुदाय को ठेस पहुँचती है तो क्षमा सहित-डा.मनजीत सिंह )

रविवार, 14 अप्रैल 2013

दलित साहित्य के सूर्य- बाबा साहब अम्बेडकर

बाबा साहब अम्बेडकर जन्मदिन विशेष-१४ अप्रैल २०१३ 


दलित साहित्य के सूर्य- बाबा साहब अम्बेडकर


बाबा साहब भीमराव आंबेडकर दलित साहित्य के सूर्य थे | उनकी प्रखर प्रतिभा का आकलन इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने दलित साहित्य में आत्मसम्मान और आत्म गौरव का भाव जगाया | हरिनारायण ठाकुर ने 'दलित साहित्य का समाजशास्त्र' ( पृष्ठ १७५ ) में  "दलित आंदोलन पर विस्तृत काम करने वाले इ. जिलियट के लेख 'गौरव का लोकगीत : समकालीन दलित विश्वास के तीन घटक' का उल्लेख करते हैं, जिसकी शुरूआत अंबेडकर की मराठी कविता से हुआ है | इसके साथ ही वे उसका हिन्दी अनुवाद भी किये-यथा-
हिन्दुओ को चाहिए थे वेद,
इसलीए उन्होंने व्यास को बुलाया, जो सवर्ण नहीं थे |
हिन्दुओ को चाहिए थे महाकाव्य ,
इसलिए उन्होंने वाल्मीकि को बुलाया, जो खुद अछूत थे |
हिन्दुओ को चाहिए था एक संविधान ,
इसलिए उन्होंने मुझे (अम्बेडकर) को बुलाया |
इस प्रकार अम्बेडकर ने महसूस किया उस पीड़ा को जो दाग दिया सच(रमणिका गुप्ता) में महावीर और मालती ने झेला था, जीवन साथी (प्रेम कपाडिया) बनकर रेखा ने झेले, चंदर ने अपनी अस्मिता को लहूलुहान (बुद्धशरण हंश ) करके वैश्यालय में माँ का दर्शन किया था और उस वैश्य में ही दुर्गा एवं सहक्ति का सानिध्य पाया | इसके अतिरिक्त ओमप्रकाश वाल्मीकि का तो यहाँ तक कहना है कि, " डा. अम्बेडकर ने गाँव को भारतीय गणतंत्र की अवधारणा का शत्रु माना | उनके अनुसार-हिंदुओं की ब्राम्हणवादी और पूंजी वादी व्यस्था का जन्म भारतीय गाँव में होता है |(दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र-ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ-३१)  कुल मिलाकर अदम गोंडवी ने जिस ताप को निम्न गजल में महसूस किया, कमोबेश अम्बेडकर ने भी महसूस किया-
आइए, महसूस करिये जिंदगी के ताप को |
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको |

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊबकर |
मर गयी फुलिया बिचारी कल कुएँ में डूबकर |

है सधी सिर पर बिनौले-कंडियों की टोकरी |
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी |

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा |
मैं इसे कहता हूँ सरयू पार के मोनालिसा |

कैसी ये भयभीत है हिरनी -सी घबराई हुई |
लग रही जैसे कली बेला के कुम्हलाई हुई |

कल को ये वाचाल थी पर आज कैसी मौन है |
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है |

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को |
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को |

डूबते सूरज की किरने खेल रही थी रेट से |
घास का गठ्ठर लिए ये आ रही थी खेत से |

आ रही थी वो चली खोयी हुई जज्बात में |
क्या पता उसको कोई भेदिया है घात में |

होनी से अनभिज्ञ कृष्ना बेखबर राहों में थी |
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी |

चीख निकली भी तो होठों में ही घुटकर रह गयी |
छटपटायी पहले, फिर ढीली पडी, फिर ढह गयी |
*****************************
*************************
और अंत में कहते हैं-
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आयें मेरे गाँव में |
तट पे नदियों के घनी अमराईयों की छावं में |

गाँव जिसमें आज पांचाली उघारी जा रही |
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही |

हैं तरसते कितने ही मंगल लँगोटी के लिए |
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए |
अदम साहब ने जिन-जिन पात्रों को अपने गाँव में चमारों की गली (पृष्ठ-८४) तक ले जाने की बात करते हुए हरखू, मंगल, फुलिया,कृष्ना जैसे पात्रों को व्यक्त किया हैं ठीक वैसी पात्र अम्बेडकर को महाराष्ट्र में मिले, कर्णाटक सहित दक्षिण में मिले और उन्होंने ऐसे पात्रों को बहुजन हिताय दृष्टिकोण से सामाजिक स्वतंत्रता का ऐसा स्वाद चखाया, जिसके बल पर आज उनका साहित्य समकालीन साहित्य में मील के पत्थर की तरह स्थापित होकर विकास के पथ पर अग्रसर कराने को तत्पर है | इस सन्दर्भ में मैं अपने गाँव के तथाकथित हरिजन कहे जाने वाले कुनबे की ओर अपनी विहंगम दृष्टि डालता हूँ तो ऐसा दृश्य उपस्थित होता है , जिन्हें दलित कहने में मुझे शर्म महसूस होता है |(क्योंकि हरी नारायण ठाकुर जी ने भी कुछ इस तरह से माना है कि-समाज का वह प्रत्येक व्यक्ति दलित है, वह चाहे किसी भी जाति, वर्ग या समुदाय का हो, भूख की पीड़ा से त्रस्त हो ) अतः हमारा गाँव इस मायने में बहुत आगे है | गाँव की शुरूआत ही इनकी बस्ती से होती थी | लेकिन एक अनजान व्यक्ति आज जब गाँव में प्रवेश करता है तो वह भ्रम में पद जाता है कि ये माकन किन रईसों के हैं | उनके घरों में शायद ही कोई घर होगा जहाँ कोई सरकारी सेवा में न हो | दो-चार घर अभी भी तंग हैं जैसे-अमरीका, पतरू, भरत आदि लेकिन इनकी भी स्थिति इतनी पतली नहीं कि वे दो जून का के भोजन को मोहताज हों | कहने का अर्थ है कि-अब स्थिति परिवर्तित हो चुकी है |
डा0. नमजीत सिंह
१४ अप्रैल २०१३

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

लोक साहित्य पर सम्पूर्ण पुस्तक


लोक साहित्य पर सम्पूर्ण पुस्तक-'उधौ  मोंहि ब्रज बिसरत नाहीं 

(लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति विमर्श के विविध आयाम )'

लोक साहित्य अछोर क्षितिज में फैला आकाश है-लोकसाहित्य में अटल सागर जैसी गहाराई है, जंगल में पाए जाने वाले पेड़-पौधों की तरह वह अनादी है, उसमें ह्रदय से निकले हुए स्वर है | आत्मा के गीत है, मन की व्यथा-कथा है, भारत की लोक संस्कृति का चित्रपट है | वे साहित्य की अमूल्य निधि है, उनके भीतर हमारा इतिहास झांकता है, वे सही अर्थों में हमारे सामाजिक जीवन के दर्पण, इतिहास शोधक हैं | यदि इसका उपयोग किया जाय तो हमारा इतिहास सजीव, संतुलित, सर्वांगीण बन जाएगा | यह कथन हमारे अग्रज स्वरूप मित्र डा. रावेंद्र कुमार साहू का है जिनके द्वारा संपादित पुस्तक  'उधौ  मोंहि ब्रज बिसरत नाहीं (लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति विमर्श के विविध आयाम )' के फ्लैप पर छपा है | पेसिफिक पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली से हालिया प्रकाशित इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि-यहाँ एक ही स्थल पर हमें भारतीय सभ्यता में लोक के बिखरे हुए साहित्य  का दिग्दर्शन हो जाता है, वह बुन्देली क्षेत्र का हो, भोजपुरी क्षेत्र का हो, साहित्य के विभिन्न कालों में हो, आदिवासी क्षेत्रों का हो या बघेली क्षेत्र का साहित्य हो |
         रावेंद्र जी ने इसे कुल छ: भागों में विभाजित किया है, जिसका प्राण भाग-२ एवं भाग-३ को माना जा  सकता है क्योंकि इसमें क्रमशः बघेली लोक साहित्य एवं संस्कृति में अभियक्त जीवन चेतना एवं विभिन्न बोलियों में अभिव्यक्त लोक साहित्य एवं संस्कृति का मूल्यांकन विषय को समाहित किया गया है | इसमें ३२ साहित्यकारों ने अपनी लेखनी को नये कलेवर के साथ प्रस्तुत किया है | संयोग से एक कोने में मुझे भी स्थान देकर रावेंद्र जी ने "भोजपुरी लोकसाहित्य का सौंदर्य और मानवीय मूल्य" को स्थापित कराने में सहयोग दिया है | सम्पूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व भी लोक को एवं इसमें निर्मित मौखिक साहित्य को लिखित स्वरूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है | यही कारण है कि यह थोड़ी भारी भरकम(कुल४५७ पृष्ठ ) बन गयी है | मैं हृदय से रावेंद्र जी को बधाई देता हूँ |

 'उधौ  मोंहि ब्रज बिसरत नाहीं
 (लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति विमर्श के विविध आयाम )
संपादक-डा. रावेंद्र कुमार साहू
पैसिफिक  पब्लिकेशन, दिल्ली
प्रथम संस्करण-२०१३
ISBN 97893-81630-36-5
मूल्य-1200



रविवार, 20 जनवरी 2013

बेटी बचाओ........!

कविता

बेटी बचाओ........लाज बचाना अभी बाकी है ?

देश की गरिमा और महिमा
दम तोड़ते रिश्ते पर
भारी पड़ रहे हैं -
पहचान बनाने हेतु
नयी तकनीक युक्त परीक्षण
सबसे बड़ा हथियार बनकर
अभी भी कुतर रहा है.....!
समाज की दरखत को |
चूहे-बिल्ली के खेल में
निवाला बनकर फंसती हैं-बेटियाँ !
अवतरित होने के पहले ही
टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं-बेटियाँ !
डागदर साहब भी फ़कीर का चोला पहने
भीख मांगती माओं को
न ही जीवन देते औ
न ही नवागंतुक को दे रहें अवकाश !
करते रहें हैं वे हमेशा
ऐसे जीव का शोषण
जो रोने के लिए लालायित
व्याकुल मन को भी मार रहें हैं-
कभी तीन.... ! कभी चार......!
इतनी  सीमा पर विराम
लगाकर  उन्हें संतोष कहाँ
आठ, नव और सात के चक्कर में
फँसती, उलझती जाती है-बेटियाँ |
ममता के बदल मंडराते रहते
घुमड-घुमड वो आते रहते
मोह-माया के बंधन में भी नहीं फंसती-बेटियाँ |
सरकार की शैतानियत के शिकंजे में
कसती चली जाती हैं - बेटियाँ |
विश्व पटल पर विलाप करती
ईरान-अफगान की क्रूरता
कालेज को घर औ घर को
श्मशान  बनाते लोगों पर
भारी पड़ती रहती हैं -बेटियाँ |
दूर देश में जाकर भी
सीखने को तत्पर रहती हैं_बेटियाँ |
जब  कभी आहट पाती
चिहुक जाती हैं-बेटियाँ |
गाँव को शहर बनाती
उदारीकरण को मजबूत करती
आखिर  विकास के नाम पर
आधुनिक बनने पर भी
शोषण का शिकार होती हैं- बेटियाँ |
महिला संगठनों का नारा
बुलंद करती हुई देश को भी
आगे बढ़ाती जाती हैं-बेटियाँ |
चाचा-पापा, भाई-भतीजावाद में
खाप-पंचायत का शिकार होती हैं-बेटियाँ |
हलचल  मची है-हलकट जवानी से
मुन्नी की बदनामी से औ
मिस  काल की परेशानी से
अंतरजाल में सएबर क्राइम की
शिकार होती रहती हैं-बेटियाँ |
सोशल साइट्स के खेल में भी
अगली पंक्ति में होते हुए भी
निजाप नहीं पा रहीं हैं-बेटियाँ |
फेसबुक,  याहू  , ई-मेल से भी
मुक्त नहीं हो पा रही हैं-बेटियाँ |
कहते है-अनेकता में एकता ही
आजाद भारत का नारा है-
नेहरू ने पुकारा था
लोकतंत्र का प्यारा था |
आज तो बस यही दिखता है
मन-मोहन की बांसुरी भी
बेसुरी होकर स्वर को दबा देती है |
चुप्पी साधकर लोग लाज को
बचाने का बहना भार करते है
गवार बनकर देखते हैं वे
अपनी ही दाल को काली करते हैं लोग|
झूठ-मूठ के वायदों से ही
अपने घर को आबाद करके
दूसरों का घर जलाते हैं लोग|
आग की ज्वाला में भष्म होती हैं-बेटियाँ |
समुद्र की धार में भी
गंगा की निर्मलता को खोजते हैं लोग |
कहते  हैं थोड़ी सी  कसर है
लेकिन 
असली परीक्षा तो अभी बाकी है
कन्या-पत्नी की लाज बचाना अभी बाकी हैं |

डा. मनजीत सिंह १८/०१/२०१३




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