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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||

 (पृथ्वी दिवस विशेष)


 घर-घर दीप जलाएँगे

    धरती माँ को बचाएँगे ।।


फोटो-साभार

जब कोई व्यक्ति अपने परिवार, समाज, सभ्यता एवं संस्कृति से दूर होता है तो उसके द्वारा एक नई दुनिया का निर्माण होने लगता है । वैश्विक प्रभाव से ऐसे नाभिकीय परिवार स्व की आभा से दीप्त होकर न केवल घर-परिवार से दूर होते जाते हैं अपितु अपनी जन्मभूमि से भी किनारे होकर परिधि पर एक नया संसार बनाने का प्रयास करते हैं । परन्तु वह संसार लाक्षागृह से भी कमजोर होता है । यही कारण है कि माँ एवं मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर माना गया है । प्रमाणस्वरूप (साभार) रामायण का जो संस्करण मद्रास की हिंदी प्रचार प्रेस ने 1930 में जारी किया था, उसके हिसाब से यह श्लोक इस तरह है:

मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव |

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||


इस संस्करण के मुताबिक ऋषि भारद्वाज ने राम को संबोधित करते हुए यह श्लोक कहा, जिसका अर्थ है मित्रों, धनवानों और अनाजों की इस संसार में बड़ी प्रतिष्ठा है, लेकिन मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं.


दूसरे पाठों के मुताबिक यह श्लोक लंका विजय के बाद राम ने लक्ष्मण को संबोधित करते हुए इस तरह कहा:

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते |

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||

इस संदर्भ में इस श्लोक का अर्थ है 'हे लक्ष्मण, यह लंका सोने की होने पर भी मेरी रुचि का विषय नहीं है क्योंकि मां और मातृभूमि ही स्वर्ग से बढ़कर हैं.' । अतः माँ एवं मातृभूमि दोनों की महत्ता स्वतः सिद्ध है । इसके साथ ही वैश्विक महामारी में प्रकृति के अनुरूप प्रत्येक व्यक्तियों का कर्तव्य नियत है परन्तु हम जिस स्तर पर स्वयं के विकास के निमित्त जागरूक रहते हैं । वैसी ही उदासीनता धरा के प्रति दिख जाती है । अतः वर्तमान समय में इसकी सुरक्षा जन-जन का उत्तरदायित्व है । इसके बिना हम न ही इस वैश्विक महामारी से सुरक्षित हो सकते हैं और न ही रोग प्रतिरोधक क्षमता ही बढ़ा सकते हैं । इस प्रकार हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या हरियाली को बरकरार रखना ही है ।

वर्तमान समय मे प्रकृति के साथ छेड़छाड़ की घटनाओं के बढ़ने से अनियमित होते भू-स्थैतिक चक्रों को सहज ही आत्मसात किया जा सकता है । प्रसंगतः भूगोल विषय के स्थापित विद्वानों का स्मरण लाजमी है।  इनमें सविंदर सर एवं ओझा सर प्रमुख हैं । बात उन दिनों की है जब हम लोग अपने विभाग से भूगोल एवं अंग्रेजी विभाग की कक्षाओं में उपस्थित रहने का प्रयास करते थे । सर अक्सर भूगोल को सामान्य उदाहरणों से जोड़कर बहुत रोचक बना देते थे । वह पढ़ाते समय कुछ ऐसे प्रश्न पूछते थे, जिसके उत्तर को वर्तमानकालीक वैश्विक परिघटना के निमित कसौटी पर कसने का प्रयास करते हैं तो पृथ्वी की सुरक्षा खतरे में पड़ी जान पड़ती है । ऐसे ही प्रश्नों में एक प्रश्न यहाँ जायज है । ऐसी कौन सी दो जगहें हैं, जहाँ यदि कोई व्यक्ति टोपी पहनकर खड़ा हो तो वह उनमें से एक जगह गिर जायेगी । इसके उत्तर की तलाश में वे हिमालय की यात्रा कराते थे और उस समय जैसे हिमालयी चोटियों के विस्तार का सम्पूर्ण परिदृश्य आँखों के सामने दिखाई देने लगता था । हम जब कभी पृथ्वी पर भौगोलिक संकट को महसूस करते हैं तो निश्चित रूप में इसके अवस्थापना से जुड़े अवयवों की प्रतीति का एहसास होने लगता है ।


आज सुबह सबेरे विश्व पृथ्वी दिवस के अवसर पर पूर्व में किये गये आह्वान का सहज ही स्मरण लाजमी है-जन्म के समय वृक्ष लगाना । अक्सर देखते हैं कि-संतान के जन्म के समय माता-पिता उनकी शिक्षा-विवाह से लेकर घर तक की योजना के निमित्त धन जमा करने लगते हैं परन्तु प्रकृति के प्रति उदासीन रहते हैं, जो हमें जीवन देती है । हम यह क्यों नहीं सोचते कि-प्रकृति हमें देती है तो कुछ माँग भी रखती है । ऐसे में माँग-पूर्ति का नियम सर्वव्यापी बन जाता है । अतः हर-घर में जन्म के साथ वृक्ष लगाने का प्रण समय की माँग है । बिहार में एक गाँव है-नौगछिया(शायद लालू जी जन्म स्थल भी है) यहाँ हरेक बच्चे के जन्म के साथ नौ गाँछ(पेड़) लगाने की परंपरा अभी भी जीवित है । 


आंकड़े चीख-चीख कर बताते हैं कि-2020 तक 780 करोड़ पेड़ लगाना आवश्यक है । एक सर्वे के अनुसार दुनिया भर में अभी करीब 3 लाख करोड़ पेड़ है यानि औसतन प्रति व्यक्ति 422 पेड़ । लेकिन प्रति 2 सेकंड एक फुटबॉल मैदान के बराबर इन्हें बेदर्दी से काटा जा रहा है । यदि इसी क्रम में असन्तुल बरक़रार रहा तो विनाश निश्चित है ।


यह सार्वभौमिक सत्य बन चुका है कि-अत्यधिक विकास विनाश को आमंत्रित करता है । हम सड़के बना रहें हैं, शहरों से लेकर महानगरों को बढ़ा रहें हैं, जीवन-स्तर बढ़ा रहे हैं, गाड़ी चला रहे हैं, फ्रीज का खाते है,एसी में सोने को लालायित होते हैं? अंततः हम धरती के साथ दुश्मनी ही लेते हैं ।


आकड़ों पर विश्वास करें तो कार्बन उत्सर्जन में चीन, अमरीका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है । यदि यही क्रम जारी रहा तो स्वयं ही अपनी भावी पीढ़ी के गुनाहगार साबित होंगे । यह ऐसा अपराध होगा, जिसके निमित्त संविधान भी चुप होकर विलाप करने को मजबूर होगा । वह दिन दूर नहीं जब भविष्य में वैश्विक स्तर पर जमीन की जगह जल के लिए और परिवार की जगह पेड़ के लिए क्रमशः जल युद्ध और ग्रीन वार छिड़ जाय । आज हम अपने लिए हरियाली उजाड़ रहे हैं कल वह धरती के लिए हमें उजाड़ दे ।


प्रसंगतः सरकार की नीतियों को कागजों से जमीन पर उतरकर गाँव-गाँव, घर-घर दस्तक देना आवश्यक है । इसके लिए सरकार की ग्रामीण-शहरी विकास के माडलों में अप्रत्याशित परिवर्तन भी जरूरी है । इस सन्दर्भ में मित्र Sukhram Bhagat (भूगोल के विशेषज्ञ) का कहना उचित है कि-गाँवों से शहरों की ओर पलायन को रोकने के लिए हमें गाँव को शहर मानकर जीवन व्यतीत करना होगा तथा सरकार को भी शहरों से बाहर एक नया शहर विकसित करना होगा । भारत के कुछ राज्य इस पर अमल भी क्र रहे हैं-जैसे नया रायपुर, चंडीगढ़, सिकंदराबाद । लेकिन इसे सर्वत्र लागू करके धरती माता को जगाये रखा जा सकता है । 


भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ की खेती मानसून पर निर्भर रहती है । हमारे आर्थिक विश्लेषक मानसून को आधार बनाकर विश्लेषण करते है और शेयर बाजार में हलचल मचाते रहते हैं । परंतु जब हम धरती माता पर दबाव बढ़ाते हैं, कार्बन उगाहते हैं और मानसूनी जलवायु को कमजोर होकर अकाल में जीने को मजबूर करते हैं तो 1952 में नागार्जुन की लिखी कविता *अकाल और उसके बाद* के बिम्ब स्वतः विचरण करने लगते है-यथा-


कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की भई उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत हुई शिकस्त

दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद

धुँआ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद

कौवे ने खजुलाई पाँखें कई दिनों के बाद 

चमक उठी घर भर की आँखे कई दिनों के बाद ।


अतः यह तस्वीर भयावह हो सकती है क्योंकि अकाल से तप्त धरा अपना स्वरूप खोकर मानव जन समुदाय को उदासीन-नश्वर जीवन जीने को विवश करती है । अतः हमें धरती को बचाना है तो पारिस्थिकीय-पर्यावरणीय आवरण को सुरक्षित रखना होगा और जल-जंगल-जमीन की रक्षा का प्रण लेना होगा । अन्यथा हम उपभोग करेंगे और हमारी भावी पीढ़ी उपभोक्ता बनने को लालायित होती रहेगी । मिट्टी भी नसीब नहीं होगा जल तो इतिहास की किताब तक सीमित हो जाएगा या समस्त नीला ग्रह नील समुद्र में विलीन हो जायेगा । 


डॉ. मनजीत सिंह

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

सामाजिक विभेदीकरण एवं परिवारवाद का नया स्वरूप

जब मनुष्य स्वयं निर्धारित परिवार के मानदण्डों से संचालित न होकर ज़बरदस्ती थोपी गयी नैतिकता के तहत परिवर्तित अवयवों को आत्मसात करता है तो वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षतः सामाजिक रूप में विचलन को न्यौता देता है । वह उस समाज का अंग होते हुए भी दूर होता चला जाता है और विभेदीकरण की नवीन संभावनाएँ जन्म लेने लगती हैं ।

समाज के इस बदलते स्वरूप को देखकर परिवार की दो धुरियाँ स्पष्टतः दृष्टिगत होती हैं । पहले भाग का पता व्यक्ति की मनोदशा से होता है जबकि दूसरे की पहचान लगभग नामुमकिन है क्योंकि यह अदृश्य संभावनाओं द्वारा संचालित होता है । इसमें कोई दो मत नहीं कि पहला व्यक्ति प्रत्यक्ष आधारित अनुमान का शिकार होता है जबकि दूसरा वातावरण एवं परिवेश के बल पर नये परिदृश्यों का गुलाम बनता है ।

इस आधार पर वर्तमान समय में परिवार के लोगों की मानसिकता का अनुमान लगाना बहुत आसान है क्योंकि कमोबेश भारतीय संस्कृति का कोई भी कोना इससे अछूता नहीं है । अधिकांश लोग इस संकीर्ण घेरे में कैद हैं। सबसे बड़ी बात है कि वह इस घेरे को बारम्बार तोड़ने का प्रयास भी करते हैं और हर बार असफल होते हैं । इस परिघटना का शिकार कथित बौद्धिक जमात भी हैं । वे मौन निमंत्रण को नीलकण्ठ की तरह धारण करके अलग रूप में दिखाई देते हैं ।

इस प्रकार समाज का हरेक वर्ग इस दुःख मिश्रित सुख से त्रस्त है । आज देश के सभी घरों में ग्लानि एवं पीड़ा में संघर्ष जारी है । इनमें कभी युद्ध की स्थिति हो जाती है तो कभी विचारों को आधार बनाया जाता है । परन्तु जीत हमेशा दुःख की ही होती है । यह दुःख बौद्ध से इतर त्रियग लोक में विचरण करने को विवश करता है । हम यह समझ नहीं पाते कि ये दुःख कब क्रोनिक बनकर भयानक कीड़े का सहारा लेकर विध्वंशकारी परिस्थितियों को सहजतापूर्वक आमंत्रित करता है ।

कहने का आशय यही है कि-शनैः शनैः सामाजिक स्तरीकरण की यह तस्वीर बहुत डरावना होने लगती है । इसका कारण यही है कि लोग स्वयं को उस सम्पूर्ण संसार का कर्ता मान बैठता है । वह उस जगह से चालित होता है जहाँ केवल काँटे ही काँटे होते हैं । वह जोड़ने की जगह तोड़ने की माया का शिकार होता है । वह समाज के उस कुत्सित वर्ग को प्रश्रय देता है, जिसने उसे इस विभेद का पर्याय बनने को विवश किया । इस प्रकार यह तीसरा वर्ग ही सर्वस्व होकर काली खोह में विचरण करने को उसे विवश करता है । कभी-कभी आत्मघाती प्रवृतियों के उजागर होने का सबसे बड़ा कारण यह भी  बनता है ।

इस स्वरूप का निर्धारण अचानक नहीं होता । यह बहुत लंबी प्रक्रिया का प्रतिफल होता है । यहाँ पहुँचकर परिवार का यह ठूँठ वृक्ष स्वयं को सर्वेश्वर मानकर स्पिनोजा को भी लज्जित करने लगता है । उसे केवल अपना चेहरा दिखता है । वह शकुनि के पाशे में इस कदर फँस चुका होता है कि यहाँ से निकलना उसके लिए असंभव हो जाता है । वह बैचैन मुद्रा में स्वयं को उस चाहरदीवारी में कैद मानने की भूल कर बैठता है, जिसका वह हकदार ही नहीं होता ।

प्रसंगतः कुछेक प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या वैश्विक दिखते ऐसे समाज का चरम एवं परम कभी आएगा ? क्या हमारा समाज आज के उस पारिवारिक चंगुल से मुक्त हो पायेगा ? क्या सचमुच यह पाताल में जा रहा है, जिसे कथित सुधारक विकास मानते हैं ? और अंत में क्या इसमें सुधार सम्भव है ? इन सभी प्रश्नों के उत्तर अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन इसकी परिणति एक ही मुहाने पर होती है । क्रमशः इन प्रश्नों पर शोधकर्ताओं की नजर से विचार किया जाय तो निम्न निष्कर्ष निकल सकता है-

1. वर्तमान वैश्विक समाज चरम पर विराजमान है क्योंकि इससे नीचे परिवार की कोई भी इकाई नहीं गिर सकती है । अब यह भी देखने में आया है कि परिवार की परमाणविक इकाई तंग होकर केंद्र की ओर अग्रसर है । दूसरे शब्दों में न्यूक्लियर परिवार अपना वर्चस्व खोता जा रहा है । वह उस वीरान मैदान में खड़ा है, जहाँ केवल अक्षोर क्षितिज ही दिखाई देता । यहाँ वह असहाय होकर खूब चिल्लपों मचाना चाहता है लेकिन वह कर नहीं पाता । इसका सबसे बड़ा कारण आंतरिक विचलन ही है। यह विचलन कभी ह्रदय को तो कभी मन को प्रभावित करता है । दोनों का समेकित प्रभाव नुकसानदायक ही होता है ।

2. इस प्रकार परिवार के बदलते ढाँचे से मुक्ति का सबसे बड़ा उपाय मनुष्य स्वयं ही है ।

3. इस तर्क से कोई भी समाज सुधारक इनकार नहीं कर सकता है कि वर्तमान समाज पाताल की अतल गहराईयों में गोता लगा रहा है । इसे यदि विकास माने तो बड़ी भूल होगी ।

4. इसमें सुधार सभव है लेकिन यह साधना बहुत मुश्किल है ।

5. समाज में प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व जब स्वयं के व्यवहारों से निर्धारित होने लगेगा तो निश्चित रूप में परिवर्तन की लहर प्रवाहित होगी । यह लहर समुद्र की सामान्य लहरों से भी तीव्र गति से बदलाव के लिए उत्तरदायी होंगी । इसके लिए निम्न सुझाव अपेक्षित है-यथा-व्यक्ति अपने व्यक्तिगत प्रयास को प्रभावी रखे । वह समाज के परंपरागत नियमों को पूर्णतः दरकिनार न करे अपितु इसे अपने अनुरूप स्वयं पर लागू करे । अंतिम सुझाव यही है कि-भारतीय समाज को घुन्न की तरह खाने वाले लोगों को कभी भी अहमियत देना साँप को गले लगाने से भी बदतर है ।

इन प्रयासों से साफ सुथरा भारत की असली तस्वीर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगती है, जिसका इंतजार क्या परिवार, क्या समाज.........इस लोकतंत्र का जन- जन सदियों से कर रहा है । यह यथोचित होगा-


बिल्कुल अभी नहीं
लेकिन
सबेरा होगा जरूर
चाँद भी मुस्करा कर
शीतल मंद बयार को
आने को विवश करेगा ।
सूरज भी अपनी लालिमा
वापस पाकर खुश होगा ।
चिड़िया लौट  जायेगी
..........................
जन्म-जन्मांतर का धुँध
छटेगा....
छटेगा....
बिल्कुल! बिल्कुल! बिल्कुल!

©डॉ. मनजीत सिंह
21/01/22

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

पृथ्वी दिवस

पृथ्वी दिवस विशेष


घर-घर दीप जलाएँगे
धरती माँ को बचाएँगे ।।

वैश्विक महामारी में प्रकृति के अनुरूप प्रत्येक व्यक्तियों का कर्तव्य नियत है परन्तु हम जिस स्तर पर स्वयं के विकास के निमित्त जागरूक रहते हैं । वैसी ही उदासीनता धरा के प्रति दिख जाती है । अतः वर्तमान समय में इसकी सुरक्षा जन जन का उत्तरदायित्व है । इसके बिना हम न ही इस वैश्विक महामारी से सुरक्षित हो सकते हैं और न ही रोग प्रतिरोधक क्षमता ही बढ़ा सकते हैं । इस प्रकार हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या हरियाली का बरकरार रखना ही है ।
आज सुबह सबेरे विश्व पृथ्वी दिवस के अवसर पर पूर्व में किये गये आह्वान का सहज ही स्मरण लाजमी है-जन्म के समय वृक्ष लगाना । अक्सर देखते हैं कि-संतान के जन्म के समय माता-पिता उनकी शिक्षा-विवाह से लेकर घर तक की योजना के निमित्त धन जमा करने लगते हैं परन्तु प्रकृति के प्रति उदासीन रहते हैं, जो हमें जीवन देती है । हम यह क्यों नहीं सोचते कि-प्रकृति हमें देती है तो कुछ माँग भी रखती है । ऐसे में माँग-पूर्ति का नियम सर्वव्यापी बन जाता है । अतः हर-घर में जन्म के साथ वृक्ष लगाने का प्रण समय की माँग है । बिहार में एक गाँव है-नौगछिया(शायद लालू जी जन्म स्थल भी है) यहाँ हरेक बच्चे के जन्म के साथ नौ गाँछ(पेड़) लगाने की परंपरा अभी भी जीवित है ।

आंकड़े चीख-चीख कर बताते हैं कि-2020 तक 780 करोड़ पेड़ लगाना आवश्यक है । एक सर्वे के अनुसार दुनिया भर में अभी करीब 3 लाख करोड़ पेड़ है यानि औसतन प्रति व्यक्ति 422 पेड़ । लेकिन प्रति 2 सेकंड एक फुटबॉल मैदान के बराबर इन्हें बेदर्दी से काटा जा रहा है । यदि इसी क्रम में असन्तुल बरक़रार रहा तो विनाश निश्चित है ।

यह सार्वभौमिक सत्य बन चुका है कि-अत्यधिक विकास विनाश को आमंत्रित करता है । हम सड़के बना रहें हैं, शहरों से लेकर महानगरों को बढ़ा रहें हैं, जीवन-स्तर बढ़ा रहे हैं, गाड़ी चला रहे हैं, फ्रीज का खाते है,एसी में सोने को लालायित होते हैं? अंततः हम धरती के साथ दुश्मनी ही लेते हैं ।

आकड़ों पर विश्वास करें तो कार्बन उत्सर्जन में चीन, अमरीका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है । यदि यही क्रम जारी रहा तो स्वयं ही अपनी भावी पीढ़ी के गुनाहगार साबित होंगे । यह ऐसा अपराध होगा, जिसके निमित्त संविधान भी चुप होकर विलाप करने को मजबूर होगा । वह दिन दूर नहीं जब भविष्य में वैश्विक स्तर पर जमीन की जगह जल के लिए और परिवार की जगह पेड़ के लिए क्रमशः जल युद्ध और ग्रीन वार छिड़ जाय । आज हम अपने लिए हरियाली उजाड़ रहे हैं कल वह धरती के लिए हमें उजाड़ दे ।

प्रसंगतः सरकार की नीतियों को कागजों से जमीन पर उतरकर गाँव-गाँव, घर-घर दस्तक देना आवश्यक है । इसके लिए सरकार की ग्रामीण-शहरी विकास के माडलों में अप्रत्याशित परिवर्तन भी जरूरी है । इस सन्दर्भ में मित्र Sukhram Bhagat (भूगोल के विशेषज्ञ) का कहना उचित है कि-गाँवों से शहरों की ओर पलायन को रोकने के लिए हमें गाँव को शहर मानकर जीवन व्यतीत करना होगा तथा सरकार को भी शहरों से बाहर एक नया शहर विकसित करना होगा । भारत के कुछ राज्य इस पर अमल भी क्र रहे हैं-जैसे नया रायपुर, चंडीगढ़, सिकंदराबाद । लेकिन इसे सर्वत्र लागू करके धरती माता को जगाये रखा जा सकता है ।

भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ की खेती मानसून पर निर्भर रहती है । हमारे आर्थिक विश्लेषक मानसून को आधार बनाकर विश्लेषण करते है और शेयर बाजार में हलचल मचाते रहते हैं । परंतु जब हम धरती माता पर दबाव बढ़ाते हैं, कार्बन उगाहते हैं और मानसूनी जलवायु को कमजोर होकर अकाल में जीने को मजबूर करते हैं तो 1952 में नागार्जुन की लिखी कविता *अकाल और उसके बाद* के बिम्ब स्वतः विचरण करने लगते है-यथा-

कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की भई उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत हुई शिकस्त
दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुँआ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
कौवे ने खजुलाई पाँखें कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखे कई दिनों के बाद ।

अतः यह तस्वीर भयावह हो सकती है क्योंकि अकाल से तप्त धरा अपना स्वरूप खोकर मानव जन समुदाय को उदासीन-नश्वर जीवन जीने को विवश करती है । अतः हमें धरती को बचाना है तो पारिस्थिकीय-पर्यावरणीय आवरण को सुरक्षित रखना होगा और जल-जंगल-जमीन की रक्षा का प्रण लेना होगा । अन्यथा हम उपभोग करेंगे और हमारी भावी पीढ़ी उपभोक्ता बनने को लालायित होती रहेगी । मिट्टी भी नसीब नहीं होगा जल तो इतिहास की किताब तक सीमित हो जाएगा या समस्त नीला ग्रह नील समुद्र में विलीन हो जायेगा ।

डॉ. मनजीत सिंह

छाया चित्र-वैसाख की उधारी

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

#ना_काहू_से_दोस्ती_ना_काहू_से_बैर

#ना_काहू_से_दोस्ती_ना_काहू_से_बैर


आज कबीर के ये दोनों दोहे हमें प्रासंगिकता के एवज में झककझोरते हैं--आप भी इसमें शामिल हों-यथा-

कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ ।।
और
कबीरा खड़ा बाज़ार में सबकी मांगे खैर,
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर ।।

लेकिन वर्तमान परिवेश में इनकी गोटी सटीक नहीं बैठती । प्रतीत हो रहा है कि-धरती के दो ध्रुवों पर दो जीव जोर-जोर से चिल्लपों कर रहे हैं । क्योंकि इनमें एक दूसरे की आवाज पहुँच ही नहीं पा रही है । दूसरी तरफ आज न ही कोई स्वयं का घर जलाने का साहस ही कर सकता और न ही बाजार में खड़ा होकर सबकी सलामती की दुआ ही कर सकता क्योंकि वह अकेला होने का दंभ भर कर सकता है । उसे न किसी से दोस्ती है और न ही किसी से दुश्मनी ।

यदि कबीर की प्रचलित शैली में इसे आत्मसात करें तो सहज ही प्रासंगिकता सिद्ध हो जाती है । प्रसंगतः पूरब-पश्चिम की कवायद की चर्चा कर सकते हैं । और एक सामान्य प्रचलित काल्पनिक उदाहरण से इसे समझ सकते हैं । हमें अच्छी तरह याद है-पिछले वर्षों जब मैं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में था उस दौरान एक कथित प्रशासक हुआ करते थे । उनके गुणों से लोग उन्हीं की वाणी में नियमित लाभान्वित होते थे । धीरे-धीरे समय बीतता गया और वह अपनी गुणों की गठरी से आस-पड़ोस से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान मनवाने लगे । हम सभी हैरान-परेशान । लेकिन इस बात को लेकर अधिक चिंतित रहने लगे की आखिर उनका गुरू कौन हो सकता है ? क्योंकि अँधेर नगरी में गुरू-चेला की जोड़ी जगजाहिर थी । उस प्रहसन के लेखक को यह इल्म नहीं रहा की एक दिन में लिखा यह प्रहसन इतना प्रासंगिक होगा । बहरहाल हमने उस महागुरू को पकड़ ही लिया क्योंकि वह साक्षात् शिव के अवतार मानने वाले जीव थे । वे अपनी नेत्रों की ज्वाला से तमाम लोगों को भस्म कर चुके थे और आज अपने शिष्य को भी भस्म करने की ठान लिये थे। अन्ततः वही हुआ जिसका भय था-गुरू ने शिष्य का सत्यानाश कर डाला ।

अतः हम यह सहजतापूर्वक महसूस कर सकते है कि-जो व्यक्ति प्रशासनिक निर्णयों में स्वयं की विद्वता एवं ओछी ही सही परन्तु दक्षता का परिचय नहीं देता और उसमें भी कथित चाणक्यों के अनुसार शासन करने की जिद करता है उसका हस्र वही होता है । क्योंकि आज न ही मौर्य साम्राज्य है, न चंद्रगुप्त जैसा राजा और न ही चाणक्य जैसा कूटनीतिज्ञ । अपितु भले ही आज घर-घर चाणक्य मिल जायेंगे लेकिन वह हर मोड़ पर हारने को मजबूर होंगे । इस तरह कबीर के उपर्युक्त दोहे तमाम अंतर्विरोधों के साथ मित्र शक्ति की कसौटी पर खरा कैसे उतर सकता ? वह तो आत्मब्रम्ह की पराकाष्ठा है ।

विचार आप भी कर सकते हैं ।

निजी विचार

©डॉ. मनजीत सिंह

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

हम चाकर

हम चाकर "नवतेज" के

(माफी सहित)

वर्तमान भारत की समस्या विश्व्यापी है, यह दिनप्रतिदिन विकराल रूप ले रही है । कुछ दिन पूर्व यह प्रतीत हो रहा था कि-भारत इस वैश्विक आपदा से मुक्त हो जायेगा लेकिन धार्मिक असंतुलन ने सब गुड़ गोबर कर दिया । ऐसी विषम परिस्थितियों में यत्र तत्र सर्वत्र हाहाकार मचा है । परन्तु कुछ लोग इससे पूर्णतः वंचित प्रतीत हो रहे है ।

बहरहाल यही कारण है कि इनके बीच मैं पटाक्षेप करता हूँ और नव+तेज की चर्चा शुरू करता हूँ । मैथिली चरण गुप्त ने साकेत में बड़े ही सटीक लहजे में उद्घृत किया है-

राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।

राम का चरित्र स्वयं काव्य निर्मित के निमित्त उपादान कारक है । क्योंकि उस चरित्र के प्रभावस्वरूप किसी भी व्यक्ति के कवि होने की संभावना है ।

और लोकमंगल के सृष्टा कवि तुलसीदास स्वयं को दास कहते हुए अकबर की मनसबदारी ठुकराते हुए यह कहते हैं-

"हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार;
अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार?

अर्थात् वह स्वयं को श्रीराम का दास बताया एवं किसी और के अधीन कार्य करने को मना कर दिया। सही भी है प्रभुराम की चाकरी से अच्छा क्या हो सकता है ? परन्तु वर्तमान परिवेश को अपवादस्वरूप ग्रहण करें तो यह सहज ही स्वीकार्य है कि- एक सरकारी नौकर अपनी चाकरी के लिए कठिन साधना करता है लेकिन साध्य स्वरूप उसे अधिशेष ही प्राप्य होता है । इसी कारण आधुनिक समय में हमने रघुवीर की जगह "नवतेज" की चर्चा की है । हम इसी नये तेजोदीप्त प्रकाशपुंज के दास हैं,जिनकी गुलामी से मुक्ति साल में केवल तीन महीने मिलती है । उसका प्रकाश हमेशा उदित ही होता है क्योंकि वह कभी अस्त नहीं होता । यह मीडिया की गति से भी तीव्र एवं मन की गति का अवरोधक है । इनके अधीन होकर आप अपने मन की सम्पूर्ण गतियों को स्वयं के हाथों मारने पर विवश होंगे । क्योंकि इनका तेज भस्मासुर की अग्नि से भी तीव्र होता है ।

मनुष्य ऐसे प्रकाशपुंज से संचालित होकर मृत्यु को प्राप्त होने की क्षमता प्राप्त करता है क्योंकि उसके प्रभाव से वह स्वयं को चक्रवर्ती, चक्रपाणि और हिटलर की संतान समझने की भूल भी कर बैठता है । यह असर यहाँ निवास करने वाली समस्त प्रजातियों में दिख जाता है क्योंकि मातृभूमि के मुट्ठी भर इन जीवों में उपर्युक्त प्रत्यय विद्यमान मिल जायेगा । इस जहाँन का हरेक प्राणी उसी प्रकाश से प्रकाशित होता है और अपने विचारों को थोपे हुए या चम्मचीय विचारों के अधीन करके कभी सामन्त तो कभी मातहत बनने को अभिशप्त हैं ।

इस नवीन संसार की सबसे बड़ी विशेषता है कि-राज्य का हर नागरिक चौर्यवृत्ति में प्रवीण है । ये वृत्तियाँ कभी व्यावसायिक तो कभी पारिवारिक-सामाजिक रूप में दृष्टिगत होती हैं । हर व्यक्ति सामने-पीछे वाले को मूर्ख समझता है । इसका मुखिया महामूर्ख । इसी मूर्ख-युद्ध में बौद्धिक मानदंड भी जड़ होकर सीमित दायरे में बँध जाते है । जब बुद्धि सीमित हो जाती है तो वाणी भी वीणा के अधीन नहीं रह पाती और शिव ताण्डव करने और कराने को विवश करती है । यह विवशता उस समय अपने चरम पर होती है, जब तमाम शक्तियाँ आधुनिक काल के अनुरूप हो जाती हैं ।

जैसा की हमने ऊपर वर्णन किया है-इनसे मुक्ति बड़े भाग्य से मिलती है । यह मुक्ति इस बार एकाकी जीवन में मूर्ख दिवस को मिली । एकाएक प्रतीत हुआ कि-कोई हँसी-ठिठोली कर रहा है । लेकिन इस हम तो दास ठहरे, उन्हीं के अधीन होकर समर्पण भाव से भक्ति भावना में लीन रहेंगे । यह भक्ति इस समय अंतरजाल की शक्ति से द्वि-गुणित हो चुकी है क्योंकि इसने विश्व की समस्त शक्तियों को स्वयं के अधीन कर लिया है । हम साँस लेते हैं, हम खाँसते हाँ, हम डाँटते हाँ, हम सोचते है और कभी-कभी मोक्ष की कामना करते हैं तो उसी अंतरजाल से रूपायित होते हैं ।

अतः आइए परदा गिराते हैं और उस वैश्विक आपदा से मुक्त होने के निमित्त आपस में शक्ति की अराधना करते हैं ।

स्वस्थ रहें..व्यस्त रहें।
मुक्त रहें...
और सुस्त कभी न रहें ।।

(अपील-उपर्युक्त विचार नितांत निजी है । इसका किसी संस्था या प्रतिष्ठान से कोई सम्बन्ध नहीं । ये विचार व्यंग्य स्वरूप कोरोना संक्रमण के पटाक्षेप के रूप में व्यक्त किया गया है ।)

©डॉ. मनजीत सिंह

सोमवार, 30 मार्च 2020

जनहित

एकांतवास : एक चुनौती 


पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ।
उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ-अज्ञेय

एकांतवास एक बेचैनी है, जो मनुष्य को दोहरे हमले करती है । एक हमला बाहरी होता है परन्तु वास्तविक हमला आंतरिक स्तर पर होता है । यह बहुत गहरे स्तर पर उसे झकझोरकर विलाप करने को मजबूर करता है । यह रूदन सहजतापूर्वक दिखाई नहीं देता । यह स्थिति गंभीर तभी होती है, जब अंतःकरण की पुकार नायक स्वयं नहीं सुन पाता क्योंकि यह आवाज समाज में चौतरफा सुनाई देने लगती है ।

आज एकाकी जीवन को अभिशप्त हुए मात्र पाँच दिन ही बीते । ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हम ब्रह्मराक्षस से भी बदतर स्थिति को प्राप्त हो गये हैं । इतने दोनों के उपरांत अपने परिसर से बाहर निकलने का हिम्मत किया । इसका प्रयोजन भी सार्थक था-यथा-कुछ जरूरी सामान, कुछ दवाईयाँ, थोड़ी साग-सब्जी और इनसे भी अधिक कुछ पैसों की जरूरत । इन्हीं कारणों से बचते-बचते गली-मोहल्लों की सैर करते हुए भारतीय स्टेट बैंक से लगी मुख्य सड़क पर पहुँच गया । लेकिन उससे पूर्व लगी एक बस्ती में ठेले पर सब्जी बेच रहे शुभचिंतक ने हमें आगाह कर दिया कि-साहेब ! सुबह आठ से ग्यारह तक सब्जी बाजार में जाना है तथा दोपहर बारह से दो बजे तक किराने का सामान मिलेगा । इतने शब्द काफी थे । हम टूट चुके थे और मन ही मन सोचने लगे थे कि-क्या फर्क पड़ता है । एकाध दिन ऐसे ही गुजारा जाय । जब हमारी जनता पैदल यात्रा करके मंजिल पर पहुँच रही है तब हमें भी प्रयास करने में कोई हर्ज नहीं । इसी सोच-विचार में धुआँ उगलती मोटरसाइकिल सरपट दौड़ने लगी ।

इस प्रकार अब हम स्वयं के बने सन्नाटे के बीच घिरता चला गया । वीरान सड़कें, पतझड़ के मुरझाये पत्तों से पीली पड़ी थी । इस सड़क पर कभी भी हमने ई पेड़ से बिछड़े इन पत्तों को नहीं देखा होगा । इन पत्तों की अपेक्षा चींटियों की तरह रेंगते मानव अपने अपने कार्यों में व्यस्त दिखते थे । परन्तु आज वैश्विक महामारी के दुःखद परिणाम को कोरी आँखों से देखकर मन ग्लानिग्रस्त हुआ । ऐसी वीरान होते वातावरण के लिए कुछेक पर्यावरणविद प्रदूषण मुक्त भारत की कल्पना भी करने लगे हैं लेकिन उनमें से कुछ ने हवाओं के दूषित होने की शंका भी जताई है । कुल मिलाकर शहर जब गुलजार होता है, तब प्रकृति भी सहयोगी होकर उसकी रक्षा करती है । क्योंकि यहाँ के लोगों के जीवन को संचालित करने में प्रकृति की बहुत भूमिका होती है ।

वर्तमान समय में वातावरण भले अपने मानकों पर खरा उतरे और प्रदूषण मुक्त होकर नयी मिशाल कायम करे । लेकिन यह जनसमुदाय के लिए किसी काम का नहीं । क्योंकि वैश्विक आपदा ने लोगों को नये प्रकार के दूषण से ग्रस्त कर दिया है । यह व्यक्ति-परिवार और समाज कद स्तर पर सहज ही दिख जाता है । भारतीय संस्कृति की मुख्य विषेशता रही है-आत्मसात करने की । प्राचीन काल से ही वह कभी विदेशी आक्रांताओं का तो कभी मंगोल आक्रमण से लेकर अंग्रजों की संस्कृतियों को आत्मसात किया । परन्तु उक्त मानव जनित वैश्विक आपदा सम्पूर्ण भावों एवं मनोवैज्ञानिक आंकड़ों को तहस-नहस करने पर उतारू है, जिससे मुक्ति आवश्यक है । आज धर्म से लेकर वैज्ञानिक अनुसंधान तक निष्फल हो चुके हैं ।कुछ लोग धर्म के नाम पर पुनः राजनीति करने का प्रयास करते नजर आ रहे हैं लेकिन उनकी मनिवांछित आकांक्षाएँ स्वतः निर्मूल साबित हो चुकी है क्योंकि उस सन्नाटे ने हवाओं के रूख को मोड़कर रख दिया है ।

इस प्रकार वैश्विक स्तर पर एक अलग तरीके की जंग छिड़ चुकी है । इसमें नयी भूमिका में निःसंदेह चीन है लेकिन दूसरी तरफ अमेरिका के इतिहास को भी नहीं भूलना चाहिए । आज अमेरिका विश्व की महाशक्ति है । उसके पास इतनी शक्ति है कि भारत समेत अन्य छोटे-बड़े देशों को पानी पिला सकता है । लेकिन "चायनीज वायरस" ने कुछ समय के लिए अमेरिका सहित यूरोपीय देशों को भी घुटने टेकने को मजबूर किया है । दूसरी तरफ दवा से लेकर उस विषाणु से लड़ने के लिए तमाम सामग्री विदेशों को निर्यात कर रहा है । ऐसी विषम परिस्थितियों में शक का यथार्थ में परिवर्तन लाजमी है ।

अंततः यह कहने में तनिक भी संकोच है कि-एकांतवास योगी जीवन का पहला चरण है । इस जीवन की शर्तों पर जीना जरूरी है । अन्यथा जीवन किस करवट बैठेगा । इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है ।

स्वच्छ रहें, अकेले में मस्त रहें
स्वस्थ रहें, मिलजुकर व्यस्त रहें ।।

डॉ. मनजीत सिंह

गुरुवार, 26 मार्च 2020

जनहित

#जनहित_में_जारी


एकांतवास : एक चुनौती


#आज_व्यस्त_रहना_कल_स्वस्थ_रहना  भी सबसे बड़ी चुनौती है । जब हमारी यह स्थिति है (बहरहाल यह कब तक है कह नहीं सकते क्योंकि हमारे यहाँ एकांत मठ बनाने की योजना है) तो आठ गुणे आठ के कमरे में जीवन व्यतीत करने वाले परिवार (मुम्बई जैसे महानगरोंमें)की वर्तमान स्थिति क्या होगी ?#घर ही स्वर्ग है ।

अभी भी लोगों को यह अनुमान नहीं कि स्थिति अत्यंत गंभीर है । मुम्बई की धारावी जैसी बस्ती के बारे में कम ही लोग सोच सकते हैं क्योंकि अभी भी जानकार मानने की भूल कर रहे हैं कि इस वैश्विक आपदा बड़े घरों-बड़े परिवारों को सर्वाधिक प्रभावित है । जबकि यह सरासर गलत है । क्योंकि कोई भी आपदा किसी वर्ग विशेष तक कैसे सीमित हो सकती है ? इसकी न ही कोई जाति है, न ही यह किसी विशेष वर्ग की उपजात है, न ही यह महानगरीय एवं नगरीय जीवन शैली तथा अभिजात्य परंपरा की उपज हो सकती है । यदि दार्शनिक लहजे में कहें तो यह सर्वव्यापी है । क्या राजा ? क्या रंक ? उसके लिए हर घर एक समान है ।

इस प्रकार जैसे भारत गाँवों का देश है वैसे ही धारावी जैसी बस्तियाँ भारतीय संस्कृति की सूरत को बदलती हैं । अतः तथ्य के लिए मुक्त ज्ञान कोष पर भरोसा करें तो उसमें निम्न आँकड़े सहज ही मिल जाएँगे । उसमें स्पष्टतः वर्णित है कि-"धारावी एक झुग्गी बस्ती है। यह पश्चिम माहिम और पूर्व सायन के बीच में है और यह 175 हेक्टेयर, या 0.67 वर्ग मील (1.7 वर्ग किमी) के एक क्षेत्र में है। 1986 में, जनसंख्या 530,225 में अनुमान लगाया गया था, लेकिन आधुनिक धारावी 600.000 से 1 लाख से अधिक लोगों के बीच की आबादी है। धारावी पहले दुनिया की सबसे बड़ी गंदी बस्ती थी, लेकिन २०११ के अनुमान से अब मुंबई में धारावी से बडी चार गंदी बस्तियाँ हैं।"यहाँ की जनसँख्या भले ही अनुमानित है लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यहाँ के लोग सुरक्षित नहीं । धारावी जैसी चार बस्तियाँ केवल कागज पर दिख जाएँगी । लेकिन सम्पूर्ण भारत की झुग्गी-झोपड़ियों के आँकड़ों को जुटाया जाय तो इनकी जनसँख्या करोड़ों में है । इसका सबसे बड़ा भाग भारतीय रेल मंत्रालय की परती पड़ी जमीनों और रेल लाईन के साथ-साथ बसे लोगों पर भी सरसरी निगाह दौड़ा सकते हैं । । उनके लिए एकांतवास एक जुमले से बढ़कर कुछ नहीं ।

एकांतवास की सबसे बड़ी समस्या का जिक्र हमने कल किया था । वह थी रोजगार की समस्या । कल यो बेरोजगार किसानों तक हम सीमित थे लेकिन अब सबसे बड़ी बोरोजगरी मजदूर वर्ग में होना लाजमी है । ऐसे दिहाड़ी मजदूर भी भारत में है, जिनके पास न ही बैंक खाते हैं और न ही गड़ा हुआ धन, जिसके बल पर वह अपना जीवनयापन कर सके । वह बेचारे रोज की रोटी का जुगाड़ नियमित रूप में करते हैं और बचे हुए अतिरिक्त धन का सदुपयोग मनरंजन के लिए घीसू-माधव के किरदार में करते हैं । उनके लिए न ही जीवन किसी परदे से घिरा है और न ही संगम किसे त्रिमूर्ति को समर्पित हैं ।

अतः वर्तमान वैश्विक आपदा से निपटने में दूसरी सबसे बड़ी समस्या-जनता की क्षुधा-पूर्ति ही है । इसमें प्रथम निःसंदेह #घरकोस्वर्ग समझना और इस पर अमल करना है । हाल-फिलहाल मीडिया के दोनों माध्यमों से डर लगने लगा है । पहले मुद्रित माध्यम(कुछ समाचार पत्र) प्रभावित भी कर जाते थे लेकिन अब तो दोनों माध्यमों के प्रति उदासीन होना स्वाभाविक है । ऐसी विषम परिस्थिति में आज अचानक चलित विद्युत संचालित माध्यम पर नजर गयी तो उसे देख मन अधिक व्यथित हो गया । समाचार के चैनलों में कुछ रिक्शा चालक चंडीगढ़ और कुछ तो दिल्ली से मोतिहारी जाने को विवश हैं । इससे भी गम्भीर स्थिति उनकी है जो फुटपाथ पर अपना जीवनयापन करने को अभिशप्त हैं । ऐसे लोग पैदल ही अपने घर चल दिये ।

हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि-उपर्युक्त मजबूरी व्यक्तिगत न होकर सार्वजनिक है । यह देशहित में भारत के प्रत्येक नागरिकों का कर्तव्य है कि-ऐसे लोगों से दूर न भागें अपितु उनकी सहायता में नियत सामाजिक दूरी सहित आगे आये । क्योंकि यदि भारत के लोग एक होकर इस आपदा का सामना नहीं करेंगे तो समय बहुत तीव्र गति से भागेगा । इससे बड़ा आश्चर्य नहीं हो सकता है । इस समय तमाम नामी-गिरामी एवं नामांकित एन जी ओ कमोबेश काले विवर में चले गये प्रतीत हो रहे हैं । कल तक बड़ी -बड़ी डींगें हाँकने वाले विलुप्त के कगार पर हैं या इस महामारी से निपटने की रणनीति बनाने में अक्षम हैं । प्रसंगतः एक वर्ग यदि स्वास्थ्य का प्रशिक्षण लिए वार्ड ब्वाय और स्टाफ नर्स (जो कहीं सरकारी सेवा नहीं दे रहे हैं) को एकजुट करके कुछ प्रयास करते तो इस संकट की घड़ी में मजबूत कड़ी बन सकती है ।

बहरहाल एकांतवास को सन्यास की तरह आत्मसात करने में ही स्वयं के साथ सम्पूर्ण देश की भलाई है । हमें जन-जन को जागरूक करना है । वह गाँव हो, मलिन बस्तियाँ हो या राजमहल हर जगह जागरूकता अभियान चलाना है । आज भारत का लगभग हरेक नागरिक सक्रिय  संचार के साथ तीव्र गति से जीवन की दौड़ लगा रहा है । ऐसे संचारों (विशेषतः मोबाईल एवं सोशल मीडिया के द्वारा) का प्रयोग भी जागरूक करके एकान्तवासी योगी जैसे जीवन व्यतीत करने के प्रति मार्गदर्शक की भूमिका में अपनी पहचान कायम करते हुए देश सेवा में महती भूमिका निभा सकते हैं ।

अंततः आपका परिवार आपके साथ है । आप स्वयं उन्हें सुरक्षित रख सकते हैं । एक दूसरे को रोकें, टोकें और जरूरत पड़ने पर भड़के लेकिन घर को ही स्वर्ग मानकर घर में ही रहें । यह घर जहाँ भी हो, जिस रूप में भी रहे, वह आपका है और उसमें स्वर्णिम बिहान आपके परिवार का होगा । तभी देश इस आपदा से मुक्त होगा ।

स्वच्छ रहें, स्वस्थ रहें ।
व्यस्त रहें, व्यस्त रखें ।।

©डॉ. मनजीत सिंह

बुधवार, 25 मार्च 2020

ग्रामीण संस्कृति एवं एकांतवास

#जनहित_में_जारी


एकांतवास और गवईं रंग


कल शाम को अचानक सायकिल से दूध देकर लौटते माता प्रसाद जी से गुफ्तगू करने का मन किया । परिसर के मुख्य द्वार पर हमने उनसे कुछ प्रश्न पूछ लिया-जो इस प्रकार है-कोरोना को लेकर जोरई (गाँव) में लोगों के मन में कैसे भाव उमड़ रहे हैं ? क्या गाँव में लोग सतर्क हैं ? और क्या हाल-फ़िलहाल गाँव में बाहर से कोई आया है ?
उन्होंने इन तीनों प्रश्नों का जवाब इतने सहज लहजे में दिया जैसे यह आपदा उन लोगों के लिए हैं ही नहीं । बकौल उन्हीं के शब्द कि-"साहेब ! ई सब बड़े-बड़े शहर में होत हैं । गाँव में ई कहाँ पहुँचत हैं । काल्हू दुई जने बम्बई से आयेन रहें । पुलिस भी आई अउर उन लोगन के जाँच के लिए लेई गई । फिर छोड़ी दी ।" आप स्वतः कल्पना कर सकते हैं कि भारत की आत्मा जिन गाँवों में निवास करती हैं । उन गाँवों के निवासियों की उदासीनता इस कदर है ।

इसके दो कारण है । पहला शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य । शिक्षा को शामिल करने का बड़ा कारण है कि गाँव के लोगों की नयी पीढ़ी शिक्षित होकर भी जागरूक हैं लेकिन पुरानी पीढ़ी अभी भी कमोबेश उपर्युक्त दंश झेलने को अभिशप्त हैं । अक्सर यह देखा जाता है कि चैत्र का महीना किसानों के लिए स्वर्णिम अवसर लेकर आता है । हर किसान अपने साल भर की कमाई को घर में लाने को उद्दत रहता है । किसान रोज शाम को खेत के मेड़ पर खड़ा होकर गेहूँ-चना-मसूर के पके दानों को निहारता है और मन ही मन पकवान बनाकर कल्पना लोक में विचरण करता है । इस दौरान उसे शिक्षित बेरोजगार कहलाना बिलकुल पसंद नहीं होता । वह इस बेरोजगारी से मुक्त हो जाना चाहता है । ऐसे में वैश्विक आपदा भी उसे छलावा लगे तो अनुचित नहीं । आज ही अचानक फोन करने पर पता चला कि गाँव के नामी खेतिहर किसान मसूर काटकर घर लाये हैं । उनके लिए आपदा कोरोना से अधिक खेतों से अनाज का न आना हो सकता है ।

शिक्षा और स्वास्थ्य एक दूसरे के पूरक है । एक के बिना दूसरे का कोई औचित्य नहीं । इसका उदाहरण गाँवों में अक्सर दिखाई देता है । अमूमन साधारण सर्दी-जुकाम तथा हल्के बुखार में तो भभूत ही पर्याप्त होता है । वहाँ यदि डॉ. प्रशांत की पुनः स्थानांतरण हो जाय तो भी अन्धविश्वास हावी रहता है । आश्चर्य तब अधिक होता है जब झोला उठाये डागडर बाबू भी भभूत का पुड़िया लेकर घर पहुँच जाते हैं । हाल ही में हमारे आवासीय विद्यालय में एक ऐसे ही मंजर देखने को मिला, जिसकी प्रसंगतः चर्चा भर करना पर्याप्त है । अभिभावक अपने बच्चों के प्रति इतने उदासीन हो सकते हैं, इसकी कल्पना से ही रूह काँप जाय । परन्तु एक भयानक रोग से मुक्त होने के लिए अंततः अन्धविश्वास का सहारा लिया गया । इस प्रकार हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि कुछेक घरों को छोड़कर अधिकांश लोगों की मनोवृत्ति माता प्रसाद वाली है । आज इनके जैसे लाखों-करोड़ों लोग ऐसी भावनाओं के साथ वैश्विक आपदा से निपटने में कितने जागरूक हैं ।

सबसे बड़ी बाधा स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव । यदि अनुमान लगाना हो तो हम इसके आधार पर कह सकते हैं कि-भारत के लगभग तीन चौथाई जिलों में सरकारी वेंटिलेटर और गहन चिकित्सा कक्ष की स्थिति या तो दयनीय है । या है ही नहीं । सरकार के प्रयास काबिलेतारीफ है । इसमें मानव संसाधन मंत्रालय तथा नवोदय विद्यालय के अधिकारियों ने सराहनीय कदम उठाया है । इसके लिए साधुवाद । परन्तु स्थिति जितनी गम्भीर है उसके अनुरूप व्यवस्था की कल्पना का केवल अनुमान लगा सकते हैं । क्योंकि औसत स्वास्थ्य व्यवस्था में भारत 112वें पायदान पर है ।

वैश्विक आपदा को जमीनी स्तर पर पड़ताल करते हैं तो गम्भीरता स्वतः सिद्ध हो जाती है । कल शाम की घटनाएँ-एक 8 बजे के पूर्व और एक 8 बजे के बाद-उपर्युक्त कथन को अक्षरशः साक्ष्य स्वरूप वर्णित है । कल शाम मैं बाजार गया । मंडी में बहुत भीड़ थी । भीड़ कम अपितु मेला लगा था । हमने दूर से ही देखा तो फिल्म की तरह रील तैयार होने लगे। और उसके प्रतिबिम्ब में वह भयावह नजारा दिखने लगा, जिसमें वैश्विक महा मारी फैलने, लोगों के ग्लानिग्रस्त चेहरे, तंग होती गलियों की तस्वीर चलने लगी । आखिर इतनी भीड़ में कोई व्यक्ति आलू के लिए, कोई प्याज के लिए, कोई गोभी-मिर्चा-सूरन-धनिया के बदले इतनी बड़ी गलती कैसे कर सकता है ? लेकिन लोग मजबूरीवश यह करने को अभिशप्त थे । गनीमत थोड़ी तब महसूस हुई जब चालीस रुपए प्रति किलो आलू बेचने वालों को पुलिस पकड़कर ले गयी । तब जाकर थोड़ी राहत मिली लेकिन सब्जियों के राजा बाजार से कब गायब हो गये इसका अनुमान नहीं हो पाया। कहीं-कहीं तो कीमत आसमानी उछाले लेने लगा । यह स्थिति इक्कीस दिन के एकान्तवासी घोषणा के बाद आयी । लोग बेतहासा सायकिल, मोटरसाइकिल और गाड़ियों से दुकानों की ओर भागने लगे । लगभग दस बजे तक किराना स्टोर के मालिक हाथ जोड़कर लोगों की पर्ची लेकर लौटाने लगे ।

इस बीच गाँव-शहर के बीच भेदक रेखा खींचना अब कठिन नहीं है । क्योंकि अब कमोबेश गाँव में लोग स्वयं को बहुत सुरक्षित समझ रहे हैं । बहरहाल बहुत हद तक अभी भी गाँव महफूज है लेकिन इसे महफूज रखने में सरकार की कोशिश बहुत काम की हो सकती है । यदि अब ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सेवा जाँच केंद्र और बाहर से आये मुसाफिरों की पहचान पूरी तरह से सुनिश्चित नहीं किया गया तो अगले महीने की रामनवमी बहुत नीरस हो जायेगी । इसके लिए हर गाँव के लोगों को भी जागरूक होकर गाँव में आये लोगों की सूचना आपातकालीन नम्बरों के द्वारा देना अनिवार्य है । केवल सूचना नहीं अपितु उस व्यक्ति का किस-किस से संपर्क हुआ, किसके घर गया, किस-किस रिस्तेदारी में गया । अतः इसमें घर-परिवार-नातेदार-रिश्तेदार से लेकर ओहदेदार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है ।

यथार्थ आईना में तब दिखेगा जब गाँव के लिए उपर्युक्त जकड़न से निकलेंगे । गाँव घर के लोगों में जागरूकता फैलाने में उस आगामी पीढ़ी की बड़ी भूमिका बन जाती है, जो न केवल अपने घर को अपितु आस-पड़ोस और गाँव को जागरूक करे । यह जगरूकता हमें और अपने देश को बचाने में महती भूमिका निभाएगी । अतः आप घर में रहें और देश को वैश्विक आपदा से मुक्त कराने में अपनी महती भूमिका निभाये । यही राष्ट्र के प्रति सच्चा समर्पण है । हम यह कतई न सोचें कि-मैं तो गाँव में हूँ । खेत में काम करके रोग प्रतिरोधक क्षमता को बचाये रखेंगे । यह निरा भ्रम है । आप सुरक्षित रहें । आपकी सुरक्षा एकांतवास में है ।

©डॉ. मनजीत सिंह

मंगलवार, 24 मार्च 2020

राष्ट्रहित सर्वोपरि

#जनहित_में_जारी 


भारत के लोग प्रेमभाव में अधिक विश्वास रखते हैं । उनका मानना है कि-प्रेम आपसी सद्भाव एवं भाईचारे का परिणाम होता है, जिसकी प्राप्ति सामुदायिक प्रयासों के फलस्वरूप होती है । जब तक समुदाय द्वारा यह सर्व स्वीकृत नहीं हो जाता तब तक इसका कोई औचित्य नहीं है । इसी आधार पर यहाँ की संस्कृति पाश्चात्य देशों से बिल्कुल भिन्न है। शायद यही कारण है कि लोग एक दूसरे का अभिवादन भी बहुत करीब से स्वीकार करते हैं । अन्यथा अधिकांश लोग या तो दुःखी हो जाते हैं या 'अहं' की चोट से चोटिल होकर बदले की भावना से ग्रसित हो जाते हैं । इसका परिणाम कभी-कभी सुखद हो सकता है । परंतु अधिकांश समय दुःख से ही संतोष करना पड़ता है ।

इस क्रम में कुछ लोगों को व्यंजना के तराजू में वजन करने का साहस जुटाता हूँ तो निःसंदेह कुछेक सभ्य मनुष्य स्तरीय सभ्य होते हैं । उनके स्वभाव से ही सभ्यता टपकती रहती है । इसे हम इस रूप में भी देख सकते हैं । जैसे-पान खाकर सड़क पर जहाँ मन करे गन्दा(थूकना) करना, बिना पान खाये गन्दा (थूकना), मामूली बातों के बीच में थूकना । ये क्रियाकलाप अधिकांशतः जानबूझकर ही होते है । आप भी कल्पना नहीं कर सकते । एक सामान्य व्यक्ति अपने घरों में केवल स्वयं के पैरों तले असंख्य जीवाणु-विषाणु मुफ्त में लाते हैं। इसका गंभीर परिणाम भले ही बाद में दिखाई देता हो लेकिन सामान्यतः प्रारम्भिक परिणाम तो मानसिक स्तर पर दिख ही जाता है ।

प्रसंगतः उत्तर-दक्षिण की विभाजक रेखा भी  खींच सकते हैं । क्योंकि यह स्थिति उत्तर भारत में भयावह परिणाम के लिए पूर्णरूपेण उत्तरदायी है । जब हम उत्तर भारत के किसी शहर की यथास्थिति की ओर विहंगम नजर डालते हैं तो उपर्युक्त कथन स्वतः सिद्ध हो जाता है । दक्षिण की स्थिति थोड़ी सहज हो सकती है । इससे हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि-आज दक्षिण से उत्तर की ओर लोगों का पलायन (केवल महाराष्ट्र का ही उदाहरण लें) भयावह होकर ग्लानिग्रस्त कर सकता है। इसमें यदि दो-चार महानगरों से घरों की ओर पलायन को जोड़ लें तब स्थिति स्वतः गंभीर हो जाती है ।

आज कोरोना (किरौना) सम्पूर्ण विश्व को अपने आगोश  में लेने को लालायित है । यहाँ तक हालिया जैविक युद्ध से भी जटिल इस वायरस की गति उल्टी है। भले ही इसे कुछ लोग मानवजीत चीन या अमेरिका या अन्य विकसित देशों की ऊपज मान रहे हैं । लेकिन इसकी तोड़ स्वयं जन जन के हाथ में है । यदि हम जागरूक नहीं होंगे तो तमाम सरकारी-गैर सरकारी या अर्द्ध सरकारी प्रयास पूर्णतः विफल होंगे । हमें प्रण लेना है कि राहगीरों से लेकर खोमचों वालों तक, सायकिल वालों से लेकर मोटरकारों तक, गली-मोहल्लों से लेकर चौपाटी तक के लोगों को जागरूक करना है और देश को सुरक्षित करना है ।

वर्तमान समय में अफवाहों के बाजारों का सूचकांक बहुत ऊपर है । हमें तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि- जितनी तीव्र गति से शेयर बाजार में गिरावट दर्ज की गयी है । उससे अधिक तीव्र गति से अफवाह बढ़े हैं । इनमें सबसे बड़ी भूमिका नियोजित सोशल मीडिया के अग्रेषित संदेशों की है । ऐसे संदेशों की प्रामाणिकता शुरू से ही संदेह के घेरे में रही है क्योंकि इसे लिखने वाले लापता रहते हैं । दूसरी बात संदेह के लिए काफी है-तीव्र गति से प्रचार । इतनी तेजी से यह फैलता है कि इसकी कल्पना से रूह काँप जाता है । लोग इन संदेशों पर अंधविश्वासों से भी जल्दी विश्वास लोग विश्वास करते है ।
इस परिप्रेक्ष्य में अफवाहों पर अमल कैसे न किया जाय ? यह प्रश्न तमाम अंतर्विरोध एक साथ उपस्थित करता है । इनमें मीडिया की छौंक की छींक को कैसे भूला जा सकता है ।

मीडिया के पेड चैनलों की वर्तमान स्थिति पर कभी कभी रोना आता है । क्योंकि इनके कथित दक्ष पत्रकार तोते की तरह नहीं रट लगाते अपितु ....जोर-जोर से खलनायकी लहजे में आवाज निकालकर जनता को अभिमुख करने का निरर्थक प्रयास करते हैं । लेकिन कहते हैं । डूबते को तिनके का सहारा मिलता है और जनता मीडिया के इन टी आर पी लहजों को सच मानकर स्वयं असुरक्षित महसूस करने लगती है । दूसरे शब्दों में असुरक्षा की यह भावना अफवाहों का पर्याय भी है ।

अतः इस महामारी में हम सुरक्षित तभी तक हैं जब तक दूर हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हमें तमाम औपचारिकताओं को पीछे छोड़ना है और खुलकर देश को बचाना है । अतः दूर रहें और दूर रखें ।

हमें अपने लहू की रगों में यह संवेदना प्रवाहित करनी है-
1. अफवाह से बचना स्वयं का कर्तव्य है ।
2.स्वयं की सुरक्षा के लिए अनवरत प्रयास ।

©डॉ. मनजीत सिंह

रविवार, 29 दिसंबर 2019

परिवार के नये मानदंड

परिवार के नये मानदंड


वर्तमान समय में भारत का सामाजिक ढाँचा न केवल परिवर्तित हुआ है अपितु इनमें विद्रोह के नये स्वर दिन प्रतिदिन पनप रहे हैं । यह भारतीय समाज की सार्वभौमिक समस्या है, जिससे निजात मिलना लगभग मुश्किल है । इसके कारणों की समीक्षा करने से नवीन संस्कार फलित होते प्रतीत होते हैं । ये संस्कार संस्कृति के सोलह संस्कारों से इतर एक अलग एवं अनूठे प्रयोग की माँग करते हैं ।
इस प्रकार इस परिवर्धित संस्कार की रीढ़ में परिवार का आधुनिक ढाँचा ही विद्यमान है । यह ढाँचा कमोबेश "अहं" के साँचे में निर्मित होकर 'स्व' की पुकार से मजबूत होने की माँग करता है । क्योंकि अहं केवल रावण की जागीर नहीं रहा । इसका पूर्णतः भारतीयकरण हो चुका है । इसकी प्रतीति एवं व्याप्ति सर्वत्र है ।
उदाहरणस्वरूप हम किसी भी गाँव के कोने में बैठकर या घर-घर के आँगन से चलचित्र की भाँति फीचर निर्मित कर सकते है । इस संदर्भ में कोई जल्दी यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता कि हमारे घर के आँगन में तुलसी भी हरी भरी रहती है और गुलाब के पौधे भी खिलते रहते है जबकि ये खिलना एक कला है, जिसे कृत्रिम प्रकाश की जरूरत नहीं होती ।
हाल के दिनों में स्थिति अधिक गंभीर हो गयी है । क्योंकि हम विकासशील देश में निवास करते हैं । यहाँ आर्थिक संवृद्धि को बढ़ाने के लिए जूझ रहे हैं । हमारे यहाँ महँगाई-गरीबी-बेरोजगारी ऐसे बढ़ रही है, जैसे द्रोपदी की साड़ी । कहने के लिए सरकार अनेक योजनाएँ चला रही है । लेकिन इसका प्रत्यक्ष लाभ वाजिब हकदार को नहीं मिलता । जो अमीर वह वह अधिक अमीर बनकर सांसद-नेता बनने की कतार में खड़ा हो जाता है और  गरीब त्रस्त नयन से अश्रु जल धारा प्रवाहित करने को विवश होता है ।
अमीरी-गरीबी की इस खाई में गिरकर परिवार नामक आधुनिक यांत्रिक ढाँचा क्षतिग्रस्त होकर विलाप करने लगता है । सास-पतोहू-ननद के त्रिकोण में फँसा सामान्य व्यक्ति भी असामान्य होकर काँके की राह ढूढ़ने को मजबूर होता है अथवा ईहलीला समाप्त करने की ओर विवश होता है ।
पारिवारिक विचलन की भयावहता अमीरी-अमीरी में भी दृष्टव्य है । पति-पत्नी का रोजगार कब एवं किस परिस्थिति में काल से ग्रसित होता है । इसकी कल्पना से ही हृदय में कम्पन होने लगता है । कुछ वर्ष पहले हमारे करीबी के परिवार में घटी घटना उपर्युक्त कथन को सिद्ध करने में सहायक है । हमारा समाज क्रूर है । कुछ परिवार क्रूर है । नरम तो बस हमारा मन है, जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं ।
इस प्रकार निर्मित पारिवारिक मानदण्ड हमें सामाजिक विनाश की एक नयी इबारत लिखने को मजबूर करता है । यही कारण है कि धीरे धीरे लोग एकल से संयुक्त की यात्रा करने की आकांक्षा रखते हैं परन्तु आधुनिकता की चादर ओढ़कर तथा नया मुखौटा पहनकर पुनः स्व की गुफा में चक्कर लगाते रहते हैं । उन्हें भरोसा है कि आज नहीं कल, कल नहीं परसों या भले लग जाय बरसों..शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने को मिलेगा ही ।
आधुनिक पारिवारिक विचलन धार्मिक रूप में मजबूत कड़ी बनकर उपस्थित होता है । यह परिवार मंदिर-मस्जिद की उन्मुख होते दिखाई देते हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यही परिवार का धर्म हो या यही उसका यथार्थ हो अपितु यहाँ स्वार्थ की बदबू आती है । यहाँ दुःख तो सामान्य है ग्लानि-चिंता विशेष पद की अधिकारी बनकर नवनिर्माण करती है ।
बहरहाल अंत में यही कहने का साहस जुटा पाता हूँ कि-परिवार एक संस्था नहीं अपितु विचार है । ये विचार आपसी मेलजोल से बनते है और व्यक्ति को संस्कृत करके हमारी संस्कृति को नयी संजीवनी प्रदान करते हैं । सामाजिक संस्कार पारिवारिक संस्कार का पूरक है । जब परिवार बढ़ता है तो समाज बढ़ता है और दोनों मिलकर भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण बनाते हैं ।

           डॉ. मनजीत सिंह

आह से निकला गान !

आह से निकला गान !


बेटी की तेज धड़कन
सुनने के बाद भावविभोर होकर
मन के सागर में गोता लगाता
हैरान-परेशान ग़मों को पीकर
चल निकला ईश्वर के घर-द्वार |

दिल की गहराई को
बार-बार  मापने के बाद  ही
आह निकली ! पीड़ा के बरक्स
आवाज को सुनने वाले बहुत हैं ।

लेकिन

आँगन के दायरे के भीतर से
असह्य वेदना के इस  मर्म को
समझने-समझने वाला शायद कोई
जीवन की अक्षुण्ण बहती नदी के
निर्मल जल  की शोभा बढ़ाने में
सहयोग की गुंजाईश से आगे आये |

बीते पल की नुमाइश करके
बह चली एक धारा इस धरा पर
दुःख की छाया अब मद्धिम हो
अधखिले सूरजमुखी संग होकर
यौवन के संगम पर बालू की रेत में
बुढ़ापा का एहसाह तरबतर होकर
एक नयी परिभाषा गढ़ता-जाता ।।

क्रमशः

©डॉ. मनजीत सिंह

बुधवार, 5 जून 2019

काली अंधेरी रात

काली अंधेरी रात


काली अंधेरी रात
प्रकृति के आईने में
आम का पेड़
मौन होकर
याद दिलाता रहता
बार-बार
उस सामाजिक परिवर्तन को
जो हो रहा है
हर पल, क्षण-क्षण
एहसास कराता मैदान में
रेगिस्तान सरीखे
कैक्टस का...
काँटे चूभते रहने पर भी
अनजान दुनिया बेखबर
राग अलापती..अपना

......5-6 जून19.......

पर्यावरण 2

5 जून विशेष-पर्यावरण दिवस

आग लगी है जंगल में
दावानल..बडवानल...हावी हैं ...!
जठराग्नि को अपने आगोश में लेकर
आमदा है मिटाने को
यहाँ न कोई बामन
राजपूत, बनिया ..शूद्र
धुँआ देख काँपता हैं देह
नर्तक बन दौड़ते हैं बचाने
भूल जाते हैं जातीय संघर्ष |

प्रकृति की लीला देख
कभी मन बैचैन  होता
जाने-अनजाने तड़प उठता
धरती के भीतर हलुवा(मैग्मा) खाने को
दोड़ता..खींचता...चला जाता
सीता माता की याद दिलाता
हिलती-डोलती धरा के गर्भ में
लपट बनकर बुझ जाता ||

ग्लोबल-ग्लोबल-ग्लोबल
वार्मिंग-वार्मिंग-वार्मिंग
विश्व-भारत-वारत की गरिमा
हिमालय के दिल को टुकडा करते
एक्सप्रेस-वे का सपना दिखाते
भावी गाड़ियों को तीव्र गति से दौडाते
धुल-धूसरित होते पहाड़
आज नहीं तो कल
कल नहीं तो परसों
परसों नहीं लेकिन बरसों
डूबते थल को बचाने के प्रयास
पोल्डरिंग से भी विफल होने में
देर नहीं लगती ....!!
(हालेंड में समुद्र के किनारे मिट्टी भरकर जमीन तैयार करने को पोल्डरिंग कहा जाता है )

५ जून १३

पर्यावरण

पर्यावरण 


गोधूलि बेला में
दरख्त की रूदन
हरे-हरे पत्तों पर
कृत्रिम आँसूओं की धारा
धरती की बनावटी गर्मी को
अनकहे बयाँ करती है..... !

आम, नीम, पीपल,बबूल,ताड़
साल,सागौन,चीड़ औ देवदार
एक साथ वही रोना रोते....?

नदी-घाटी, पहाड़-पठार
अपने ओछेपन से तंग होकर
काल की ग्रास बनती बसुंधरा पर
मुसकाते और चिढ़ाते हुए
आह्वान करते.........!!!

सीमित होकर भी छेड़ो-काटो
फल का स्वाद भी चखा करो..?

डॉ. मनजीत सिंह
5जून2013

मंगलवार, 28 मई 2019

अपनी बात

अपनी बात :: गाँव के साथ


हम लोगों के लिए गाँव-शहर की विभाजक रेखा क्षीण है । यही कारण है कि हमउम्र-हमजोली-यारी एवं मद्धिम लोग भी कभी-कभी वाक्  युद्ध को मजबूर भी करते हैं ।परन्तु हम तो ठहरे शुद्ध गवईं। हो सकता है यहाँ की आबोहवा कुछेक तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों को सुगम न लगे क्योंकि वह तुलनात्मक सामाजिक विकास के नकली उद्धारक बनकर नवयुग की नयी विचारधारा हमारे ऊपर थोपते हैं । ये मजबूर करते है लेकिन महसूस नहीं करते ।
परिणामस्वरूप वर्तमान समय "मिलावट युग"  के रूप में अभिहित किया जा सकता है । हरेक वर्ग-वस्त्र-मिट्टी से लेकर आचार-विचार-व्यवहार-देह-मन-महल-बाग-बगीचा और पर्वत-पठार-वन-प्रान्तर जैसे कृत्रिम और प्राकृतिक स्वरूपों में मिलावट ही मिलावट दिखाई देता है । हमारे सम्बन्ध मिलावटी है। हमारे भाव मिलावटी है । प्रभाव मिलावटी है । स्वभाव मिलावटी है । कुल मिलाकर यह मिश्रण नीर-क्षीर विवेकी को भी संशय में डाल देता है ।
उपर्युक्त मिश्रण को सामाजिक स्तर पर हम हरेक परिवार में देख सकते हैं । जैसे हरेक सब्जी, हरेक मिठाई सहित छप्पन भोग की शुद्धता संदेहास्पद है वैसे ही भारत के परिवारों के वर्तमान स्वरूप को आत्मसात किया जा सकता है । एक तरफ शहर का आदमी गाँव के लोगों को कमोबेश मन से तो अछूत ही मानता है परन्तु दूसरी तरफ तंग जीवन व्यतीत करने को मजबूर है । जमीनी हकीकत से दूर दो×दो या तीन×दो के वर्गाकार-आयताकार आधे ईंट की दीवार में भास्कर-प्रभाव सहने को अभिशप्त है । यहाँ न कोई संस्कार है । न नूतन विचार है । न व्यवहार है । न संस्कृति है । एकल परिवार के इन दुष्परिणामो को सहजतापूर्वक गगनचुम्बी इमारतों में बिना ताकझाँक किये भी देखा जा सकता है ।
यही कारण है कि-हमें गाँव पसन्द है लेकिन यहाँ के लोगों में बढ़ते कुसंस्कार घृणा भी पैदा करते हैं । 

भारतीय समाज के बदलते तेवर

परिवार के नये मानदंड


   वर्तमान समय में भारत का सामाजिक ढाँचा न केवल परिवर्तित हुआ है अपितु इनमें विद्रोह के नये स्वर दिन प्रतिदिन पनप रहे हैं । यह भारतीय समाज की सार्वभौमिक समस्या है, जिससे निजात मिलना लगभग मुश्किल है । इसके कारणों की समीक्षा करने से नवीन संस्कार फलित होते प्रतीत होते हैं । ये संस्कार संस्कृति के सोलह संस्कारों से इतर एक अलग एवं अनूठे प्रयोग की माँग करते हैं ।
इस प्रकार इस परिवर्धित संस्कार की रीढ़ में परिवार का आधुनिक ढाँचा ही विद्यमान है । यह ढाँचा कमोबेश "अहं" के साँचे में निर्मित होकर 'स्व' की पुकार से मजबूत होने की माँग करता है । क्योंकि अहं केवल रावण की जागीर नहीं रहा । इसका पूर्णतः भारतीयकरण हो चुका है । इसकी प्रतीति एवं व्याप्ति सर्वत्र है ।
    उदाहरणस्वरूप हम किसी भी गाँव के कोने में बैठकर या घर-घर के आँगन से चलचित्र की भाँति फीचर निर्मित कर सकते है । इस संदर्भ में कोई जल्दी यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता कि हमारे घर के आँगन में तुलसी भी हरी भरी रहती है और गुलाब के पौधे भी खिलते रहते है जबकि ये खिलना एक कला है, जिसे कृत्रिम प्रकाश की जरूरत नहीं होती ।
हाल के दिनों में स्थिति अधिक गंभीर हो गयी है । क्योंकि हम विकासशील देश में निवास करते हैं । यहाँ आर्थिक संवृद्धि को बढ़ाने के लिए जूझ रहे हैं । हमारे यहाँ महँगाई-गरीबी-बेरोजगारी ऐसे बढ़ रही है, जैसे द्रोपदी की साड़ी । कहने के लिए सरकार अनेक योजनाएँ चला रही है । लेकिन इसका प्रत्यक्ष लाभ वाजिब हकदार को नहीं मिलता । जो अमीर वह वह अधिक अमीर बनकर सांसद-नेता बनने की कतार में खड़ा हो जाता है और  गरीब त्रस्त नयन से अश्रु जल धारा प्रवाहित करने को विवश होता है ।
    अमीरी-गरीबी की इस खाई में गिरकर परिवार नामक आधुनिक यांत्रिक ढाँचा क्षतिग्रस्त होकर विलाप करने लगता है । सास-पतोहू-ननद के त्रिकोण में फँसा सामान्य व्यक्ति भी असामान्य होकर काँके की राह ढूढ़ने को मजबूर होता है अथवा ईहलीला समाप्त करने की ओर विवश होता है ।
पारिवारिक विचलन की भयावहता अमीरी-अमीरी में भी दृष्टव्य है । पति-पत्नी का रोजगार कब एवं किस परिस्थिति में काल से ग्रसित होता है । इसकी कल्पना से ही हृदय में कम्पन होने लगता है । कुछ वर्ष पहले हमारे करीबी के परिवार में घटी घटना उपर्युक्त कथन को सिद्ध करने में सहायक है । हमारा समाज क्रूर है । कुछ परिवार क्रूर है । नरम तो बस हमारा मन है, जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं ।
     इस प्रकार निर्मित पारिवारिक मानदण्ड हमें सामाजिक विनाश की एक नयी इबारत लिखने को मजबूर करता है । यही कारण है कि धीरे धीरे लोग एकल से संयुक्त की यात्रा करने की आकांक्षा रखते हैं परन्तु आधुनिकता की चादर ओढ़कर तथा नया मुखौटा पहनकर पुनः स्व की गुफा में चक्कर लगाते रहते हैं । उन्हें भरोसा है कि आज नहीं कल, कल नहीं परसों या भले लग जाय बरसों..शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने को मिलेगा ही ।
आधुनिक पारिवारिक विचलन धार्मिक रूप में मजबूत कड़ी बनकर उपस्थित होता है । यह परिवार मंदिर-मस्जिद की उन्मुख होते दिखाई देते हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यही परिवार का धर्म हो या यही उसका यथार्थ हो अपितु यहाँ स्वार्थ की बदबू आती है । यहाँ दुःख तो सामान्य है ग्लानि-चिंता विशेष पद की अधिकारी बनकर नवनिर्माण करती है ।
बहरहाल अंत में यही कहने का साहस जुटा पाता हूँ कि-परिवार एक संस्था नहीं अपितु विचार है । ये विचार आपसी मेलजोल से बनते है और व्यक्ति को संस्कृत करके हमारी संस्कृति को नयी संजीवनी प्रदान करते हैं । सामाजिक संस्कार पारिवारिक संस्कार का पूरक है । जब परिवार बढ़ता है तो समाज बढ़ता है और दोनों मिलकर भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण बनाते हैं ।

           डॉ. मनजीत सिंह

रविवार, 27 सितंबर 2015

स्वच्छता अभियान में डेंगू का डंक

जब लोक में प्रचलित मुहावरे सच होने लगते हैं तो आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता, भूमंडलीकरण सहित समस्त काल्पनिक एवं वास्तविक सिद्धांत अपना आधार खोने लगते हैं। ऐसे में समाज द्वारा ग्रहीत सिद्धांत ही लोगों में नयी चेतना का संचार करते हैं। समाज में रहने वाला हर प्राणी अपने हाड़ं-मांस को अलंकृत करने का भरसक प्रयास करते हैं। इसी क्रम में वह अपने जीवन यात्रा को गंतव्य स्थल तक पहुँचाता है। इस यात्रा में आये पड़ाव महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। क्योकि इन पड़ाओं पर उसे परिवार, समाज, शासन-प्रशासन, सरकार से टकराना पड़ता है। इस टकराहट से निकली ऊर्जा उसे मजबूत आधार प्रदान करती है। परंतु सबसे बड़ी बिडंबना तब उपस्थित होती है जब वह उपभोग करते हुए भोक्ता बनकर ग्लानिग्रस्त होने को मजबूर होता है।
कहते हैं-सिर मुड़ाते ही ओले पड़े-लोकतंत्र की रक्षा सरकार की पहली और अंतिम प्राथमिकता होती है। इस लोकतंत्र के निमित्त तमाम योजनाएँ हर दूसरे दिन या तो बनायी जाती है या बनी हुई योजनाओं को कार्यान्वित करने हेतु सतही या कमोबेश ंगंभीर प्रयास भी किये जाते है। यह तो सर्वविदित है कि ये प्रयास कितने कारगर सिद्ध होते हैं। अनुमानतः एकाध फीसदी अपने मुकाम को हासिल करते है। इससे ’स्वच्छता अभियान’ अछूता नहीं। इसका ताजा प्रमाण दिल्ली सहित देश के अन्य राज्यों में फैले डेंगू के प्रकोप से सहज ही मिल जाता है। प्रश्न स्वाभाविक है कि-यह अभियान अपने पहली सालगिरह के पूर्व ही दम क्यों तोड़ने लगा ? तथाकथित विश्वग्राम से लेकर वैश्विक देश तक साफ-सफाई की मिशाल प्रस्तुत करते नहीं थके लेकिन डेंगू भी अपना कमाल कैसे दिखा पाया ? स्कूल-कालेज-अस्पताल-रेलवे स्टेशन से लेकर गली-मुहल्ले ंऔर महानरीय सड़कें महामारी के प्रकोप से क्यों नहीं बच रहे है ?
विगत वर्ष गाँधी जी के सपने को साकार करने के लिए प्रारंभ इस अभियान की प्रासंगिकता विवाद को जन्म देती है। यह विवाद विकास के बहाने विनाश की नयी कहानी कह रहा है। आज न केवल दिल्ली के सड़कों पर अपितु छोटे-मझोले शहरों-गाँवों में भी लगभग एक समान स्थिति है। हमें तो लगता है कि-इस अभियान के पूर्व स्थिति अधिक बेहतर थी क्योंकि हाथ में झाड़ू पकड़ के मीडिया की टी आर पी बढ़ाने में सहयोग करना लोकतंत्र के साथ घिनौना खिलवाड़ करने की तरह है। कहते हैं-
बड़ा शौक था अखबार में छपने का
सुबह होते ही रद्दी के भाव बिक गए।
हमारे नेता-परेता, नौकरशाह-बाबूशाह से लेकर सरकार के करींदों में छपने का शौक सर चढ़कर बोल रहा है। सुबह आँख खुलते ही समाचार पत्र में फोटो छप जाय, दूसरों का लिख समाचार दिख जाय तो चाँद धरती पर उतर जाता है। उनके जीवन की दैनिक दिनचर्या में शुभ-अशुभ का खसा महत्व होता है। इस शुभ घड़ी की पुनरावृत्ति कल्पनातीत होती है। लेकिन इस आभासी सुख का शिकार आम जनता होती है जो जी तोड़ मेहनत करके अपना, अपने परिवार का और अंततः सरकार का पोषण करती है, वही अंततः महामारी का शिकार बनती है।
    इस महामारी का डंक उसके जीवन में भूचाल लाने में सहायक होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार इन हत्याओं की जिम्मेदारी भी नहीं लेती और स्वयं को निर्दाेष साबित करने का भरसक प्रयास करती है। दिल्ली में जंग बनाम अरविंद के बीच हो रहे शीत युद्ध को कैसे भुलाया जा सकता है। इन दोनों में किसी ने डेंगू से निपटने का कारगर उपाय नहीं किया और एक दूसरे की टाँग खींचकर राजनीतिक कूटनीतिज्ञता को सिद्ध करने का प्रयास जारी है। हाल ही में छत्तीसगढ़ के मंत्री महोदय(स्वास्थ्य मंत्री) के कार्यक्रम में रखे पानी के पा़त्र(कृत्रिम एवं शुद्ध) में मिले बिच्छू के लिए संबंधित अधिकारियों को नौकरी का दंश झेलने को मजबूर किया जाता है। अपने माननीय प्रधानमंत्री जी के पास तो इतना समय ही नहीं कि-वह अपने देश के बारे में सोचंे। वह तो अब प्रवासी बन डिजिटल इंडिया को स्वर्णिम भविष्य के लिए आवश्यक मानते हुए अंतिम चरण की खोज में लगे हैं।

बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

विश्व खाद्य दिवस विशेष-16 अक्टूबर

विश्व खाद्य दिवस विशेष-16 अक्टूबर 

अन्न  ब्रह्म है.....खाद्यान्न संकट और सामान्य जन
 
अन्न के दाने को मोहताज
विश्व के जन जन की वेदना
आह भरती रहती दिन-रात
गेहूँ-चावल-दाल-सब्जी की
करते बड़े रोज ही व्यापार
घर में नदियाँ बहती दूध की
दाना बेचारा छोड़ता रहता साथ
कब आयेगी लौट अपने में
यही सोच बीते कई साल ||

भारत  सहित सम्पूर्ण विश्व आज खाद्यान्न संकट को लेकर चिंतित है जबकि विश्व खाद्य भण्डारण की समस्या सबसे भयावह स्थिति की तरह विकराल स्वरूप को पारिभाषित करता है | आधुनिक युग को वैज्ञानिक युग से अभिहित किया जाता है..कभी नासा, तो कभीचाँदीपुर, तो कभी कोरू से अंतरिक्ष में तमाम उपग्रह भेजे जा रहे हैं और भारत भी इसमें अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है | लेकिन क्या कभी इस संकट से उपजी महँगाई से पीड़ित सामान्य जन की ओर सरकार का ध्याननहीं जाता | संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट इस समस्या का एक ऐसा खांका खींचती है, जिसे सुनकरमन व्याकुल जो जाता है |इसमें स्पष्ट उल्लेख है कि-2002  से अब टक महँगाई 120  फीसदी टक बढ़ी है लेकिन केवल भारत में हर साल भण्डारण के अभाव में 35  फीसदी अनाज बर्बाद होता है | अमेरिका में 40  फीसदी और अन्य यूरोपीय देशों में हो रही बर्बादी नयी समस्याओं को ईजाद करते हैं | अदम गोंडवी ने इस समस्या को भूखमरी से जोड़ते हुए सटीक टिप्पणी की है-यथा-
भूखमरी  की जड़ में है या दार के साये में है |
अहले-हिंदुस्तान अब तलवार के साये में है |

छा गयी है जेहन के पत्तों पे मायूसी की धूप,
आदमी गिरती हुई दीवार के साये में है |

बेबसी का इक समुन्दर दूर टक फैला हुआ,
और कश्ती कागजी पतवार के साये में है |

हम फकीरों की न पूछो, मुतमईन वो भी नही,
जो तुम्हारी गेसुएँ-खमर के साये में है ||(धरती की सतह पर-पृष्ठ-36)
अदम  गोंडवी ने जिस भूख की पीड़ा को महसूस किया था वह पीड़ा आज भी सताती है | गाँधी जी भी कहते थे-सस्ती और आसानी से उपलब्ध साग सब्जी का आहार, जिसे गरीब लोग खरीद सकता हैं और पचा सकते हैं | लेकिन क्या गरीबों को भरपेट भोजन नसीब होता है और यदि होता है तो संतुलित आहार के मानकों पर खरा उतरता है ? क्या कभी हमने सोचा है कि-एक आदमी दिन रात म्हणत मजदूरी करते हुए अपने परिवार का भरण पोषण किस तरह करता है | खाद्य सुरक्षा के नाम पर दिन-प्रतिदिन हो रही लूट का जिमेदार कौन है ? अभी हाल ही में हमने छत्तेसगढ के एक गाँव में गया था | अचानक पहुँचने के बाद उस परिवार पर मनो पहाड़ गिर गया| परिवार के सभी सदस्य परेशान..क्या करें..घर में भूसी-भांग नहीं..कैसे करे आतिथ्य सत्कार | लेकिन भारतीय सभ्यता के कर्णधार ग्रामीण जनों की प्रवृत्ति ही इस मझधार से दूर निकालने में कामयाब हुई |
      संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1980 में खाद्य सुरखा को ध्यान में रखकर (खाद्य सुरक्षा सनाथान-रोम) जो अभियान चलाया था , वह अपना कार्य तो कर रहा है लेकिन यथार्थ की तस्वीर कुछ और बयाँ करती है | आज सम्पूर्ण विश्व इस महामारी की चपेट में आ चुका है | राह चलते हम सुनते हैं कि-भाई ! विदेशों में केवल अमीर ही बस्ते हैं...वहाँ गरीब कहाँ ? लेकिन शिक्षित जन को इस बात की जानकारी बखूबी रहती है | मैं तो जोर देकर कहना चाहता हूँ कि-खाद्य सुरक्षा और संरक्षा को लेकर जो प्रयास किये जा रहें हैं, वह केवल और केवल आँकड़ों से बढ़कर कुछ नहीं | भारत में ये आकडे अपना कारनामा भी दिखाते हैं, जिसका खामियाजा भुगतते जनता इसका प्रमाण दे सकती है | अभी हाल ही में छपरा में घटी घटना इसका ज्वलंत प्रमाण है | कुल मिलाकर मैं इतना ही कह सकता हूँ कि-
भारत के गौरव को बढ़ाना है
खाद्यान्न को बर्बाद होने से बचाना है
क्रमशः
      

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