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रविवार, 21 अप्रैल 2013

मौसम सुहाना है

मौसम सुहाना है


आँधी-पानी लेकर
बादलों ने कहर बरपाया
धरती की पीड़ा को और बढ़ाया |
लोग झाँक रहे
अपने घर की खिड़की से
सहम गया मन सहम गयी जिंदगी |
कुछ ने कहा-
भई ! वाह क्या कहना
मौसम सुहाना है यही है गहना |
महलों-राजमहलो में
बयार की आवाजाही नहीं
पवन देव तो बसते है
गाँवों औ गलियों में
असर भी छोड़ते है_
मिटाकर भी जिलाते हैं
स्वर्ग में नहीं फिर भी
नरक में रहने को मजबूर भी करते हैं ||

२०/०४/१३

मौसम सुहाना है


आँधी-पानी लेकर
बादलों ने कहर बरपाया
धरती की पीड़ा को और बढ़ाया |
लोग झाँक रहे
अपने घर की खिड़की से
सहम गया मन सहम गयी जिंदगी |
कुछ ने कहा-
भई ! वाह क्या कहना
मौसम सुहाना है यही है गहना |
महलों-राजमहलो में
बयार की आवाजाही नहीं
पवन देव तो बसते है
गाँवों औ गलियों में
असर भी छोड़ते है_
मिटाकर भी जिलाते हैं
स्वर्ग में नहीं फिर भी
नरक में रहने को मजबूर भी करते हैं ||

२०/०४/१३

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

चलते चलो

 चलते चलो   


जब तक चलोगे, चलते चलोगे |
धूप और छाँव में, खूब चलोगे |
प्रकृति के मंजर में ख़्वाब देखोगे |
समाज के आइने में रूप देखोगे |

बैठक

बैठक


1

अजब-गजब कहानी है-
दीवानापन को दूर भगाकर
लगती बड़ी सयानी है |
अमन चैन छिन ले यह
दिन-भर, जीवन भर
असमय, विस्मय कर
भागमभाग करती यह
अधिकारी-वधिकारी
भूताधारी-वर्दीधारी
चोटी-धारी, मुक्त वादन
करती चाटुकारिता को नमन
शनैः शनैः शान्त्धारा में
निमग्न होती हुई गुम हो जाय
तब कहेंगे कि-
बैठक हो रही है |

१/०४/१३

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

पुरस्कार


पुरस्कार का यथार्थ


पुरस्कार


मंच पर आने से पहले
उछल कूद करता रहता
किस पाले में गिरेगा
इसी ऊहापोह में वह रहता |
क्या राजा ! क्या रंक !
क्या लेखक ! क्या मयंक !
क्या सुधारक ! क्या मृदंग !
सर्वत्र होते हुए भी नहीं रहता
जाते हुए भी नहीं जाता
कभी इस करवट लेता
कभी उस करवट लुढकता
वरदहस्त पड़ने पर ही
ठीक से साँसे लेता |
अप्सराओं की भांति वह
ऋषि-मुनियों का ध्यान भंग करता |
अंक बटोर (ए.पी.आई.) स्पर्धा में
पीछे भी नहीं रहता |
जीते जी तो यह याद क्यों करता
मृत्यु शैया पर कफ़न बन
जोर-जोर से हुंकार भरता |
आम-खास का मानक बनकर
हैसियत को घर लाकर भावी पीढ़ी का
गले की हड्डी जो बनता |
सीख दिलाता बार-बार यह
जीवन एक काफी नहीं है मेरे लिए
एक-दो-तीन-चार -पांच
मृत्यु जरू है मुझे पाने के लिए |
हाय ! यमराज भी तंग आकर
कर देते नीलाम उन पुरस्कारों को
जो न कभी था औ न कभी है , न कभी होगा ||

१६ अप्रैल १३

23 मार्च को इलाहाबाद से


23 मार्च को इलाहाबाद से-


वह निहारती रही

मैं अनजान, सुनसान

अपनी तान में हुआ बेजान |

करवट बदलकर देखा-

अचकाचाये-सकपकाकर मायूस 

अभी भी टाक रही थी एकटक 

जब मेरी बारी आयी 

देखते ही सकुचाई-शर्मायी

लाल -गेहुंयें रंग जैसे 

चेहरे पर क्षणिक समय के लिए

एक विस्मित मुस्कान छायी |

उजड़े चमन

उजड़े चमन


चमनलाल(कल्पित) हुए हैवान
कर दिया काम तमाम |
उजड़े चमन के बल पर,
हो गए मालामाल |
बचपन उनका रहा रसीला
पीते आये भंग भी गीला
भरी जवानी आंधी आई
कर दी पत्नी से भी बेवफाई |

१५ अप्रैल १३

कैमरे के सामने

कैमरे के सामने


दिन के उजाले में
कैमरा भी शर्मा जाता है
फ्लैश चमक गया तो ठीक
अन्यथा
प्रकाश की गुंजाईश नहीं |
भौहें ताने काली अंधेरी रात में
उन्नयन होकर वह
एकटक ताकता रहा-
कहीं ऐसा न हो कि
काल के आगोश में
दोमुहा चरित्र उतार
एक प्रतिबिम्ब धुँधली सी लेकर
ऐसा चित्र सामने आये
छाया-प्रतिछाया के संघर्ष में
अनवरत सुघर बनाने का प्रयास
उसे बंधनमुक्त करके भी
उसी दूधिया धारा में बहने को उतारू
बहता चला गया |
उस अनंत आकाश की ओर
जहाँ नील वर्ण की असीमित आभा दिखे
समुद्र के उस छोर को भी
कैमरे में कैद करने के चक्कर में
स्वर्ग की वजाय नरक कुंड में भी
यमलोक का एहसास दिलाता
कैमरे के सामने आता |

०१ अप्रैल १३ को

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

विद्या-अविद्या

विद्या-अविद्या


      1
ब्रम्ह की छाया
अविद्या बनी माया
कलक दर कलंक लेकर
घूमती रही लघु काया|
विद्या-रूपिणी मल्लिका
नहीं बन पायी माया
शंकर ने अस्त्र निकला
उपनिषद की पडी छाया |
अहं ब्रम्हास्मि के सूत्र से
बने अद्वैत की ज्वाला से
रामानुज ने निकाली नयी धारा
आत्मा-परमात्मा दो हुए
राम-कृष्ण की महिमा जगाकर
भक्ति में सराबोर हुए ||

१५ अप्रैल १३

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

वीर पुत्र हुआ बदनाम

वीर पुत्र हुआ बदनाम


नाम हुआ बदनाम
काम करें किसी भी हद तक
ईमान लेकर चलें
तलवार के धार पर भी
अर्पित कर दे जीवन को
मिलता बहुत कम |
कभी घोड़े पर सवार होकर
नदी पार करने की लालसा लेकर
चलता चला जा रहा था वीर पुत्र !
अभिमन्यु भी नहीं तोड़ पाया
अभेद्य दीवार...........!
अर्जुन को कर्म का सन्देश देकर
कृष्ण करते रहे गुणगान |
नहीं रहा वह भाईचारा |
आमदा रहे बलिदान देकर
कलंक के किनारा नहीं मिला
अंत समय में युधिष्ठिर भी
गवां बैठे कीमती अंगूठा |
नाम ही तो था उनका
बदनामी के कलंक से
जीवित होकर भी नहीं बचे |

१३ अप्रैल १३

चल अकेला चल

चल अकेला चल

सूर्य कई लालिमा
शरीर को मन को
शुद्ध करती हुई
आगाह करती चलती
जीवन में राह दिखाकर
यही आह्वान करती
अब नहीं तो कभी नहीं
चलते चले जा......!
उस शिखर की ओर
जहाँ प्रकृति का मनोरम दृश्य
आकर्षण की मुद्रा में
उन्हीं लक्ष्यों को
साथ लिए है
जिसकी आकांक्षा वह
जन्म से करता आया
युवा काल में पछताया
प्रोढ होकर सुलझाया ||

१३ अप्रैल १३

बुधवार, 9 जनवरी 2013

आसाराम बापू की गठरी को मध्यकाल की नजर में देखने पर

आसाराम की गठरी में नहीं रहा अब जोर
भक्त सगरी छूट गये भये अंध के अंध
जोर लगाए जात है काम-काज नहीं और
छींटाकशी का देत है उनको चहुँओर |

 ठूँठ वृक्ष

गमले की सुंदरता
देखकर हर कोई कहता
वाह क्या शरीर है !
पेड़ का, पौधों का
पुष्प का, कलियों का-
जब माली आकर उसे
निहारता, पानी देता
ठूँठ हुआ वृक्ष विलाप करता |
ग्लोबल वार्मिंग को दोष देकर
कभी-कभी वह संतोष करता |
कभी शांत पड़ा सोच में डूब जाता|
अल्लसुबह अमृत की एक बूँदे
पड़ने पर तेजी से
कराहता हुआ और पाने की चाह में
बैचैन हो जाता |
खाद-पानी पाकर
थोड़ी हरियाली की मुरीद बनता
धूप-बारिस से बेहाल होकर
बार-बार आगे बढ़ने की
मुरझाए चेहरे पर खुशी लाने की
कोशिश वह जरूर करता|
प्रकृति के कण-कण से
उसका शरीर जोश से भर जाता
ऐसे ही एक दिन वह
अपनी सारी वेदना को भुलाकर
कष्टों से तार-तार होकर
नव-पल्लव की आस में
आभासी ही सही परन्तु
नए जीवन को पाकर
खुश होता, इठलाता, झूमता !
यह वही ठूँठ वृक्ष था जो
कभी मालिक की बगिया में
दुत्कारा गया था,
हीनता भाव से त्रस्त था
चमत्कार तो होता तब है जब
वह सभी वृक्षों का सहायक बनता||

डा. मनजीत सिंह

०५/०१/२०१३

सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नववर्ष २०१३ विशेष

नववर्ष की पूर्व संध्या

सूरज की लालिमा को
छुपाने को तत्पर
आसमान किस तरह
उमंगें भर रहा,
इसे देखकर मन को
बड़ा सुकून मिलता |
कम से कम एक
भारी भरकम साल
बड़े ही आहिस्ते से,
गुजरता  चला जा रहा
हौले-हौले चिढ़ाता चला 
जोर-जोर से पुकारकर
यही  कहता चला जा रहा,
याद  कीजिए, दिमाग पर
जोर भी डालिएगा
आज का ही दिन था
जोश  में भी  थे, उत्साह में भी थे
यह तो जरूर प्रण किये थे
भूली-बिसरी यादों में 
नयापन ही जोडेंगे
अफ़सोस होता है तब
जब हम तीन सौ पैंसठ दिन को
देखते तो यही पाते है
तुमने हमें कहीं का नहीं छोड़ा
याद करो वे सारे दिन
तुम जब हमको छेड़ रहे थे 
यह क्रम रूकने की वजाय
चलता गया
आपसे तो बेहतर पश्चिम वाले थे
जिन्होंने प्रकृति से ही ईश्वर को याद किया|
लेकिन आपने तो कुछ भी नहीं किया औ
समाज  पर भी  बोझ बनते हुए 
भरसक सताने में कोई भी
कोताही नहीं की |
दाद देते हैं-
प्रकृति प्रदत्त उन भाग्यशाली लोगों को-
प्रणाम  करता हूँ उनके जूनून को
जिसके बल पर
भारीपन होते जीवन को भी,
हल्का करने का साहस रहा|
अपनी खुशियाँ बरकरार रखकर
यही कहते रहे कि-
भई ! जन्म लेकर धरती पर
तुमने भोगा, हमने पाया |
इसे पाने की ललक ने
भले ही हमें कुछ ऐसा-वैसा
करने को मजबूर होना पड़ा |
आखिर हमें जाने न जाने से क्या होता
जानना है तो जानो,
लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़े
समाज के बहुरूपिए को
बजाते रहे और सुनते रहे
अपनी ही तान पर झूमते रहे |
जनता बेचारी समय की मारी
कहाँ जाए और किसे सुनाये
अपना कष्ट, अपना दुःख
संतोष करके बस रह जाती है
वह तो यह भी नहीं कह पाती है
नववर्ष की पूर्व संध्या मुबारक हो||
३१/१२/२०१२

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

श्रीमती जी कहिन् .........

जब कभी जुड़ता हूँ
फेसबुकिए मित्रों से
गाहे-बेगाहे कह उठता हूँ-
वाह ! क्या जीवन है-
गाँव में रहकर भी
शहर का अहसास है-
परन्तु इस अनुभूति पर
अक्सर पडता रहता है-
तुषारापात, कुठाराघात "औ" वज्रपात !
जब श्रीमती जी के बोल इसे
देते रहते है-जबान |
वह  जुड़ते ही बोल उठती है-
क्या करते रहते हो दिन-रात
जब देखो तब तुम
चिपके रहते हो ऐसे,
जैसे घर में नहीं अपितु
विचरण कर रहे हो
ऊदकमंडलम की चोटियों पर |
इतना तो याद रखते कम से कम,
शादी तो हुई थी हमारी
बहुत धू+ म+ धा+ म से लेकिन
अब उसे धूमिल क्यों करते हो?
क्या  रखा है ऐसे संसार में  ?
जिसमें हमारे समय का
आहिस्ते से हो रहा संहार है|
बस इतने से संतोष हो जाय
तो ठीक हो.....!
हम तो देखते रहते हैं-
सांझ-सबेरे, अँधेरे औ उजाले में  भी
सोचते-सोचते बेहाल रहते हो |
मैं तो जोर देकर कहूंगी कि-
तुम मान  जाओ नहीं तो
वह दिन दूर नहीं कि
हम स्वयं ही फेंक देंगे एक दिन
इस बांसुरी सरीखे बाजे को |
इतना  सुनकर मैं  तो सशंकित रहता हूँ
समझाने का काफी प्रयास भी करता हूँ|
बड़े प्रेम से कहता रहता हूँ-
सुनो जी ऐसा नहीं है
ज़रा यह तो सोचो
हम तो उसी विश्वग्राम में ही रहते हैं
यह तो इन्टरनेटीया युग का ही तो
धमाल है ! धमाल है ! कमाल है !
यह जाल इतना बारीक है कि
इसमें फँसते चले जाते हैं हम
परिणाम भले न निकले
कार्य-कारण तो जरूर है इसमें
यही वह प्रतिफल है जो
महासागर से भी गहरा है |
सबके बस की बात नहीं
उस मोती को पा ले आसानी से
जब हम जूझते तो कुछ पा ही जाते हैं|
हारे हुए जुआरी की तरह पुनः कहा-
आप तो जानती हैं कि
कुछ के लिए बहुत गवाना जरूरी है |
लेकिन वह तो अड़ी रही
अर्धरात्रि तक यही उलाहने देती रही
ठीक है आप लगे रहो-
जब आप अपनी वाली ही करेंगे
मैं भी वही करूँगी जो आपको गवांरा नहीं|
हारकर मैं बंद कर दिया
कल को चिंतन में कैद जो कर लिया
आगे के सपने को परसों तक,
शब्दों को परसों के लिए कविता
में आने के लिए स्वन्त्र कर दिया||

२४ दिसंबर २०१२

डा. मनजीत सिंह



http://drmanjitsingh.blogspot.com/kavita/blog-post_html
 हासिये पर जीवन 


बहुत कीमती है
वह जो कभी हासिये पर रहकर
केन्द्र में आने को बैचैन,
भूख से कुलबुलाता पेट
सूखी अतडी से त्रस्त होकर
राह चलता मुसाफिर भी
दांत दिखाता उसे बुलाता,
जब कभी उनके मोल को
चाहने वाले भी नहीं देखते
सुन्न होकर सिर झुका लेते
बहुत कहने पर भी वह
न कभी आगे आते
जब वह अंदर ही अंदर
मुस्काते तो
अच्छे-अच्छे
परास्त हो जाते|
२४ दिसंबर २०१२

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

सबेरे सबेरे

जब कभी नींद खुल जाती है
सबेरे सबेरे
याद आने लगती है गीली जमीन-
जो ओस की बूंदों से तरबतर होकर
छोटे-बड़े पैरों को आश्रय देती रहती|
यही दूरी मिटाती है-गाँव का शहर से
शहर का मोहल्ले से, मोहल्ले का गली से
और इतना ही नहीं
विश्व विजयी बनकर जब वह घर आते
चाय की चुस्की में भूल जाते कि
हम वही है जो सुबह की सैर में
हरियाली का नजारा लेकर आये है|
दूसरी तरफ जब हम जाड़े की
सुबह में दुबके चेहरों को निहारते
धूप की किरणें लेने को बेताब
सुर्ख हुआ जाता|
सबेरे सबेरे आँगन को बहार रही
चमकते चेहरे को घूँघट में छिपाए
बहूरानी का उत्साह देखते ही बनता|
अब तो बस उसे काम ही काम दिखता
बीमार बुढिया की खाँसी से तंग सुबह में भी
वह चौका बर्तन करती
कभी इधर देखती कभी उधर
कहीं दूसरी बहू जीत न जाए
यह स्पर्धा भाव ही
सबेरे सबेरे बरबस
कहने को बेचैन करता-
भई वाह! बहू हो तो ऐसी |
यही एक शब्द सुबह से
शाम तक उसकी कानों में
गूंजकर लड़ने की शक्ति
प्रदान करता .....!
वह लड़ती तो नहीं लेकिन
आत्मग्लानि को कमतर करके
जीवन की नैया पार जरूर करती|

२४ दिसंबर २०१२

रविवार, 23 दिसंबर 2012

हैदराबाद में स्थित बिडला मंदिर से जुड़वाँ शहर को देखकर

आबोहवा

शहर की इमारतों ने
लोगों को अपनी आगोश में लेकर
तेज चलने को विवश किया,
कभी इधर कभी उधर जाने को
मजबूर किया|
लोग कह रहें हैं आबोहवा बदल रही हैं|
बिडला मंदिर में संगमरमर पर
उकेरी गयी मूर्तियां
चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है
दूर देश के नौसिखिए कलाकारों में भी
भारतीयता की पहचान करके हमें
दिखा रही है,
वह हुनर जो तरबतर है
उसी परंपरा से जिस पर
हमें गर्व है|
इतना ही नहीं उस कला को भी
चुनौती दे रही है,
जो
कभी विहंगम दृष्टि की
उम्मीद नहीं करती|
जब यहाँ से नजर दौडाते हैं तो
छू लेने को जी चाहता है
उस विश्वग्राम को जो
दूर होकर भी पास बुलाती है
तब हम कैसे कहते हैं-
आबोहवा बदल रही हैं|

१६ दिसंबर २०१२ बिडला मंदिर से
माफीनामा

माफीनामा दर्ज करना आदत है हमारी
खुशगवार जिंदगी में जीने की कला
सिखाना क्या खराब है ?
यह तो जवाब नहीं कि-हमसे
ज़माना नहीं जमाने से हम हैं|
अरे भाई ! कसौटी तो यह होगी कि
यदि हम रहें तो जमाना रहे
हम न रहें तो भी ज़माना याद करे|
लेकिन
जनाब "हम" की लड़ाई में गुरूर की बू आती है
जीवन को पीछे धकेलकर
गर्त में ले जाती है|
इसी कारण तो मैं कहता हूँ मेरे दोस्तों-
गर चाहते हो अच्छी जिंदगी
छोड़ दो गुरूर और स्वीकार लो बंदगी(माफी)

१५ दिसंबर २०१२ को हैदराबाद से
कुछ बातें जो चाहते हुए भी
नहीं कह पाते
बाद में यही बात
परास्त करने को आतुर
लेकिन कभी तो यही
आगे बढ़ने में मदद
करती हमें मंजिल तक
पहुंचाते हुए रंगीन सपने
दिखाती, यथार्थ से मिलकर
वह कर दिखाती हैं,
जो न कभी सोचा था, न समझा था|

सात दिसंबर २०१२

विशिष्ट पोस्ट

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान  (सरकारी सेवा के बीस साल) मनुष्य अ...