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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

राजनीति की गणित

राजनीति की गणित


जोड़ और तोड़ की राजनीति
गणितीय विधि पर भारी पड़ रही
आर्यभट्ट-भास्कर-रामानुज को
ठेंगा दिखाकर नेता-राजनेता को
चिढ़ा रही है........................!
जोड़कर बनता राजमहल नोटों का
ईंट-सीमेंट-सरिया-स्टील-लकड़ी
मिलकर पानी की जगह खून से
लथपथ जनता की आह सुना रहें |
तोड़ने से भी नहीं टूटता इनका जोड़
यही तो वे आजन्म निभा रहें हैं ||

डॉ. मनजीत सिंह

24/07/13

क्या एक युग की शुरूआत हुई ..?

क्या नये युग की शुरूआत है ...?

जन्म-पुनर्जन्म लेकर
शिशु-बालक-युवा-प्रौढ़
वृद्ध बनकर मनाता रहा-
रजत जयंती-स्वर्ण जयंती
क्या एक युग की शुरूआत हुई ..?

कार्य करने की क्षमता में
होने लगा परिष्कार शनैः-शनैः
निविदा - निविदा - टेंडर - वेंडर
गुजरने लगी है नव उन्मेष में

क्या एक युग की शुरूआत हुई ..?


धूल-धूसरित बच्चों को भी
मिलने लगी सुगंध शनैः-शनैः
दौड़ते-दौड़ते..हाँफते-कांपते-कंपकपाते
होठों पर खींच गयी नयी लाली
क्या एक युग की शुरूआत हुई ..?

घूरहू-कतवारू ने भी ली अंगडाई
चमक बिखेरे बतीसी देख उनकी
गयी बिकाय जीर्ण-शीर्ण कामधेनु
होने लगे संतुष्ट वे कहने लगे पुकार
क्या एक युग की शुरूआत हुई ..?

डॉ. मनजीत सिंह

24/07/13

रविवार, 14 जुलाई 2013

शोर

शोर


समुद्र की लहरें
किनारे तक हिलोरें
लेती हुई शोर करती |
भयभीत जन सूनामी का
अहसास करते-करते शांत
सहमकर दरबे में सो जातें |

मछुआरे की नाव
बीच भंवर में पहुँचकर भी
टकराकर धरती के प्लेटों के
लड़ने का आभास कराती...|
चकोह के मायाजाल में फँस
शोर के गर्भ में गुम हो जाती |

चमकते ललाट की आभा
ॐ मन्त्र के जाप से चिंतन मन
विवेकानंद रॉक से निकली ध्वनि
सराबोर करती उस अंतर्मन को
शुद्ध करते-करते नव सन्देश देती
जीवन-यौवन को पास बुलाती ||

शिक्षा का मंदिर
कलरव करते नन्हें-मुन्हें बच्चे
ध्वनि संकेतों से निर्मित लिपि
रोज-रोज नए शब्दों का निर्माण
पदबंध में जुडकर डमरू को सुन
गदगद मन झंकृत ही होता |

प्रकृति के मनोरम दृश्य
पके आम के फलों से लदे पेड़
हवा से पत्तों की खनकती आवाज
सुनते आकाश में उडती चिड़ियाँ ||

क्रमशः

डॉ. मनजीत सिंह

जुलाई 14, 2013, रविवार

सोमवार, 13 मई 2013

बागी

बागी


पेड़-पत्तों से बागी होकर
नयी ऊर्जा भर देता
आजाद कर आक्सीजन को
कार्बन को निमंत्रण देता
साँस लेते ही चिंतामुक्त हो जाता ||

बार-बार गाता-दुहराता
मानव जाति को ठेंगा दिखाता
अपने सफ़ेद खून से
सींचता चला जाता
लिखता इतिहास विनास का ||

एक समय था जब

धरती स्वर्ग बनी
आजादी की लड़ाई को भी
महसूस किया था बागियों ने
बयालीस को जोड़ा इतिहास में
आज बस यादें शेष बची ...!!

गान्ही बाबा भी तो बागी बन
फूँक दिए बिगुलबयालीस में
करो-या-मरो का नारा देकर
हिला दिए थे फिरंगियों की नीव
जाना पड़ा जेल भी उनको ...!!

किसान-मजदूर सहते-सहते
बन गये बागी हो गया काम
रूस-भार में हो गया नाम
मार्क्स-प्रेमचन्द निराला-नागार्जुन ने
क्रान्ति की ज्वाला भी जलाई |

दिल्ली की दरिंदगी पर
भारतीयों ने की बगावत
हो गयी छुट्टी बड़े-बड़ों की
नई चेतना की धारा से
सराबोर अब हुई दुनिया ..!

लाल-सलाम करते-करते
नक्सल भी पर्याय बना अब
बिनाश की लीला देख वह
बना परिन्दा कट गया पंख
नहीं रहा अब कोई शंख ||

रोज बेतवा बहती थी अब
सूख गयी उसकी धारा
जल की रानी थी कभी वह
हुई सयानी बनी दीवानी
सूख गया उसका पानी ||

....डा.मनजीत सिंह.....१३/०५.१३

माँ



काश ! तुम पास होती

1


माँ दूर होकर
क़यू तड़पा रही हो
तारों से दो चार होकर
अपने को प्रकाशित करके
मन को बैचैन करती हो.

जब से गयी हो तुम
अभागा बन भटक रहा
कही ठौर नही
न आचल की छाव मिला
न मिली ममता. . . . . .!

जीवन हुआ बूढा
तन गयी पीठ
रहा नही कोई सहारा
लकडी का काठी भी
कर दिया बेसहारा मुझे. . .!

आज बहुत याद आ रही
मन करता है खूब रोऊ
अपना दुख देकर
शात कर लू अपना जीवन
करता हू शत शत नमन. . !

2

माँ तू धरती का बोझ उठाती
लाल-बाल-गोपाल को भी
पालने में सुलाती........!!
 

3
मम में वह ममता कहाँ
जो ममता है माई में
माँ का सनेह पुत का नेह
सिमटा उसमें ससेनेह
 

गजल

गजल  

1

दिल के मंदिर में गुलाब की सुगंध आती है
हर नाचीज को भी दुआ-सलाम करती है
आते हैं चढावे हर रोज धूप बत्ती के संग
पेट नहीं भरता औ भूख व्याकुल करती है ||

.....डा.मनजीत सिंह......१३/०५/१३


2


काश मेरे दर्द की भी कोई दवा होती, दूजा दुःख घूँट पीकर मस्त होता |

3


घरिनी घर को स्वर्ग बनाती, तभी तो वह इठलाती है ।
कभी-कभी चंडी बन जाती, तब तो बड़ा सताती है।।
7.6.13
डॉ. मनजीत सिंह
 


4


मन के मंदिर में प्रेम का दिया जलता है
दिन-रात कल्पना का प्रसाद चढ़ता है
समय-समय पर दिल का घंटा बजता है
यही नियमित क्रिया सुखद फल देता है।
9.9.13
डॉ. मनजीत सिंह


5


जब भीगी पलकों से हम  कोई नाम लेते है,
भूल जाता दुनिया औ उस पर जान देते हैं।
9.6.13
डॉ. मनजीत सिंह
 
 


6


उम्र के इस दहलीज पर आगे बदने को सोचता हूँ |
नींद भी नहीं आती और जमाना सोने नहीं देता ||
डा. मनजीत सिंह


11.06.13
  

7


शिखर की ओर देखकर मुझे सुकून नहीं मिलता,
उस मंजिल पर पहुँचकर ही मन संतुष्ट होता है।

11.6.13

डॉ. मनजीत सिंह
 


8


कभी-कभी तो सोचता हूँ.......काश् मैं भी अमीर होता
रोटी-कपड़ा-मकान से ऊपर...चाँद-तारों के करीब होता।

12.6.13

डॉ. मनजीत सिंह


 
 

कविता

कविता 

कविता कल्पना की उड़ान से बनती, सवरती और जवान होती है | यह उडान जितना जमीन से जुड़ा रहता है, कविता उतनी ही प्रभावी होती है लेकिन इससे संपर्क टूटने पर वह कविता इतनी हल्की हो जाती है कि इस पर सम्बंधित कवि के अलावा दूसरा(पाठक) गुमान नहीं कर सकता |
1
सूर्य उदित होने के पूर्व
ब्रह्म मुहूर्त के बाद
गौरैया ने गाया
राग-मल्हार |

2

भयभीत होने पर...?


भयभीत होकर
सहम जाते हैं-
अपने होने का अर्थ
खो देते हैं-
हो न हो एक दिन
दुनियाँ-जहाँ से भी
नाता तोड़ देते हैं-
जुदाई सहते-सहते
जीवन की दहलीज पर
पहुँचने से पहले ही
संसार को भी
छोड़ देते हैं ||

......डा. मनजीत सिंह......
 

3

सामत


शादी-विवाह आयोजन
गाँव में देखते ही बनता है
घूरहू-कतवारू की बाँछे खिल
चेहरे पर नयी उमंगें
सुबह से ही तैरने लगती
कई दिन से पूड़ी उदास होकर
इनके दर्शन हेतु विलख रही
चुप कराने का वक्त आते ही
सामत आ पडी उस पर
कैसे कर जगह बनाएँ
भीड़भाड़ में दुबक-दुबक कर
धीरे से पहुँचा वह पार
ऐसा लगा यही है उसका संसार
खूब मजे से टकटकी लगाए
देखता रहा बड़े खाने को
सोचता रहा कब शुरू करूँ
कहाँ से शुरू करूँ, कैसे शुरू करूँ
इसी समय आ धमका यमराज
यह खाने को प्राण की तरह
ले चला इंद्र दरबार ||

........०८ मई १३

4

नीलगाय


सुन्दर-सहज देह लिए
लोगों को आकर्षित करती
हरे-भरे खेत में अपना भोजन जुटाती
लेकिन जेठ की दुपहरी औ
पके खेत में
निरूपाय-निःसहाय होकर
सिर झुकाए चली जा रही
दौड़ा रहे हैं लोग
थककर वह कभी-कभी
मुड जाती पीछे
डरती-डराती धमका नहीं पाती
भूख से तडपकर मर नहीं पाती ||

...............डा.मनजीत सिंह...........०९/०५/१३

  

रविवार, 28 अप्रैल 2013

निन्यानबे का चक्कर


बंद कमरे की उमस

नींद के आगोश में आधी हकीकत-आधा फ़साना

बंद कमरे की उमस


हवादार खिड़कियाँ
बेजुबान दरवाजे कुछ
बोलने से भी कतराते
कही ऐसा न हो कि-
मालिक हमें अपनॉ से
जुदा करने पर आमदा हो |
हम कहाँ जायेंगे ? क्या करेंगे
उमस भरी हवाओं से, कैसे लड़ेंगे ||

..............डा.मनजीत सिंह........

वार्षिकोत्सव

वार्षिकोत्सव के उपलक्ष्य में....


नवयुग की नयी आभा
सूर्य की किरणों की लालिमा
उदित मन को प्रकाशित करती
भावी पीढ़ी को उर्जावान बनाती
जीवन-जगत को एकमेक करती
उत्सव मनाते बाल-मन की शोभा
विश्व-ग्राम से अभिभूत
स्व की छाया से आच्छादित
नयी-नयी योजनाओं को छोकर
उत्सव मनाने को तत्पर.......!!

......डा.मनजीत सिंह.......
२७/०४/२०१३

गजल

 जी मचल उठता है

अँधेरे के आगमन से जी मचल उठता है
उजाला तो बस सपनों में ही दिखता है |
क्या पता कब बरस पड़े काले-काले बादल
इसी उम्मीद से समय धीरे-धीरे बीतता है |

........डा.मनजीत सिंह......................


यूँ ही राते कट जायेगी



यूँ ही राते कट जायेगी ठिकाना पाने के लिए
मायूसी से मजबूर होकर भी गुजारा कर लेंगे |

............डा.मनजीत सिंह........................



बच्चे मन के सच्चे......

कार्यक्रम के दौरान इनके उत्साह देखकर अनायास शब्द मिले......जो सायास बन गया.....


भारत की तस्वीर है हमारे बच्चे
भारत की तकदीर है हमारे बच्चे
बदल देंगे दुनिया को एक पल में
ताकत से सराबोर हैं हमारे बच्चे ||

.........डा.मनजीत सिंह............


राष्ट्र हैं तो हम हैं........!!!


राष्ट्र की गरिमा को बढायें हम
विश्व में अपना परचम लहराएंगे हम
भारत के योगदान को दिखाएँगे हम
धूप हो या गर्मी, हर मौसम में
जलते हुए भी दीप जलाएंगे हम |

.डा....म...न...जी...त...सिं.......ह.
 

 

जीवन की नगरी

 जीवन की नगरी


जीवन की नगरी सुनसान हुई
साँझ-सबेरे भारी मन से दबी
भावनाओं से जुडकर .......!!
अन्तः स्थल में बहने लगी
खूनी धारा ...........!!
सहसा जोर की आवाज
चीत्कार-फुफकार ने
आग में घी मिलाकर
दावानल को आमंत्रित किया |

.........डा.मनजीत सिंह........

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

कोई मजबूर न होता

कोई मजबूर न होता


काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
क्षुधा को शांत करने से दूर न होता |
परिंदों के पर को लग जाती ऐसी पंख
यमराज भी स्वर्ग में मिलते भरे अंक |

काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
निराले सपने देखने से वह दूर न होता
धरती की चादर पड़ती न कभी छोटी
मजमून होकर होती नहीं खोटी |

काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
खेत में किसान बीज से दूर न होता
उसकी फसल काटकर दूजा न जाता
आराम से सोता न कभी पछताता |

काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
शहर भी उस गोंव से कभी दूर न होता
बिल्डरों के नखरे उसे रुलाते न कभी
हर घर से खुशियाँ जाती न कभी |

२५/०४/१३

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

कलाएँ बोलती है !

कलाएँ बोलती है !


धरती और आकाश
जब एक हो गये ....!

चित्रों में बंध गये
तार-तार गो गये

जल रंग के सागर में
फूल-पत्ते भी खो गये

जहांगीर की जागीर में
अनायास ही जुड़ गये

अवनींद्र-पिकासो-सूजा
रजा से लेकर मकबूल

निर्द्वन्द्व भाव से खोकर
आत्माओं में राम गये

हम जैसा आम दर्शक
धीरे-धीरे से कह गये

कलाकार बोलता नहीं
कलाएँ बोल उठती हैं |

........................२४/०४/१३...........डा.मनजीत SINGH

मौसम सुहाना है



मौसम सुहाना है


आँधी-पानी लेकर
बादलों ने कहर बरपाया
धरती की पीड़ा को और बढ़ाया |
लोग झाँक रहे
अपने घर की खिड़की से
सहम गया मन सहम गयी जिंदगी |
कुछ ने कहा-
भई ! वाह क्या कहना
मौसम सुहाना है यही है गहना |
महलों-राजमहलो में
बयार की आवाजाही नहीं
पवन देव तो बसते है
गाँवों औ गलियों में
असर भी छोड़ते है_
मिटाकर भी जिलाते हैं
स्वर्ग में नहीं फिर भी
नरक में रहने को मजबूर भी करते हैं ||

२०/०४/१३

 

न रहा चैन, न रहा सुख ||  


लोग कहते है दिल्ली दिलवालों का शहर है
कहाँ गये दिलवाले, कहाँ गयी दीवानगी
कहाँ गया सुख चैन, कहाँ गयी रवानगी |
अब तो यही कहना मुनासिब है-
दिल्ली दरिंदों का शहर है
अब तो न रहा चैन, न रहा सुख ||

बेटियाँ -२

बेटियाँ -२


धरती का बोझ
उठा सकती हैं बेटियाँ
शांतिपूर्ण वातावरण बनाकर
विकास का रास्ता भी
दिखा सकती हैं बेटियाँ |
उल्टा को सीधा औ
सीधा को उल्टा
कर सकती हैं बेटियाँ |
नीले-पीले-लाल-गुलाबी
रंगों में रंगकर
जल-तरंग आभा से दीप्त
आकाश की तरह ऊँचाई को छूकर
नयी सीख दे सकती हैं बेटियाँ |

२१/०४/१३

नश्वर जीवन

नश्वर जीवन


मन के कोने से आवाज निकली
तू क्यों रहता खोये-खोये से
देखकर तुमको अजीब लगता
कभी तो चैन की साँस ले लिया कर ||
नश्वर शरीर बड़े जोश में कहा-
मुझे क्या लेना तुमसे
मेरा तो तर्पण है धरती है
अर्पण करता हूँ आकाश को जल से
सूर्य की गर्मी(अग्नि) से तपकर
धारण करता हूँ जीवन ||
१३/०४/१३
अतिथि के स्वागत के दौरान.....!

शांत समीर


शांत समीर


शांत समीर ने
जलती धरती की कान में
धीरे से कहा-
भाई ! शीतल मंद बयार
लू के थपेडों पर पड़ने लगी भारी |
धूल भरी आँधी-तूफ़ान में
तुम्हारी छाती पर कर रहे कलरव
उड़ते कण आँख की किरकिरी बन
आवास गवाँकर हो रहे मजबूर
तडपकर नव दुनिया को खोजते
अपना नया आशियाना
यहाँ सब मिल एकजुट होकर
वैर-भाव को आसव की तरह पीकर
एक छत के नीचे आने को मजबूर ||

२० १३ /०४/२४

नाखून

नाखून


मृत जीव से निर्मित
बदते हैं जैसे यौवन
बोझ उठाते नरक का
उत्साह बढाते गुंडों का
आधुनिक नारी की शोभा में
चार चाँद लगाते, मुस्काते
आइना बनकर रोगों को चिढाते |
खतरनाक इरादे लेकर
आश्रय देते उन जीवाणुओं को
हमला करते धीमे जहर की तरह
एक समय आता
गुमराह करते चलते
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदनाम करते ||

२४/०४/१३

रविवार, 21 अप्रैल 2013

बंदरबाट

बंदरबाट


सरकारी महकमें में
जाकर देखें तो जरा
सुबहोशाम मचा कोहराम
बाबू-नेता-क्रेता-विक्रेता
उलझ-उलझ कर करते
बंदरबांट हैं.............!

स्वर्ग की कल्पना करते
लोक-परलोक में उलझे लोग
नारद-सारद-विष्णु-राम को
उतारते रहते अपनी जेहन में
मचा रहें ऊधम अपने आप है
बंदरबांट है................!

शिक्षा नगरी सूनी होती
बिखर रहें है उनके सपने
गुरू-शिष्य भी बदले-बदले
बना रहें हैं अपने-अपने
कर रहे हैं बहुत गुरूर हैं
बंदरबांट है ...........!

२१ अप्रैल १३

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